न्यायधीश बने संघी कार्यकर्ता

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आजकल इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायधीश शेखर यादव काफी चर्चा में हैं। विश्व हिन्दू परिषद के कार्यक्रम में उनके द्वारा दिये गये भाषण का ही प्रताप है कि पूरे देश में उनकी चर्चा हो रही है। संघी लाबी जहां उनके भाषण पर प्रसन्न है वहीं विपक्षी दल उनके खिलाफ संसद में महाभियोग लाकर उन्हें हटाने की तैयारी कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी उनके भाषण पर रिपोर्ट मंगवाई है। 
    
अपने भाषण में न्यायधीश शेखर यादव ने कहा कि यह देश हिन्दुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यक लोगों की इच्छा के मुताबिक चलेगा। मुसलमानों पर हमला बोलते हुए उनके लिए इन्होंने कठमुल्ला सम्बोधन किया। उन्होंने कहा कि मुसलमान बच्चों के सामने ही पशु वध कर उन्हें हिंसक बनाते हैं। स्त्रियों के सम्मान की चर्चा करते हुए उन्हें तीन तलाक, हलाला से समान नागरिक संहिता द्वारा मुक्त कराने की बात की। राम मंदिर निर्माण के पक्ष में बातें करते हुए इस हेतु पूर्वजों द्वारा दी कुर्बानी की उन्होंने चर्चा की। 
    
ऐसा नहीं है कि न्यायधीश यादव का संघी रुख उक्त भाषण से ही सामने आया हो। इससे पूर्व एक गौहत्या के आरोपी मुस्लिम व्यक्ति को उन्होंने बेवजह जमानत देने से इंकार करते हुए कहा था कि गाय को भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए। कि गाय एकमात्र ऐसा जानवर है जो ऑक्सीजन लेता और छोड़ता है। कि गाय के गोबर, मूत्र, दूध, दही, घी के मिश्रण से बने पंचगव्य से असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं। कि जब गाय का कल्याण होगा तभी देश का कल्याण होगा। 
    
ऐसे ही एक अन्य मामले में इन्होंने इस्लाम में धर्मांतरण को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा घोषित कर दिया। 
    
न्यायधीश शेखर यादव संघी आत्मा लिए हुए इकलौते जज नहीं हैं। निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक बीते 11-12 वर्षों में ऐसे तमाम जज विराजमान हो चुके हैं जिन्होंने भारतीय संविधान के आधार पर न्याय करने के बजाय नागपुर स्थित संघ मुख्यालय की इच्छा पर न्याय करना शुरू कर दिया है। संविधान की किताब अलमारी में बंद कर इन्होंने न्याय की देवी के तराजू का रिमोट कंट्रोल संघ के नागपुर दफ्तर पहुंचा दिया है।
    
जब देश के पूर्व मुख्य न्यायधीश अपने देवता की आवाज सुन राम मंदिर प्रकरण पर संविधान को धता बता राम मंदिर निर्माण के पक्ष में निर्णय देते फिर रहे हों तो निचली अदालतों के जजों का इस कदर संघी होते जाना आश्चर्यजनक नहीं है। 
    
आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी अदालतें संघ-भाजपा के शासन में अधिकाधिक संघमय होती जा रही हैं। अपनी बारी में ये अदालतें व उनके संघी न्यायधीश उदारवादियों की इस उम्मीद को भी ध्वस्त कर रहे हैं जो यह उम्मीद करते हैं कि अदालतें संघी कुकर्मों को रोक देंगी। ये भले मानस भूल जाते हैं कि फासीवादी ताकतें अपने अभियान में हर पूंजीवादी संस्था यथा - संसद-पुलिस-सेना-न्यायालय को या तो आत्मसमर्पण करने को मजबूर कर देती हैं या उन्हें बदल देती हैं। ऐसे में इन संस्थाओं पर संघी अभियान को रोकने की उम्मीद लगाना खुद को भ्रम में रखना है।  

 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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