पूंजीवाद और बेईमानी

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काफी पहले उपनिवेशवादी लूट-पाट के जमाने में एक पूंजीवादी अर्थशास्त्री ने पूंजी के मुनाफे के बारे में एक टिप्पणी की थी जिसका आशय यह था कि यदि पूंजी पर होने वाले मुनाफे की संभावना कम हो तो पूंजी सभ्य-सुशील तरीके से काम करती हैं पर जैसे-जैसे मुनाफे की संभावना बढ़ती जाती है, पूंजी अपनी और समाज की सारी मर्यादाएं तोड़ती चली जाती है। यदि पूंजी पर केवल दस प्रतिशत मुनाफा होने की संभावना हो तो पूंजी सभ्य-सुशील तरीके से सारे नियम-कानून और मर्यादाओं का पालन करेगी। पर यदि यह संभावना हजार प्रतिशत मुनाफा होने की हो तो ऐसा कोई अपराध नहीं है जो पूंजी (यानी पूंजी के मालिक पूंजीपति) न करे। 
    
आज भारत में अडाणी प्रकरण उस अर्थशास्त्री की बातों को अक्षरशः साबित कर रहा है। लोगों को यह देखकर आश्चर्य होता है कि अडाणी समूह पर एक से एक गंभीर आरोप लगते हैं पर उसके शेयरों के दामों पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता। अडाणी की कंपनियों के शेयरों के दाम कुछ समय के लिए गिरते हैं फिर चढ़ जाते हैं। जिन आरोपों पर किन्हीं और कंपनियों का अस्तित्व संकट में पड़ जाता वे यहां बेअसर साबित हो रहे हैं। 
    
पूंजीवादी बाजार व्यवस्था में धर्म की तरह आस्था रखने वालों के लिए बाजार अंतिम निर्णायक है। यानी अडाणी समूह ने कुछ गड़बड़ किया है या नहीं यह बाजार तय करेगा। यदि बाजार अडाणी समूह की कंपनियों में विश्वास व्यक्त करता है तो सब ठीक है। तब मान लिया जाना चाहिए कि अडाणी ने कोई अपराध नहीं किया है। 
    
पर ये लोग या तो भूल जाते हैं या जान-बूझकर भुलाना चाहते हैं कि बाजार केवल मुनाफा देखकर चलता है। वह समाज के नियम-कानून या मर्यादाओं के हिसाब से नहीं चलता। यहां तक कि वह आर्थिक नियमन वाले कानूनों के हिसाब से नहीं चलता। वह बस यह देखता है कि इन सबका मुनाफे पर क्या असर पड़ेगा। यदि मुनाफा गिरने की संभावना है तो वह एक तरह से व्यवहार करेगा और यदि बढ़ने की संभावना है तो दूसरी तरह से। इस मायने में पूंजी की तरह बाजार भी नैतिकता विहीन होता है। उसके लिए मुनाफा ही हर चीज का नियामक है। 
    
किसी कंपनी पर जब नियमों-कानूनों के उल्लंघन का आरोप लगता है तो बाजार (या बाजार के खिलाड़ी) केवल यह देखता है कि क्या कंपनी इन आरोपों के शिकंजे में फंसेगी या बच निकलेगी? यदि वह बच निकलेगी तो सब ठीक है। पर यदि फंसेगी तो निवेशक अपना पैसा निकाल कर भागना चाहेंगे। तब उस कंपनी के शेयर गिरते जायेंगे और अंत में कंपनी दिवालिया भी हो सकती है। 
    
अडाणी के मामले में भी बाजार इसी तरह से व्यवहार करता है। अडाणी समूह पर जब गंभीर आरोप लगते हैं तो उसकी कंपनियों के शेयर कुछ समय के लिए तेजी से गिरते हैं। लोग भयभीत हो जाते हैं कि पता नहीं क्या होगा। फिर लोगों को पता चलता है कि अडाणी समूह को बचाने के लिए पूरी भारत सरकार लगी हुयी है। यही नहीं, न्यायपालिका भी इसमें शामिल है, वह न्यायपालिका जिस पर नियमों-कानूनों का पालन करवाने की अंतिम जिम्मेदारी है। यह स्पष्ट होते ही अडाणी समूह में लोगों का डगमगाता विश्वास लौट आता है। अडाणी समूह के गिरते हुए शेयर फिर चढ़ने लगते हैं। 
    
इस सबका अंतिम परिणाम यह निकलता है कि अडाणी धड़ल्ले से दावा करता है कि उसने कोई अपराध नहीं किया है, कि कुछ लोग जो भारत की आर्थिक तरक्की से जलते हैं वे उसके खिलाफ साजिश कर रहे हैं, कि देश के भीतर के कुछ देशद्रोही भी इसमें शामिल हैं। पूंजी और बाजार की नैतिकता (या नैतिकता विहीनता) से नावाकिफ लोग इन सब पर विश्वास भी करने लगते हैं। 
    
यह सब केवल इसी बात का एक और प्रमाण है कि पूंजीवाद कैसे झूठ-फरेब और बेईमानी से चलता है। इसमें झूठ-फरेब और बेईमानी को ‘ईमानदार व्यवसाय’ से अलग नहीं किया जा सकता। 

आलेख

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।