पूंजीपतियों की डींगे

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नरेन्द्र मोदी बहुत कम इंटरव्यू देने के लिए जाने जाते हैं। जो गिने-चुने इंटरव्यू वह देते भी हैं, उनके बारे में कहा जाता है कि इंटरव्यू में पूछे जाने वाले सवालों की सूची उनके पास पहले से भिजवा दी जाती है। अभी उन्होंने एक इंटरव्यू निखिल कामथ नाम के पूंजीपति को दिया है। निखिल कामथ सटोरिया पूंजीपति है जो कि सोशल मीडिया पर देश के नामी गिरामी लोगों का इंटरव्यू भी लेता है। ये नामी गिरामी लोग इन चर्चाओं के दौरान लंबी-लंबी डींगे हांकते हैं। निखिल कामथ इन डींगो का आम तौर पर खंडन नहीं करता है लेकिन इंटरव्यू में तड़का डालने के लिए कुछ कुरेदने वाले सवाल भी पूछ देता है। मसलन निखिल कामथ ने मोदी से पूछा कि नेता मोटी चमड़ी का बनने के लिए क्या करते हैं। मोदी ने यह मानने से तो मना कर दिया कि नेता मोटी चमड़ी के होते हैं, लेकिन अपनी डींगो के दौरान एक तरह से यह भी स्वीकार किया कि लोगों की गालियों का उन पर असर नहीं होता। 
    
निखिल कामथ ने ऐसा ही एक और इंटरव्यू अपने से भी बड़े पूंजीपति कुमारमंगलम बिरला का लिया। निखिल कामथ पहले पीढ़ी का पूंजीपति है जबकि कुमार मंगलम बिरला के दादे-परदादे भी पूंजीपति रहे हैं। निखिल कामथ एक शिष्य की तरह कुमार मंगलम बिरला से सफल होने के तरीके समझने-समझाने का काम इस इंटरव्यू में करते हैं। इंटरव्यू कितना सच्चा था इसका अंदाजा बिरला साहब के एक जवाब से मिल जाता है कि वे अपने विचार जनता के सामने रखने में विश्वास नहीं करते। उनके पास विचार रखने के उपयुक्त प्लेटफार्म हैं जहां सरकार से या अपने प्रबंधकों से या अपने सगे-संबंधियों से अपने विचार साझा करते हैं। 
    
इस इंटरव्यू में बिरला साहब ने भी लंबी-लंबी डींगे हांकी। उन्होंने बताया कि वे और उनके बाप-दादों ने कैसे कड़़ी मेहनत की। कैसे वे अपने नीचे काम करने वाले 1 लाख 80 हजार लोगों को अपने परिवार की तरह समझते हैं। कैसे वे और उनके पुरखों ने जो समाज से लिया है उसको अपने परोपकारी कामों द्वारा समाज को वापस किया है, वगैरह-वगैरह। 
    
बिरला साहब की तुलना में निखिल कामथ ने कुछ बातें ज्यादा साफगोई से कीं। वैसे तो निखिल कामथ ने अपने व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए यह बातें कीं लेकिन यह पूंजीपति वर्ग के बारे में आम सच्चाई है। निखिल कामथ ने बताया कि वह मेहनत करने का सिर्फ दिखावा करता है। उससे ज्यादा मेहनत उससे कम वेतन पाने वाले लोग करते हैं। बल्कि उसके संस्थान के पूरे सोपानक्रम में जो जितना ज्यादा कमाता है, वह उतना कम वास्तविक मेहनत करता है और उतना ज्यादा मेहनत करने का दिखावा करता है। उसने बताया कि वह अपने अत्यन्त निकटस्थ चार-पांच लोगों के लिए कम्युनिस्ट है, उससे थोड़ा ही बड़े घेरे के मित्रों के लिए सोशलिस्ट है और जिन लोगों को वह व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता, उन पर न तो भरोसा करता है न उनकी परवाह करता है। वह प्रकारान्तर से कह रहा था कि इससे भिन्न वह कुछ भी करे तो वह अपनी सफलताओं से हाथ धो बैठेगा। 
    
निखिल कामथ ने बताया कि सटोरिया पूंजी पुराने जमाने के लालची सूदखोरों की तरह है। जब बिरला साहब ने कहा कि उसे इतनी कठोर बातें नहीं करनी चाहिए, तो बात संभालने के लिए यह जोर दिया कि इस सबके बावजूद सटोरिया पूंजी देश के लिए फायदेमंद है। 
    
आज कारपोरेट जगत के बड़े-बड़े मुनाफाखोर सप्ताह में 70घंटे-90घंटे काम करने की मांग कर भले ही उपहास के पात्र बन रहे हैं। लेकिन यह सच्चाई है कि आज मजदूर वर्ग आम तौर पर सप्ताह में 60-70 घंटों से ज्यादा काम करने को विवश है। यह पूंजीवादी व्यवस्था है ही ऐसी जिसमें मजदूर वर्ग मेहनत करता है और पूंजीपति वर्ग मेहनत करने की डींगे हांकता है। 

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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