हिन्दू फासीवादियों की केन्द्रीय सरकार ने भारत के आपराधिक कानूनों को बदलने की घोषणा कर दी है। भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम को बदलने संबंधित विधेयक मानसून सत्र के अंत में संसद में पेश किए गये जिन्हें फिलहाल संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया है।
इन कानूनों में बदलाव के लिए सरकार की ओर से तर्क है कि ये कानून अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे हैं और अब समय आ गया है कि औपनिवेशिक अतीत से छुटकारा पा लिया जाये। (यह अलग बात है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 में बनी थी) इसकी शुरूआत संघी सरकार ने नये कानूनों के नाम हिन्दी में रखने से की है। इनमें भी अपनी विशाल हृदयता का परिचय देते हुए उन्होंने दंड के बदले न्याय शब्द रख दिया है।
यह जानी-पहचानी बात है कि अंग्रेजों ने इस देश पर विदेशी कब्जाकारियों की तरह राज किया और इस कारण उनके सारे कानून भी इसी हिसाब से बने थे। पराई और शोषित-उत्पीड़ित जनता को काबू में रखना उनका उद्देश्य था। ऐसे में यह स्वाभाविक सा निष्कर्ष निकलता है कि जो कोई भी इन कानूनों को औपनिवेशिक अतीत की विरासत मानकर उनसे मुक्त होने की बात करता है उसे नये कानूनों में ज्यादा आजादी वाले प्रावधान करने चाहिए। जनता के जनवादी अधिकारों का ज्यादा सम्मान करना चाहिए। सरकार और पुलिस के अधिकारों को सीमित करना चाहिए।
पर वास्तव में नये प्रस्तावित कानूनों में हुआ क्या है? इनमें ज्यादातर प्रावधान वही पुराने वाले हैं। जो थोड़े से परिवर्तन हुए हैं वे जनता के अधिकारों को और सीमित करते हैं और सरकार तथा पुलिस के अधिकारों को और बढ़ा देते हैं। मसलन, अब पुलिस किसी को अपनी हिरासत में पन्द्रह दिन के बदले साठ से नब्बे दिन तक रख सकती है। अब आंदोलनों में सड़क जाम जैसी कार्रवाईयां आतंकवाद घोषित की जा सकती हैं। राजद्रोह की धारा को हटाकर अब उसकी जगह देशद्रोह की धारा लाई गयी है जो और भी कठोर है।
इन नये कानूनों का बुनियादी चरित्र बेहद स्पष्ट है। ये हिन्दू फासीवादियों की सोच के अनुरूप पूरे समाज को फासीवादी तरीके से चलाने के लिए वैधानिक ढांचा निर्मित करते हैं। लोगों को पूर्ण नियंत्रण में लाने के लिए कानूनों में जिन ढीले-ढाले प्रावधानों को कठोर बनाने की जरूरत थी, ये वह करते हैं। हालांकि अंग्रेजों के जमाने से ही कानूनों को जिस रूप में सूत्रित किया गया था उस रूप में वे सरकार को जनता को दबाने-कुचलने का पूरा अवसर प्रदान करते थे। पर पिछले पचहत्तर सालों में जन संघर्षों के दबाव में उच्च अदालतों द्वारा इन कानूनों की कुछ ऐसी व्याख्याएं की गई थीं जो सरकार की दमनकारी चाहत पर कुछ अंकुश लगाती थीं। अब नये कानूनों के द्वारा इस अंकुश को हटा दिया गया है।
आजादी के बाद से ही देश के क्रांतिकारी खेमे की ओर से देश के संविधान और कानूनों की यह कह कर तीखी आलोचना होती रही है कि ये औपनिवेशिक विरासत को रंग-पोत कर फिर से स्वीकार कर लिये गये हैं। भारतीय संविधान मूलतः 1935 के इंडिया एक्ट पर आधारित है जिसमें दुनिया के कुछ अन्य संविधानों से चीजें लेकर जोड़ दी गई हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि इस संविधान को जिन कानूनों के जरिये जमीनी स्तर पर उतरना था वे अंग्रेजी राज से जस के तस बने रहे। बाद में उनमें कुछ छोटे-मोटे बदलाव हुए। इस संविधान के बारे में यह उचित ही टिप्पणी की गई कि यह अपने मुख्य पाठ में जनता को अधिकार देकर हाशिये के प्रावधानों से इसे छीन लेता है।
आज हिन्दू फासीवादी भारतीय संविधान और कानून की क्रांतिकारियों द्वारा की गई आलोचना को दुहरा रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे वही बात कर रहे हैं। पर यह भी उसी तरह भ्रामक है जैसे उनका यह कहना कि वे पश्चिम की पतित संस्कृति को अस्वीकार करते हैं। इनके द्वारा वे समाज में आगे की ओर नहीं बल्कि पीछे की ओर जाना चाहते हैं।
जब भारत का संविधान बन रहा था तब हिन्दू फासीवादी आज की तरह ढकी-मुंदी भाषा में बात करने के बदले ज्यादा साफ बात करते थे। उन्होंने कहा था कि भारत के संविधान को मनुस्मृति पर आधारित होना चाहिए। उनकी नजर में वही आदर्श कानूनी संहिता थी। इसी तरह उन्होंने नये तिरंगे झंडे के बदले भगवा झण्डे की बात की। तब हिन्दू फासीवादी साफ-साफ कह रहे थे कि देश को आठ सौ या बाहर सौ साल की गुलामी से मुक्त होकर वापस मनुस्मृति की ओर लौटना चाहिए।
आज भी दूसरे शब्दों में असल में वही बात की जा रही है। यह अकारण नहीं है कि अपराध कानूनों में परिवर्तन की संसदीय प्रक्रिया शुरू करने के समय ही संविधान बदलने की बात उछाली जा रही है। यह भी अनायास नहीं है कि संघी प्रधानमंत्री सरकारी और गैर-सरकारी दोनों मंचों से यह कह रहे हैं कि अगले कुछ सालों में जो होगा वह हजार साल तक भविष्य तय करेगा। स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो यदि हिन्दू फासीवादी 2024 का चुनाव जीत जाते हैं तो हिन्दू राष्ट्र का उनका सपना पूरा हो जायेगा। भारत हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा जो अगले हजार साल तक रहेगा। संघी प्रधानमंत्री इसके जरिये अपने समर्थकों को यह संदेश दे रहे हैं कि महान लक्ष्य की प्राप्ति अत्यन्त नजदीक है और वे इसे हासिल करने में जी जान लगा दें। अभी नहीं तो कभी नहीं!
इस तरह देखा जाये तो हिन्दू फासीवादियों की बातों और कार्रवाईयों की कड़ियां आपस में जुड़ जाती हैं। पर इससे हिन्दू फासीवादी जिस जगह पहुंचते हैं क्या उसका आज की दुनिया में कोई दूरगामी भविष्य है? क्या उनका हजार साल का हिन्दू राष्ट्र का सपना हिटलर के हजार साल के जर्मन साम्राज्य के सपने से बेहतर साबित होगा?
यह सही है कि अंग्रेज भारत में एक बाहरी कब्जाकारी ताकत थे। इस मायने में वे उन मुसलमान शासकों से एकदम भिन्न थे जो भारत आये और यहीं बस गये। इसलिए संघियों की धारणा के विपरीत भारत की गुलामी अंग्रेजी शासन से ही शुरू होती है।
पर अंग्रेजी शासन की दो विशेषताएं थीं जिन्होंने उनके नियमों-कानूनों के चरित्र को तय किया। एक तो वे एक पूंजीवादी साम्राज्यवादी शासक थे। इस मामले में ये पहले के सामंती शासकों से भिन्न थे जो भारत आये थे। दूसरे भारत पर कब्जे के बाद उन्होंने यहां जो लूटपाट की उससे भारत की सदियों से चली आ रही सामंती व्यवस्था टूटी और उसमें पूंजीवाद के तत्व प्रकट हुए। समय के साथ वे पूंजीवादी तत्व बढ़ते गये।
ऐसे में अंग्रेजों ने यहां शासन-प्रशासन की जो प्रणाली लागू की वह मूलतः पूंजीवादी समाज के अनुरूप थी हालांकि अंग्रेजों ने यहां के सामंती तत्वों से तालमेल बैठाने की पूरी कोशिश की। इससे अंग्रेजी शासन के नियमों-कानूनों का एक खास ढांचा प्रकट हुआ।
इस तरह देखें तो अंग्रेजी शासन के तहत शासन-प्रशासन और इसके लिए बनाये गये नियमों-कानूनों का तिहरा चरित्र था। पहला तो यह कि ये भारतीयों पर नियंत्रण कायम करने के लिए तथा यहां लूटपाट के लिए बनाये गये थे। दूसरा, यह लूटपाट चूंकि सामंती नहीं बल्कि पूंजीवादी किस्म की थी तथा इस कारण भारतीय समाज क्रमशः पूंजीवादी होता जा रहा था, इसलिए इन नियमों-कानूनों का मूल चरित्र पूंजीवादी था। तीसरा, चूंकि अंग्रेज यहां के परंपरागत सामंती समाज और तत्वों से तालमेल बनाकर चल रहे थे इसलिए नियमों-कानूनों और शासन-प्रशासन पर इसकी भी छाप पड़ती थी।
अंग्रेजी राज के शासन-प्रशासन तथा नियमों-कानूनों के इसी चरित्र के कारण यह संभव हुआ कि आजादी के बाद भारत के पूंजीपति वर्ग ने इसी को नये रंग-रोगन के साथ स्वीकार कर लिया। वह भी उसके चरित्र के अनुरूप था।
भारत का पूंजीपति वर्ग अत्यन्त कमजोर था तथा मजदूर-मेहनतकश जनता से अत्यन्त भयभीत, खासकर बीसवीं सदी के मध्य में जो स्थितियां थी उसमें। वह भी मजदूर-मेहनतकश जनता को कठोरता से दबा कर रखना चाहता था। चूंकि वह पूंजीपति वर्ग था और समाज को पूंजीवादी रास्ते पर ले जाना चाहता था, इसलिए अंग्रेजी शासन-प्रशासन तथा नियमों-कानूनों के पूंजीवादी स्वरूप इसके लिए मुफीद थे। जिस हद तक यह पूंजीपति वर्ग भारत के सामंती तत्वों से सांठ-गांठ कर रहा था उस हद तक भी पुराने नियम-कानून इसके काम के थे। इसीलिए पूंजीपति वर्ग ने पुराने शासन-प्रशासन और नियम-कानून को नये रंग-रोगन के साथ स्वीकार कर लिया।
इसके विपरीत यदि भारत में क्रांति हुई होती तो ऐसा नहीं होता। तब चाहे पूंजीपति वर्ग ही सत्ता में आया होता तब भी शासन-प्रशासन और नियमों-कानूनों की नयी व्यवस्था कायम की गई होती। मजदूरों-किसानों के राज में जरूर ही ऐसा होता।
ऐसे में आजादी के बाद शासन-प्रशासन तथा नियमों-कानूनों की निरंतरता असल में बुनियादी तौर पर समाज की निरंतरता की अभिव्यक्ति थी। अंग्रेजी राज में पले-बढ़े पूंजीपति वर्ग ने अब अंग्रेजों के बदले सत्ता संभाल ली थी और पूरे भारतीय समाज को अपने हिसाब से चला रहा था और उसमें क्रमशः बदलाव कर रहा था। वह चरित्र से ही कमजोर, ढुलमुल तथा सुधारवादी था और यह उसके हर कदम में प्रकट होता था। यह क्रांतिकारी तरीके से औपनिवेशिक अतीत से मुक्ति नहीं हासिल कर सकता था। यह तो केवल मजदूरों-किसानों की क्रांति से ही संभव था।
लेकिन आजादी के समय एक और ताकत थी जो औपनिवेशिक अतीत से पूर्ण मुक्ति की बात करती थी। इसके लिए गुलामी केवल अंग्रेजी शासन के दो सौ सालों की नहीं थी बल्कि उसके भी पहले के हजार साल की थी। उसके लिए मुसलमानी शासन भारत की गुलामी था। मजे की बात यह है कि ये स्वघोषित वीर अंग्रेजी राज से तालमेल बैठाकर विकसित हुए थे और उनके लिए मुख्य शत्रु मुसलमान थे।
गुलामी से मुक्ति के बाद वे किस तरह का समाज चाहते थे यह तब उन्होंने खुलेआम घोषित किया था। वे मनुस्मृति से संचालित समाज चाहते थे। मनुस्मृति आज जिस रूप में उपलब्ध है उस रूप में वह वर्ण व्यवस्था पर आधारित एक सामंती समाज की संहिता है। इतिहासकारों के लिए स्पष्ट है कि मनुस्मृति से चलने वाला समाज भारत में कभी नहीं रहा। पर यदि उस पर आधारित समाज की कल्पना की जाये तो वह वर्णों में विभाजित सामंती समाज होगा।
ऐसे में सहज सवाल उठता है कि क्या बीसवीं सदी के मध्य के भारतीय समाज को मनुस्मृति से संचालित किया जा सकता था? इसका स्पष्ट उत्तर है नहीं। किसी भी समाज के नियम-कानून उस समाज के आर्थिक-सामाजिक ढांचे से तय होते हैं। सामंती समाजों में धर्म निरपेक्षता की बात नहीं की जा सकती थी और पूंजीवादी समाजों में किसी किस्म की धर्मनिरपेक्षता के बिना काम नहीं चल सकता। सामंती समाजों में व्यक्ति की निजता की बात नहीं हो सकती थी जबकि पूंजीवादी समाजों में इस निजता के बिना काम नहीं चल सकता। शहर केन्द्रित पूंजीवादी समाज में छुआछूत वाली वर्ण व्यवस्था का पालन असंभव काम बन जाता है जिसमें जन्मजात पेशे का कोई मतलब नहीं रह जाता।
स्पष्टतः ही हिन्दू फासीवादियों की सारी पुरातनपंथी सोच के बावजूद सच्चाई यही थी कि बीसवीं सदी के मध्य के भारत में मनुस्मृति लागू नहीं की जा सकती थी। तब फिर क्या हो सकता था? यदि हिन्दू फासीवादी सत्ता में आ गये होते तो क्या होता?
तब वही होता जो आज करने की कोशिश की जा रही है। वह है भारत के त्रिभंगी पूंजीवादी समाज को पीछे ले जाने की कोशिश में इसका और अंग-भंग करना। इसमें और ज्यादा विकृतियां पैदा करना। इसकी सड़न को और ज्यादा बढ़ाना। और इस सबके लिए समाज पर अपनी जकड़न को और ज्यादा मजबूत करना।
आज का पूंजीवादी समाज मनुस्मृति के हिसाब से नहीं चल सकता। पर इस तरह की सोच रखने वाले पूरे समाज को उस उठा-पटक के हवाले कर सकते हैं जिसका मतलब भयंकर तबाही के अलावा और कुछ नहीं होगा।
यह याद रखना होगा हिटलर के नेतृत्व में नाजियों ने जर्मनी में यही करने की कोशिश की थी। वे भी जर्मनी के पूंजीवादी समाज को मध्यकालीन जर्मनी के स्वर्णिम अतीत में ले जाना चाहते थे। वे भी हजार साल के जर्मन साम्राज्य का सपना देखते थे। आज हम जानते हैं कि इस सपने ने जर्मनी में तथा सारी दुनिया में कैसी तबाही ढाई।
हिन्दू फासीवादी भी अपने संघी प्रधानमंत्री के नेतृत्व में आज हजार साल का सपना देख रहे हैं। वे भी सबसे ऊपर हिन्दुस्तान का नारा लगा रहे हैं। वे भी सारे नियम-कानून और संविधान बदलने की बात कर रहे हैं। संकेत बहुत खतरनाक हैं।
संघी बड़े जोर-शोर से कह रहे हैं कि वे मैकाले और ‘मैकालेपुत्रों’ से देश को मुक्त करा रहे हैं। बस वे इस बात को छिपा रहे हैं कि वे स्वयं बहुत खराब किस्म के ‘मैकालेपुत्र’ हैं जो हिटलर के चरण चिन्हों पर चलने के लिए आतुर हैं। अलविदा मैकाले, सुस्वागतम् हिटलर!
अलविदा मैकाले, सुस्वागतम् हिटलर !
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को