संघ-भाजपा ने मणिपुर के टुकड़े-टुकड़े किए

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मणिपुर में शांति स्थापित हो चुकने के सरकारी दावों की पोल खोलते हुए नवंबर माह में यहां फिर से हिंसा भड़क उठी। मणिपुर का बहुसंख्यक मैतेई समुदाय और अल्पसंख्यक कुकी समुदाय दोनों ही सरकारी मशीनरी की विफलता से पैदा हुई हिंसा का फिर से शिकार हुए। इस ताजा हिंसक घटनाक्रम  में दोनों समुदाय के कम से कम 20 लोगों की जानें गयी हैं। दोनों समुदाय डेढ़ साल से अधिक समय से खूनी संघर्ष का निवाला बन रहे हैं। दोनों समुदायों के लगभग 200 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। घायलों की संख्या इससे भी ज्यादा है। 60,000 लोग विस्थापित होकर राहत शिविरों में रहने को बाध्य हैं। 
    
ताजा हिंसक वारदातों की शुरूआत 7 नवम्बर को हुई जब एक सशस्त्र समूह के सदस्यों ने कुकी समुदाय की एक महिला का बलात्कार किया और जला कर मार दिया। यह घटना जिरिबाम जिले में घटी जहां पर अभी मिश्रित आबादी बची हुयी थी। इसी दिन पुलिस ने 10 लोगों का एनकाउंटर कर दिया। पुलिस इन्हें कुकी उग्रवादी बता रही थी जबकि कुकी संगठनों ने इसका खंडन करते हुए मृतकों को ग्रामीण स्वयंसेवक बताया जो समुदाय की रक्षा के लिए हथियारबंद हुए थे। इसके बाद एक राहत शिविर से एक मैतेई परिवार के छः सदस्यों की अगवा कर हत्या कर दी गयी। इसके बाद से राज्य में फिर से हिंसक विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ। प्रदर्शनकारियों के आक्रोश के निशाने पर स्वाभाविक तौर पर सत्ताधारी भाजपा के विधायक थे। 
    
डेढ़ साल से अधिक समय तक मणिपुर को हिंसा की आग में जलाने के बावजूद संघ-भाजपा अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रही। संघ-भाजपा की हिंदू फासीवादी नीति मैतेई समुदाय के हिंसा करने वाले संगठनों को बढ़ावा देने की अभी भी बनी हुयी है। अभी भी मुख्यमंत्री बीरेन सिंह और राज्य की सरकारी मशीनरी कुकी समुदाय के खिलाफ भड़काऊ बयान देने और कुकी समुदाय के खिलाफ बलात्कार और हत्या जैसे घृणित अपराध करने वालों को संरक्षण देने का काम कर रहे हैं। आरामबाई तेंगोल और मैतेई लीपम जैसे मैतेई संगठनों की पहुंच सरकारी हथियारों तक है। इनके पास ड्रोन और सैन्य स्तर के हथियार हैं। पुलिस और सुरक्षा बलों का भ्रष्टाचार और अक्षमता उनके प्रति अविश्वास को बढ़ा रहा है। अपहरण और यौन हिंसा में पुलिस की संलिप्तता तक की रिपोर्ट आ रही है। सरकारी मशीनरी हिंसा को रोकने के प्रति तो निष्क्रिय दिखती है लेकिन विपक्षी कार्यकर्ताओं और पत्रकारों का दमन करती है। 
    
डेढ़ साल से अधिक समय से मणिपुर जल रहा है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री चुप हैं। नरेन्द्र मोदी ने मणिपुर पर कुछ बोलना तो दूर, मणिपुर के किसी व्यक्ति से मिलने से भी इंकार कर रखा है। मणिपुर के संबंध में मोदी ने एक लाईन पकड़ रखी है कि गृहमंत्री अमित शाह उन्हें मणिपुर के संबंध में सभी चीजों से अवगत कराते रहते हैं। गृहमंत्री अमित शाह और विदेश मंत्री जयशंकर हिंसा के लिए अवैध घुसपैठियों को जिम्मेदार ठहराकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। 
    
आज मणिपुर विभाजित हो चुका है। मणिपुर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आवागमन जानलेवा हो चुका है। टुकड़े-टुकड़े गैंग का हल्ला करने वाली भाजपा ने मणिपुर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये हैं। कर्फ्यू और इंटरनेट शटडाउन मणिपुर के जनजीवन का आम हिस्सा बन गया है। वी आई पी लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए जो सीमित सड़क मार्ग मणिपुर में हैं भी, उन्हें आम लोगों के लिए निषिद्ध बना दिया गया है। आम लोग उन्हीं रास्तों से आ जा पाते हैं जिन पर गाड़ियां नहीं चल सकतीं। 
    
राहत शिविरों में रह रही विस्थापित आबादी नारकीय जीवन जी रही है। यह दूसरा जाड़ा होगा जब इन लोगों को अपने घर से दूर राहत शिविरों में ठिठुरना होगा। मैतेई और कुकी दोनों समुदायों की लगभग बराबर आबादी ही राहत शिविरों में रह रही है। बच्चों की शिक्षा बाधित हो गयी है। सड़कों की नाकाबंदी और आधारभूत ढांचे की कमजोर स्थिति की वजह से राहत शिविरों की आपूर्ति व्यवस्था काफी अस्थिर है। कुकी क्षेत्रों में किसी भी बाहरी मदद को पहुंचने में 15 घंटे तक का समय लग जाता है। राहत शिविर आम तौर पर क्षमता से ज्यादा भरे हुए हैं। यहां भोजन, पानी, साफ-सफाई और चिकित्सा सेवा अपर्याप्त है। सरकारी मदद कभी पूरी नहीं पड़ती और एनजीओ तथा स्थानीय आबादी की मदद पर राहत शिविर निर्भर रहते हैं। 
    
संघ-भाजपा की हिन्दू फासीवादी नीति ने मणिपुर की जनता के जीवन को नरक बना दिया है। इनका ‘हिन्दू राष्ट्र’ देश की क्या हालत कर सकता है यह मणिपुर की जनता को देखकर समझा जा सकता है। यह बहुत जरूरी है कि इनके नफरती हिन्दू राष्ट्र से न सिर्फ मणिपुर की रक्षा की जाए बल्कि पूरे देश की रक्षा की जाए। 

 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।