सत्ता की कुर्सी अब और ज्यादा खूनी होती जा रही है

पूंजीवादी व्यवस्था का संकट जैसे-जैसे  बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे सत्ता की कुर्सी की ख़ून की प्यास भी बढ़ती जा रही है। इस कुर्सी को मेहनतकश जनता का ज्यादा से ज्यादा ख़ून चाहिए होता है। जैसे-जैसे चुनाव का समय नजदीक आता जाता है, वैसे-वैसे लाशों के ढेर बढ़ने लगते हैं। चुनाव लाशों के ढेरों पर लड़ना और जीतना इस पूंजीवादी व्यवस्था का एक आम नियम बन जाता है।
    
चुनाव का समय आते ही तमाम समाज के जागरूक जनमानस के दिमागों में एक तस्वीर उभरने लगती है कि पता नहीं इस बार लाशों की संख्या कितनी होगी। इसमें कितनों के घर फूंके जाएंगे, कितनों के खिलाफ एक-दूसरे के दिलों में नफरत भरी जाएगी। कितने अपनों से हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ जाएंगे। कितनी महिलाओं को बलात्कार, हत्या का शिकार होना पड़ेगा आदि।
    
दूसरी तरफ राजनेता दंगों की पटकथा की तैयारियों में जुट जाते हैं। ये नेता जोड़-तोड़ कर रहे होते हैं कि किस इलाके में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर दंगे या दंगों का माहौल बनाया जा सकता है, कहां से ज्यादा वोटों की फसल काटी जा सकती है। जब सत्ता की कुर्सी और कुर्सी पर बैठने वाले खूनी हो जाएं तो ये अपनी प्यास तो खून से ही बुझाएंगे।
    
सत्ता की कुर्सी को लेकर जनता में बातें तो बहुत होती हैं कि राजनेता कुर्सी के लिए जनता को आपस में लड़वाते हैं, लेकिन कुर्सी के खूनी चरित्र को आम मेहनतकश जनता समझ नहीं पाती कि कुर्सी भी जनता के खून की प्यासी होती है। जनता की नजरों में कुर्सी और कुर्सी पर बैठा शासक देश-समाज का कर्ता-धर्ता और महान बना रहता है। जनता में यही महानता की मानसिकता उनको अपने शासकों के खिलाफ जल्दी से खड़ा नहीं कर पाती है। और उसको मुकम्मल विकल्प बताने वाली कोई पार्टी भी नहीं होती है। 
    
इसलिए मेहनतकश जनता साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने के लिए मजबूर रहती हैं। इसलिए जनता को इस ख़ून-खराबे से और जिंदगी की ढेरों समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए इन कुर्सी के भूखे जानवरों के साथ वैसा ही व्यवहार करने की जरूरत है जैसे नरभक्षी जानवर को मारकर ही हमें उसके खतरे से मुक्ति मिलती है। हमारा शासक वर्ग भी नरभक्षी होता जा रहा है और इसका इलाज भी उस नरभक्षी जानवर की तरह करने की जरूरत है।      -राजू, गुड़गांव
 

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।