
नूंह दंगों को थोड़ा और ज्यादा समझने के लिए एक टीम नूंह गयी। फरीदाबाद, दिल्ली, भटिंडा और सिरसा के कुछ जनसंगठनों के कार्यकर्ता नूंह व गुड़गांव गये। वहां पर अलग-अलग लोगों से जो मुलाकात हुई उसका एक संक्षिप्त अनुभव इस प्रकार है।
सबसे पहले उस स्थान पर जाने की योजना थी जहां पर प्रकृति की गोद में बना वह मन्दिर स्थित था जिसका बहुत नाम हो चुका था- नल्हड़ मन्दिर। नल्हड़ मन्दिर से जाते समय वह स्थान पड़ा जहां पर प्रशासन ने दुकानों को इन दंगों के बाद तोड़ा था। यह वह स्थान है जहां पर हसन खां मेवाती मेडिकल कालेज है। इस मेडिकल कालेज में पढ़ाई करने वाले छात्र, स्टाफ व वहां आने वाले मरीजों के कारण कुछ अस्थायी दुकानें व एक आध स्थायी दुकानें बन गयी थीं। मेडिकल कालेज के अस्पताल में आने वाले मरीज, तीमारदारों, स्टाफ व स्टूडेंट से ही इन दुकानों की आमदनी होती थी। यहां पर दंगा नहीं हुआ था।
इसके करीब एक किलोमीटर आगे नल्हड़ मन्दिर है। मन्दिर तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यहां के मुख्य प्रबंधक एक सरदार जी हैं जिनको लोग मलिक साहब कहकर पुकारते हैं। यह मन्दिर तो ज्यादा पुराना नहीं है लेकिन वहां पर एक शिवलिंग है जिसके बारे में मान्यता है कि यह पांडव शिवलिंग है। मन्दिर से पहले एक मजार है। ब्रजमंडल यात्रा की शुरूआत 2021 में हुई थी। इसी वर्ष इस मजार का एक कोना तोड़ दिया गया था लेकिन कोई बड़ी घटना नहीं हुई और मन्दिर कमेटी के प्रबंधक व पुलिस प्रशासन ने मिलकर हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं होने दिया। बाद में मन्दिर प्रबंधन ने मजार की मरम्मत भी करवा दी।
नल्हड़ मन्दिर की पहाड़ियों के पीछे भी कुछ मकान तोड़े गये थे। यह मकान तो नहीं कहे जा सकते। मिट्टी से कुछ ईटों को जोड़कर कुछ टीन-टप्पर डालकर रहने लायक बना दिया गया था। इनमें रहने वालों की पुराने जमाने के गड़रियों की जैसी हालत थी। पास के गांव के लोगों ने उन्हें बारिश से बचने के लिए बांस व तिरपाल दिये थे। ये लोग मुख्यतया गाय व बकरी पालते हैं व शहर में यहां से दूध जाता है। इनके नाम भले ही जुबेर, कलामुद्दीन या फातिमा या नूरजहां हो सकते हैं लेकिन असल में इनकी गरीबी ही इनकी पहचान है।
गुड़गांव मस्जिद में जब पहुंचे तो वहां पर मस्जिद के चेयरमैन से मुलाकात हुई और उन्होंने उस मस्जिद में बारे में बताया। सन् 2004 में सरकार द्वारा 17 मन्दिर, एक चर्च व मस्जिद अलॉट की गयी थी। नये गुड़गांव में एक भी मस्जिद नहीं थी। लेकिन इस मस्जिद का निर्माण शुरू हुआ तो पास के गांव के रसूखदार व पैसे वाले लोगों ने हाईकार्ट से स्टे ले लिया और मस्जिद का निर्माण रुक गया। वहां से जब फैसला मस्जिद के पक्ष में हो गया तो दोबारा यही केस सुप्रीम कोर्ट में चला गया। वहां पर फैसला 2021 में मस्जिद के पक्ष में आया। इसके बाद मस्जिद का निर्माण चालू था।
31 जुलाई की रात नूंह में जब दंगा शुरू हुआ तो उसी रात में इस मस्जिद के पास के गांव के लोगों ने आगजनी की और मस्जिद में इमाम पर धारदार हथियारों से हमला किया और उनकी मौत हो गयी। एक दूसरे शख्स को पैर में गोली लगी थी जिसको वे लोग मरा हुआ समझकर छोड़ गये थे। इसमें पुलिस की ओर से मुकदमा दर्ज हुआ है और चार लोगों की गिरफ्तारी भी हो चुकी है। गुड़गांव में जुमे की नमाज को लेकर पहले भी तूल पकड़ता रहा है। इसको ऐसे भी देख सकते हैं कि सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने का विरोध होता रहा है। दूसरा है कि मस्जिद बनने नहीं देंगे। बाकी लोगों की तरह मुसलमान आबादी भी देश के अन्य कोनों से शहर में आयी है। ऐसे में उनके लिए यह एक बड़ी समस्या है।
समाज में एक कट्टर समुदाय पैदा किया गया है जिसे मुल्ले, टोपी, नमाज, दाढ़ी, मस्जिद, मजार व कब्रिस्तान से बहुत नफरत है और वह इन पर हमले को देशभक्ति समझता है। उसके देशभक्त होने की यही निशानी है। इसके जेहन में ठूंस दिया गया है कि मुसलमान आबादी बढ़ाने वाले हैं और बढ़ी हुई आबादी देश पर बोझ है और इस कारण देश का विकास नहीं हो रहा है। और देश का विकास नहीं हो रहा है तो उसका विकास नहीं हो रहा है।
जो बात पहले सच थी कि मेवाती क्या मुसलमान और जाट क्या हिन्दू। लेकिन आज इसमें फर्क आ गया है। आज मेवाती मुस्लिम सोच की ओर और ज्यादा शिफ्ट हुए हैं और जाट हिन्दू विचारधारा की ओर। इसमें तबलीगी जमात और हिन्दूवादी संगठन आर एस एस का और उसके अनुषंगी संगठनों बड़ा हाथ है। ऐतिहासिक तौर पर दोनों एक ही हैं। मेव जनजाति, गुर्जर व जाट भी एक समय में पशुपालक समाज रहे हैं। 11-13वीं शताब्दी में मोईनुद्दीन, हजरत निजामुदीन आदि सूफियों के प्रभाव में ये मुसलमान हो गये लेकिन उन्होंने बहुत सी परम्पराएं जैसे शादियों में गोत्र का बचाव करना, कुआं पूजन और तीज-त्यौहार नहीं छोड़े। यहां पर खाप या पाल व सिस्टम बहुत मजबूत था। पूरा का पूरा गांव या तो मुसलमान हो जाता या फिर दयानन्द सरस्वती के समय में पूरा गांव आर्य समाजी। लेकिन ये अपनी मूल संस्कृति नहीं छोड़ते थे। आज भी ये लोग मुसलमान की बजाय अपने आपको मेव कहलाना पसंद करते हैं।
मेवों में हसन खां मेवाती नाम आता है। बाबर की पहली लड़ाई जब राणा सांगा के साथ हुई तो मेव राणा सांगा की ओर से लड़े और मारे गए। ये 1857 के हिंदुस्तान के पहले स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ लड़े। शहीदी मीनार आज भी मौजूद है। मेव आबादी हरियाण के नूंह और पलवल, फरीदाबाद, राजस्थान के अलवर, भरतपुर आदि क्षेत्रों में निवास करती है। इनमें नूंह जिला तो मुख्यतः मेव प्रधान है।
-एक पाठक, फरीदाबाद