फिलिस्तीन के लिए नक्बा (महाविनाश) अभी भी जारी है

फिलिस्तीन के महाविनाश के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। 1948 में फिलिस्तीनियों को उजाड़कर, उनके खेत, मकानों से बेदखल करके और बड़े पैमाने पर हत्यायें करके साम्राज्यवादियों ने साजिश के तहत यहूदी नस्लवादी इजरायली राज्य का गठन किया था। उस समय साढ़े सात लाख फिलिस्तीनी अलग-अलग देशों में शरणार्थी बनने को विवश हुए थे। तब से फिलिस्तीनी अवाम अपना राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष चला रही है। बाद में इजरायल ने फिलिस्तीनियों को दो टुकड़ों में, एक-दूसरे से काट कर बांट दिया था। एक अच्छी खासी फिलिस्तीनी आबादी इजरायल के अंदर और पूर्वी येरूशलम में रहती है। इन दोनों फिलिस्तीनी इलाकों- गाजापट्टी, और पश्चिमी किनारे- पर भी इजरायल की यहूदी नस्लवादी सरकारें यहूदी बस्तियां बसाती रही हैं जो आज भी जारी हैं। इन बस्तियों को फिलिस्तीनी लोगों को उजाड़ कर बसाया जाता है। उनके घर, खेत पर कब्जा करके उनके जैतून के पेड़ों को उखाड़कर उन्हें अलग-थलग रखने की प्रक्रिया निरंतर चल रही है। 
    

आज जब दुनिया भर के फिलिस्तीनी अपने नक्बा के 75 वर्षों को याद कर रहे हैं तब इजरायल की यहूदी नस्लवादी सरकार 40 हवाई जहाजों को लगाकर गाजापट्टी पर बमबारी कर रही है। इस बमबारी में 40 से ऊपर फिलिस्तीनी मारे गये हैं जिनमें महिलायें और बच्चे भी हैं। सैकड़ों लोग घायल हुए हैं। ये हमले समूची गाजापट्टी में हुए हैं। सैकड़ों से ज्यादा मकान पूरी तरह से ध्वस्त हो गये हैं। 
    

इस हमले की पृष्ठभूमि उस समय तैयार हुई जब इजरायल की जेल में कैद एक फिलिस्तीनी लड़ाकू नेता लम्बी भूख हड़ताल के बाद मर गया। इस मौत से उपजे गुस्से में फिलिस्तीनी लड़ाकुओं ने इजरायल पर राकेटों से हमला शुरू कर दिया। इस हमले में कई इजरायली इमारतें ध्वस्त हो गयीं। इजरायल को फिलिस्तीनियों के पास ऐसी मारक क्षमता का भान भी नहीं था। इजरायल यह सोचता भी नहीं था कि फिलिस्तीनी लड़ाकुओं के पास तेल अबीव तक मार करने वाले रॉकेट हैं। 
    

गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों के संगठन हमास का शासन है जबकि पश्चिमी किनारे का इलाका फतह संगठन के शासन के अंतर्गत है। फतह संगठन के मोहम्मद अब्बास यहूदी नस्लवादी हुकूमत के साथ सांठ-गांठ के बल पर फिलिस्तीनी प्राधिकार के मुखिया हैं। फिलिस्तीनी प्राधिकार फिलिस्तीन की ऐसी सरकार है जिसके पास वस्तुतः कोई वास्तविक ताकत नहीं है। 
    

फिलिस्तीनी लोगों के मुक्ति संघर्ष का एक पड़ाव ओस्लो समझौता था। 1993 में हुए इस समझौते के फलस्वरूप फिलिस्तीन प्राधिकार के रूप में एक फिलिस्तीनी सरकार अस्तित्व में आयी थी। इस नाममात्र की सरकार को वास्तविक अर्थों में सरकार में तब्दील करने का वायदा किया गया था। अमरीकी साम्राज्यवादियों की मध्यस्थता में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के नेता यासिर अराफात और इजरायली हुकूमत के बीच हुए समझौते के बाद ही इजरायल ने फिलिस्तीनी प्राधिकार के अंतर्गत आने वाले इलाकों में यहूदियों की बस्तियां बसाना शुरू कर दिया और यह प्रक्रिया निरंतर तेज से तेजतर होती गयी है। फिलिस्तीनी प्राधिकार के नेताओं की इजरायल की यहूदी नस्लवादी सरकार के सामने घुटने टेकने की नीति और इस प्राधिकार के नेताओं में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण फिलिस्तीन की मजदूर-मेहनतकश आबादी और युवाओं में व्यापक असंतोष और गुस्सा भड़कता गया। यह गुस्सा आगे जाकर 2000 में दूसरे इंतिफादा में फूटा। यह इंतिफादा आगे बढ़कर कई हथियारबंद समूहों द्वारा इजरायल के विरुद्ध किये जा रहे निरंतर हथियारबंद संघर्ष में तब्दील हो गया। इस समय पश्चिमी किनारे और गाजापट्टी में कई हथियारबंद संगठन हैं जो इजरायल के विरुद्ध हथियारबंद संघर्षों में लगे हुए हैं। इनका नेतृत्व इस्लामी विचारों के आधार पर संगठित फिलिस्तीनी इस्लामी जेहाद नाम का संगठन करता है, इसकी सैन्य शाखा अल-कुद नाम का संगठन है। यह मुख्यतः गाजापट्टी में केन्द्रित है। इसका विस्तार पश्चिमी किनारे के इलाके में भी है। गाजापट्टी में हमास नामक संगठन का शासन है। यह भी इस्लामी विचारधारा से निदेशित है। यह संगठन इजरायली कब्जे के विरुद्ध ज्यादा मुखर होकर संघर्ष करने की बात करता है। इसलिए गाजापट्टी को इजरायली यहूदी नस्लवादी हुकूमत ज्यादा प्रतिबंधों का शिकार बनाये हुए है। गाजापट्टी का समूचा क्षेत्र वस्तुतः खुली इजरायली जेल में तब्दील हो गया है। यहां भी इजरायली यहूदी बस्तियां तेजी से बसाई जा रही हैं। 
    

इस समय गाजापट्टी में इजरायल की नस्लवादी हुकूमत ने बड़े पैमाने पर हवाई हमले तेज कर दिये हैं। पहले से ही गाजापट्टी की अवाम कड़े प्रतिबंधों का सामना कर रही है। वहां की करीब 22 लाख आबादी में से 70 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे की स्थिति में जीवन-बसर कर रही है। वहां भोजन, पानी और दवाओं का अभाव है। गाजापट््टी का कोई भी फिलिस्तीनी पश्चिमी किनारे या इजरायल बगैर इजरायली हुकूमत के आदेश से नहीं जा सकता। इजरायली हुकूमत ने फिलिस्तीनियों के लिए पास जारी किये हुए हैं। अगर फिलिस्तीनी व्यक्ति को इजरायल के अंदर मजदूरी करने के लिए जाना है तो उसे चेक प्वाइण्ट से गुजर कर जाना होगा। 
    

इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत ने फिलिस्तीनी इस्लामी जेहाद को जड़ से खतम करने के मकसद से हवाई बमबारी करने की घोषणा कर रखी है। इन हमलों में वह इस्लामी जेहाद के तीन बड़े नेताओं की हत्या कर चुका है। उसने इन नेताओं के परिवार के लोगों, महिलाओं और बच्चों तक को नहीं बख्शा। इन हमलों से इजरायली नस्लवादी यहूदी हुकूमत की बदहवासी ज्यादा दिखाई पड़ती है। 
    

हमास को ईरानी हुकूमत के साथ-साथ लेबनान के हिजबुल्ला संगठन का सहयोग और समर्थन प्राप्त है। जहां इजरायल के साथ अमरीकी साम्राज्यवादी दृढ़ता से खड़े हैं, वहीं इजरायल इस समय पश्चिमी एशिया के इलाके में ज्यादा अलगाव की स्थिति में पहुंच रहा है। हालांकि पश्चिम एशिया के शासक फिलिस्तीनियों के न्यायपूर्ण संघर्ष का समर्थन अपने-अपने देशों के अवाम के दबाव में कर रहे हैं। लेकिन यह जुबानी जमाखर्च तक ही सीमित है। वे फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष को खुद अपनी निरंकुश सत्ताओं के लिए भी खतरा मानते हैं। 
    

इजरायली हमलों और फिलिस्तीनी इस्लामी जेहाद द्वारा इजरायल के भीतर राकेटों के हमलों से इस संघर्ष के और ज्यादा व्यापक होने का खतरा मौजूद है। यदि इस संघर्ष में ईरान कूद पड़ता है या इजरायल ईरान पर हमला करके ईरान को इस संघर्ष में खुले तौर पर आने के लिए विवश कर देता है तो यह लड़ाई और ज्यादा व्यापक होने की ओर जा सकती है। अमरीकी साम्राज्यवादी ईरान के विरुद्ध पहले से ही इस क्षेत्र में सक्रिय हैं और वे क्षेत्रीय ताकतों की लामबंदी कर रहे हैं।
    

वस्तुतः इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राज्य के तौर पर देखना ही नहीं चाहती। वह फिलिस्तीनियों को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर उन्हें इजरायली राज्य के द्वितीय दर्जे के नागरिकों के तौर पर रखना चाहती है। जैसे इस समय इजरायल के अंदर रह रहे फिलिस्तीनियों के साथ वह आचरण कर रही है। इजरायल के अंदर रह रहे फिलिस्तीनियों को इजरायली हुकूमत कानूनी तौर पर भी वह अधिकार नहीं देती जो यहूदियों को मिले हुए हैं। 
    

अभी फिलिस्तीनी प्राधिकार के अंतर्गत रहने वाले फिलिस्तीनी इजरायल के नागरिक नहीं हैं, लेकिन इजरायल किसी भी कीमत पर स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य का विरोधी है और फिलिस्तीनी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का संघर्ष चला रहे हैं। 
    

1967 के अरब-इजरायल युद्ध में अरब देशों की पराजय हुई थी। इस युद्ध के पहले पश्चिमी किनारा जार्डन का हिस्सा था। इस युद्ध में पश्चिमी किनारे को जार्डन से हटाकर इजरायल में शामिल कर लिया गया। यहां पहले से 1948 के नक्बा के समय फिलिस्तीनी जाकर बस गए थे। उस समय फिलिस्तीनी समाज मुख्यतया कृषि आधारित समाज था। इजरायल ने फिलिस्तीनियों से जमीनें छीनकर एक बड़ी आबादी को उत्पादन के साधनों से वंचित कर दिया था और वहां पर यहूदी बस्तियां बसाना शुरू कर दिया। 1967-1993 के दौरान लगातार यहूदी बस्तियां फिलिस्तीनियों को उजाड़कर बसाई गयीं। 1993 में ओस्लो समझौते के दौरान पश्चिमी किनारे के क्षेत्र को तीन तरह के क्षेत्रों ।ए ठ और ब् में बांट दिया गया। । क्षेत्र में फिलिस्तीनी प्राधिकार का शासन लागू होना था। यह क्षेत्र समूचे पश्चिमी किनारे का बहुत छोटा क्षेत्र था लेकिन यहां आबादी बहुत घनी थी। ठ क्षेत्र में फिलिस्तीनी प्राधिकार और इजरायल का संयुक्त शासन रहना था। यह क्षेत्र पहले से बड़ा था। ब् क्षेत्र में अकेले इजरायल का शासन रहना था। यह पश्चिमी किनारे का बड़ा क्षेत्र था। इस तरह ओस्लो समझौते में ही पश्चिमी किनारे के तीन टुकड़े इस तरीके से कर दिये गये कि वहां पर इजरायली वर्चस्व बरकरार रहे। इजरायल ने इसके अतिरिक्त यह किया कि उसने दक्षिण अफ्रीका की श्वेत हुकूमत की तर्ज पर फिलिस्तीनी आबादी का बंतुस्तानीकरण कर दिया। बंतुस्तान ऐसे अश्वेत गांव या इलाके थे जो एक-दूसरे से अलग-थलग थे और जिन पर श्वेत हुकूमत दूर से ही नियंत्रण कर सकती थी। इजरायल ने पश्चिमी किनारे और गाजापट्टी में यही किया। अब एक क्षेत्र के फिलिस्तीनी खुद पश्चिम किनारे के भीतर दूसरे क्षेत्र में या एक गांव से दूसरे गांव में नहीं जा सकते थे। इन पर इजरायली नियंत्रण है। 
    

अपनी जमीनों से बेदखल फिलिस्तीनी क्रमशः इजरायल में मजदूरी करने की ओर जाने को विवश हुए। इस प्रकार फिलिस्तीन के पश्चिमी किनारे और गाजापट्टी के इन बंतुस्तानों से इजरायल को सस्ते में फिलिस्तीनी मजदूर मिलने लगे। इस प्रकार पश्चिमी किनारे और गाजापट्टी में फिलिस्तीनी समाज का चरित्र बदलने लगा। ओस्लो समझौते के बाद फिलिस्तीनी समाज में एक छोटा सा पूंजीपति वर्ग पैदा हुआ। यह पूंजीपति वर्ग फतह व फिलिस्तीन प्राधिकार के भ्रष्टाचार में और ज्यादा विकसित हुआ। कुछ पढ़े-लिखे फिलिस्तीनी नौजवान खाड़ी के देशों में विभिन्न पेशों में अपनी जीविका में गये। एक नया मध्यम वर्ग तैयार और विकसित हुआ। इस तरह, ओस्लो समझौते के बाद फिलिस्तीनी समाज क्रमशः एक पूंजीवादी समाज में तब्दील हो गया। इसकी संरचना में इजरायली पूंजी का प्रभुत्व मौजूद था। लेकिन इसी संरचना से जन्मे मजदूर-मेहनतकश और पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग ने फिलिस्तीनी राष्ट्र के संघर्ष को नयी धार और ऊर्जा दी। 
    

इस प्रक्रिया ने जहां दूसरे इंतिफादा को गति दी वहीं इसी प्रक्रिया ने पश्चिमी किनारे में एक ऐसे शासक वर्ग का या पूंजीपति वर्ग का निर्माण किया जो इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों के सामने नतमस्तक होकर भी शांति चाहता था। इस पूंजीवादी गुट का मुख्य राजनीतिक प्रतिनिधि फतह संगठन का मोहम्मत अब्बास था। यह अब फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष को आगे ले जाने का विरोधी हो चुका है। अब यह इजरायल की यहूदी नस्लवादी सत्ता के साथ सांठगांठ करके फिलिस्तीनी लड़ाकुओं को कुचलने के लिए फिलिस्तीनी सशस्त्र बलों का प्रशिक्षण जार्डन में करा रहा है। इस तरह कल के सहयोगी फतह और हमास व अन्य संगठन एक-दूसरे के विरोधी होते जा रहे हैं। हमास या फिलिस्तीनी इस्लामी जेहाद का मुख्य नेतृत्व मध्यमवर्गीय समूहों से आता है और इनके जुझारू तेवर मध्यम वर्ग के नौजवानों के साथ-साथ मजदूर-मेहनतकश आबादी को अपने पीछे लामबंद करने में कामयाब रहे हैं। वहीं फिलिस्तीनी प्राधिकार का आधार बहुत तेजी के साथ क्षीण होने की ओर जा रहा है। यह बहुत स्वाभाविक हैं। 
    

फिलिस्तीनी मुक्ति संग्राम की सबसे बड़ी कमजोरी इसका इस्लामी विचारधारा का नेतृत्व है। यह एक ऐसी खामी है जिसके चलते यह संघर्ष समाज को अग्रगति देने की ओर नहीं ले जा सकता। 
    

देर-सबेर इसी संघर्ष के दौरान मजदूर-मेहनतकश अवाम की एक स्वतंत्र धुरी विकसित होगी जो मौजूदा इजरायली हमले का तो मुंहतोड़ जवाब देगी ही साथ ही फिलिस्तीनी समाज को एक बेहतर न्यायपूर्ण समाज की ओर समाजवादी समाज की ओर ले जाने का संघर्ष आगे बढ़ायेगी।     

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।