बहुसंख्यकवाद : बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक

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आर. एस. एस. और भाजपा, बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक को केवल धार्मिक आधार पर प्रस्तुत करती है और एक को हर तरह से, दूसरे के खिलाफ खड़ा करती रही है। ऐसा इनकी हिन्दू फासीवादी राजनीति के लिए बेहद जरूरी था और है। इनकी नजर में जनता सिर्फ हिन्दू है, मुसलमान है, ईसाई है। समाज में धार्मिक तौर पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक होने की वास्तविक स्थिति का, इन्होंने अपने फासीवादी मंसूबों के लिए इस्तेमाल किया है। ये अलग बात है कि अंग्रेज, जो धर्म से ईसाई थे; संघ को, इनकी गोद में बैठने से कोई गुरेज नहीं था। शायद इसलिए भी, आजादी के संघर्ष से इनका घोर बैर था जबकि गुलामी से घोर लगाव। 
    
सालों साल से संघियों का जहरीला दुष्प्रचार है कि बहुसंख्यक हिन्दू, राजनीतिक और आर्थिक तौर पर हाशिये पर हैं जबकि सत्ता अल्पसंख्यकों (मुस्लिमों) के हिसाब से चलती रही है। इनके दुष्प्रचार का ही कमाल है कि बहुत से आम हिन्दू भी यही सोचते हैं कि कांग्रेस, सपा मुसलमानों की पार्टियां हैं और यह भी सोचते हैं कि आजादी के बाद, शुरू से ही अल्पसंख्यक मुसलामानों को, कांग्रेस ने आगे बढ़ाया है, बहुसंख्यक हिंदुओं को उपेक्षित किया है। 
    
इस जहरीले दुष्प्रचार का कमाल कहो या फिर संघी शाखा से निकला धूर्त फासीवादी कहो, जो भी कहो, इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज ने भी अंततः साबित कर ही दिया कि वह संघियों का काबिल और निष्ठावान उत्पाद है। संभवतः इन्हें, भूतपूर्व मुख्य न्यायधीश चंद्रचूड़ से भी प्रेरणा मिली हो। 
    
भारत की समस्त जनता से निचोड़े जाने वाली दौलत पर पलने वाला, ‘सरकारी’ न्यायाधीश, संविधान को रौंदने वाले हिन्दू फासीवादी संगठन के कार्यक्रम में पहुंचता है। विश्व हिन्दू परिषद के कार्यक्रम में शामिल होने वाले उक्त जस्टिस शेखर यादव ने कहा कि हिन्दुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यक के अनुसार ही देश चलेगा, यही कानून है। समान नागरिक संहिता पर बात रखते हुए शेखर यादव ने मुस्लिम धर्म की आलोचना की, ‘कठमुल्ला’ शब्द का इस्तेमाल किया और कहा कि मुस्लिम बच्चों से सहिष्णु और उदार होने की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि वे शुरुवात से ही हिंसा (जानवरों की हत्या) को देख रहे होते हैं। वैसे इस कार्यक्रम में यहीं से, दूसरे जस्टिस दीपक पाठक भी शामिल हुए। 
    
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को फिलहाल संज्ञान में लिया है और विपक्ष जस्टिस शेखर यादव पर महाभियोग चलाने की बात कर रहा है। लेकिन मामला जिस स्तर का है वहां यह कार्यवाही, केवल अपनी अपनी साख बचाने की ही है। सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिदों को मंदिर साबित करने के हिन्दू फासीवादियों के अभियान को, फिलहाल ‘पूजा स्थल अधिनियम 1991’  का हवाला देकर रोका हुआ है। यह स्थिति भी हिन्दू फासीवादियों के लिए फायदेमंद ही है, संघी इसके जरिए यह स्थापित करेंगे कि कोर्ट भी अल्पसंख्यकों के चंगुल में है या फिर अर्बन नक्सल के चंगुल में है। 
    
संघ और भाजपा, उस ‘बहुसंख्यक जनता’ की बात नहीं करती है जो मजदूर हैं, किसान हैं, बेरोजगार हैं या दुकानदार हैं; बल्कि इस सब पर पर्दा डालकर ये केवल ‘बहुसंख्यक हिंदुओं’ की बात करते हैं। इसी तरह संघ और भाजपा उन ‘अल्पसंख्यक शासकों’ की बात बिल्कुल नहीं करते हैं जो अडाणी हैं, अंबानी हैं या देश के एकाधिकारी पूंजीपति हैं जो शासक वर्ग है; बल्कि ‘अल्पसंख्यक मुसलमानों’ और इसके बाद ‘अल्पसंख्यक ईसाइयों’ की बात करते हैं। 
    
सिख, बौद्ध और जैन धर्म तो संघियों के  हिसाब से, हिन्दू धर्म की ही शाखाएं हैं जबकि इन सबकी अपनी-अपनी अलग धार्मिक, सांस्कृतिक और कर्मकांडीय मान्यताएं हैं। हिन्दू फासीवादियों के लिए इनके अलग वजूद को स्वीकार करने का मतलब अपने ‘हिन्दू राष्ट्र’ के फासीवादी मंसूबों में और ज्यादा अवरोध खड़ा करना होगा। हालांकि इन पर, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के साथ मिलकर, सिख विरोधी दंगों को अंजाम देने का आरोप है। इसके अलावा पंजाब में पिछले कुछ सालों से ‘हिन्दू बनाम सिख’ (खालिस्तानी) का विभाजन कर ध्रुवीकरण करने में भी, ये कुछ हद तक सफल रहे हैं।
    
हिन्दू फासीवादी ‘बहुसंख्यक हिंदुओं’ को एतिहासिक तौर पर उत्पीड़ित, अपमानित होने का झूठा अहसास कराते हैं। इसका ठीकरा ‘अल्पसंख्यक मुसलमानों’ पर मढ़ते हैं। इस तरह बढ़ चढ़कर, फर्जी या आधे-अधूरे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर, मंदिरों को मस्जिद में बदलने और धर्मांतरण तथा महिलाओं के साथ अत्याचार के फर्जी किस्से गढ़ते हैं। ऐसा करके ये, ‘अल्पसंख्यक मुसलमानों’ को ‘दुश्मन’ और ‘खतरे’ के बतौर प्रस्तुत करते हैं। इस ‘दुश्मन’ या ‘खतरे’ के खिलाफ नफरत भरा प्रचार करते हुए ‘बहुसंख्यक हिंदुओं’ को, ये अपनी हिंसक और उन्मादी सेना में बदलते हैं जिसे इस कथित दुश्मन से बदला लेना है।      
    
यह, संघ और भाजपा की हिन्दू फासीवाद कायम करने की रणनीति की बुनियाद है। जो इसकी पैदाइश से जारी है और अब जोर-शोर से आगे बढ़ चुकी है। जिस तरह एक सदी पहले जर्मनी में हिटलर और इसकी नाजी पार्टी ने ‘अल्पसंख्यक यहूदियों को ‘जर्मन आर्यों’ के लिए ‘दुश्मन’ और ‘खतरे’ के रूप में धुआंधार प्रचारित किया था। उसने फासीवाद के रूप में जर्मन समाज को भयानक बर्बरता की स्थिति में पहुंचा दिया था। यह रणनीति भी इन्होंने हिटलर और नाजी पार्टी से ही सीखी है। 
    
आर एस एस के सर संघचालक और नेतृत्व के लिए, हिटलर और नाजियों द्वारा यहूदियों के सफाये के रूप में ‘अंतिम समाधान’ प्रेरणा है। ये इस बर्बरता की शुरुवात से ही प्रशंसक रहे हैं। यही इनका आदर्श है। 
     
मार्च 1939 में संघ के प्रमुख एस एस गोवलकर ने अपनी किताब ‘वी आर अवर नेशनहूड डीफाइंड’ में लिखा- ‘‘जर्मन राष्ट्रीय गौरव अब दिन का विषय बन गया है। राष्ट्र और इसकी संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने सेमेटिक जातियों- यहूदियों को देश से बाहर निकाल कर चौंका दिया। यहां राष्ट्रीय गौरव अपने चरम रूप में प्रकट हुआ है। जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि मूल रूप से मतभेद रखने वाली जातियों और संस्कृतियों का एक साथ मिल जाना कितना असंभव है। यह हमारे लिए एक अच्छा सबक है जिसे हम सीख सकते हैं और लाभ उठा सकते हैं।’’
    
किसी समय यहूदियों के कत्लेआम के और देश से खदेड़े जाने के घोर समर्थक संघियों का आदर्श, आज इजरायल के जियनवादी (यहूदी फासीवादी) शासक हैं। हों भी क्यों नहीं! आखिर दोनों ही जगह बर्बरता है, कत्लेआम है, शासक पूंजीपति वर्ग की नाकामी को छुपाने और अकूत मुनाफा बढ़ाने तथा बहुसंख्यक जनता की आवाज को बर्बरता से कुचलने का ‘खतरनाक और महान  तरीका’ है। 
    
जर्मनी का तब का नाजीवाद (फासीवाद) या इजरायल का जियनवाद दोनों ही बहुसंख्यकवाद हैं। जो नस्ल या धर्म के आधार पर समाज का बंटवारा करके अल्पसंख्यक शासक वर्ग और शासित बहुसंख्यक जनता के असल आर्थिक-सामाजिक बंटवारे पर पर्दा डालते हैं। आज यह बहुसंख्यकवाद, दुनिया के अधिकांश देशों में छाया हुआ है। इसे आम तौर पर ही लंपट एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग का सहयोग हासिल है। इसके खुले सहयोग से ही यह तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। 
    
तुर्की, बांग्लादेश, श्रीलंका, ब्राजील आदि यह फेहरिस्त लंबी है। हर जगह खास तरह के अल्पसंख्यकों को निशाने पर लिया जा रहा है। कहीं यह अप्रवासी, मुसलमान या शरणार्थी आदि के रूप में है तो कहीं किसी और रूप या नारे के साथ। इसमें कोई इस्लामिक राष्ट्र की बात कर रहा है तो कोई बौद्ध राष्ट्र की; कोई हिन्दू राष्ट्र की बात कर रहा है तो कोई अमेरिका फर्स्ट की। 
    
अभी हाल में अमेरिका के चुनाव में घोर लंपट डोनाल्ड ट्रम्प को राष्ट्रपति बनवाने के लिए दुनिया के शीर्ष अमेरिकी अरबपति एलन मस्क ने लाखों डालर खर्च किये थे। ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद ‘ग्रेट एलन मस्क’ को भी सरकारी दक्षता विभाग का प्रमुख बना दिया गया है जो कि कई सरकारी विभागों और एजेंसियों को बंद करने तथा जनता पर खर्च होने वाले सरकारी खर्चे में कटौती की दिशा में काम करेगा। घोर महिला विरोधी, अप्रवासी और शरणार्थी विरोधी तथा अंधराष्ट्रवादी  फासीवादी ट्रम्प का उभरना बहुसंख्यकवाद या फासीवादी उभार को ही दिखाता है। 
    
धार्मिक, नस्लीय, नृजातीय या अन्य तरह के अल्पसंख्यक आम तौर ही निशाने पर हैं। संघ और भाजपाइयों का यह पाखंड भी अव्वल दर्जे का ही है कि एक तरफ ये देश के भीतर अल्पसंख्यकों को तरह-तरह से निशाने पर लेते हैं दूसरी तरफ बांग्लादेश, पाकिस्तान में होने वाले अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न और अपमान पर हंगामा खड़ा करते हैं। यह हंगामा भी दरअसल इनका सिर्फ दिखावा होता है और ये देश के भीतर ‘बहुसंख्यक हिंदुओं’ की गोलबंदी के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं और अल्पसंख्यकों पर हमले के लिए उकसाते हैं। 
    
एक तरफ संघी सरकार, यह सब करती है दूसरी तरफ पाकिस्तान और बांग्लादेश से व्यापार संबंध बनाए रखती है। 2023-24 में पाकिस्तान से भारत ने 30 लाख डालर का आयात किया तो 1.2 अरब डालर का निर्यात किया था। बांग्लादेश और भारत के बीच इसी वित्त वर्ष में 12.9 अरब डालर का व्यापार हुआ, इसमें भारतीय शासकों के पक्ष में  9 अरब डालर व्यापार अधिशेष (फायदा) रहा। 
    
वास्तव में इसी फासीवादी या बहुसंख्यकवादी राजनीति के दम पर अल्पसंख्यक शासक वर्ग जो एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग है, अपने मुनाफे की हवस का बोझ बहुसंख्यक जनता पर लाद रहा है, इसे नियंत्रित कर रहा है और अपने हितों के अनुरूप ढालने की कोशिश में लगा हुआ है जिसमें एक हद तक वह सफल भी है। इस राजनीति के निशाने पर बहुसंख्यक जनता ही है। मुख्यतः इसके निशाने पर मजदूर वर्ग है और इसके साथ ही छोटी मझोली संपत्ति के मालिक। इसके निशाने पर हैं बेरोजगार नौजवान। इनके द्वारा घोषित या कथित अल्पसंख्यक तो बलि के बकरे हैं जो वास्तविक वर्ग दुश्मन एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग और उसके निजाम को बचाने का जरिया हैं। 
    
यही बात हिन्दू फासीवादियों के लिए भी सच है। ऐतिहासिक रूप से हिंदुओं के उत्पीड़ित और अपमानित होने की बात और प्रचार एकदम फर्जी है। सामंती जमाने में भी जब अभी मुसलमान भारत नहीं पहुंचे थे, हिन्दू राजाओं और इनके कारिंदों ने हिन्दू जनता (प्रजा : किसानों, दस्तकारों) को उसी तरह लूटा जैसे हर राजा लूटता था। जाति व्यवस्था का हाल और महिलाओं की स्थिति क्या थी, यह तो सभी को पता है।
    
दरअसल संघियों के ‘हिन्दू राष्ट्र’ के नीचे कुचले जाने वाली बहुसंख्यक जनता ही है जिसमें बहुलांश हिन्दू जनता ही है। मजदूर वर्ग को गुलामी में धकेलनी वाली चार श्रम संहिताऐं, इन्हीं की मेहनत या श्रम की बेलगाम डकैती के लिए हैं। अग्निवीर के जरिए ठेके की नौकरी का प्रावधान भी इन्हीं के लिए हैं जहां जिंदगी बेहद असुरक्षित होगी। 60 लाख खाली पड़े रिक्त पदों में भर्ती ना होने का नुकसान भी सबसे ज्यादा इसी हिस्से को है। इसी तरह अन्य मामलों में भी है। इनका ‘हिन्दू राष्ट्र’ या ‘बहुसंख्यकों के हिसाब से देश चलाने’ की बात,  अल्पसंख्यक शासक वर्ग की सेवा में ईजाद फासीवादी एजेंडा है, नारा है और इसे, बहुसंख्यक मजदूर मेहनतकश जनता से बचाने का राजनीतिक हथियार है। संघी इस तरह, भले ही आज कुछ हद तक सफल हो जा रहे हों, देर-सबेर इन्हें नष्ट होना ही है। यह इतिहास और समाज की गति है। किसान, बेरोजगार छात्र-नौजवान सड़कों पर उतर रहे हैं। जल्द ही इसे जनसैलाब बनकर सड़कों पर उमड़ना ही है, इसे हिन्दू फासीवादी चाहकर भी नहीं रोक सकते। 

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