न्यूजीलैंड में नर्सों की हड़ताल

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3 दिसंबर को न्यूजीलैंड में 36,000 नर्सों, सहायकों और मिडवाइव्स ने आठ घंटे की हड़ताल कर अपने वेतन को बढ़ाने की मांग की। साथ ही उनकी मांग खाली पड़े पदों को भरने की भी है। पिछले लम्बे समय से नर्सों की यूनियन और नेशनल पार्टी की सरकार के बीच वेतन बढ़ाने को लेकर बातचीत हो रही थी। जब यूनियन ने पाया कि सरकार उनकी अपेक्षा के अनुरूप वेतन बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है तो मजबूर होकर उन्हें हड़ताल पर जाना पड़ा।
    
न्यूजीलैंड की सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले विभाग के सामने 2 अरब डालर बचाने का लक्ष्य रखा है। इस वजह से विभाग न तो कर्मचारियों का वेतन बढ़ा रहा है और न ही नई भर्ती कर रहा है जबकि स्वास्थ्य विभाग में काम करने वाली नर्सों और अन्य कर्मचारियों की संख्या घट रही है। जिसकी वजह से कार्यरत कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। अभी स्वास्थ्य विभाग ने नर्सों के वेतन में दो साल के लिए मात्र   0.5 प्रतिशत से 1 प्रतिशत तक वेतन वृद्धि तय की है जबकि महंगाई की दर 3.5 प्रतिशत है।
    
3 दिसंबर की हड़ताल अभी हाल में सितंबर में हुई हड़ताल के बाद की बड़ी हड़ताल है। इस हड़ताल के बाद भी पूरे देश के अलग अलग हिस्सों में हड़तालों का सिलसिला जारी रहने की बात यूनियन ने कही है। यह सिलसिला 10 दिसंबर से 19 दिसंबर तक चलेगा। इसमें हर रोज 4 घंटे की हड़ताल रहेगी। 10 दिसंबर को ओकलैंड में हड़ताल रही।
    
हड़ताली नर्सों के अनुसार कई नर्सों को काम करते हुए 30 से 35 साल तक हो गये हैं। उस अनुरूप वेतन न मिलने के कारण वे आस्ट्रेलिया जैसे देशों में काम करने जा रही हैं। इस वजह से भी स्टाफ और कम हो रहा है। कभी-कभी तो इमरजेंसी के मरीजों को भी 24 घंटे तक बेड का इंतज़ार करना पड़ता है क्योंकि काम करने के लिए इतने कर्मचारी ही नहीं हैं।
    
स्वास्थ्य का क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें अच्छा-खासा मुनाफा है। निजीकरण के दौर में शिक्षा के साथ स्वास्थ्य का भी निजीकरण बड़ी तेजी से हो रहा है। सार्वजनिक स्वास्थ्य के ढांचे को ध्वस्त कर निजी क्षेत्र को मुनाफा कमाने के अवसर दिये जा रहे हैं। न्यूजीलैंड की तरह अन्य देशों में भी स्वास्थ्य क्षेत्र के कर्मचारियों की हड़ताल बढ़ती जा रही हैं।
 

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फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।

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यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं। 

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इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं। 

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कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।