कश्मीर की तरह मणिपुर भी भारत की केन्द्रीय व राज्य सरकार की नीतियों के कारण ऐसी जगह में पहुंच गया है जहां से आगे का रास्ता किसी को नहीं सूझ रहा है। मणिपुर में आर्थिक नाकेबंदी को लगभग दो माह का समय हो गया है। और इस बीच में मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले ने हालात को और बिगाड़ दिया है। <br />
मणिपुर में 1 नवम्बर से यूनाइटेड नागा काउन्सिल (यू.एन.सी.) ने आर्थिक नाकेबंदी की हुयी है। यह आर्थिक नाकेबंदी राज्य सरकार के उस फैसले के बाद शुरू की गयी जिसके तहत सात नये जिलों की घोषणा की गयी थी। यू.एन.सी. इन नये जिलों को मणिपुर में रहने वाली नागा जातियों और ‘ग्रेटर नागलिम’ के लिए खतरा व षड्यंत्र मानती है। <br />
मणिपुर खासकर इम्फाल घाटी को आर्थिक नाकेबंदी के कारण भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। यू.एन.सी. ने मणिपुर से गुजरने वाले दो राष्ट्रीय राजमार्गोंः इम्फाल-दीमापुर व इम्फाल-सिलचर को पूरी तरह से बंद कर दिया है। इसके चलते इम्फाल घाटी में आवश्यक वस्तुओं की भारी किल्लत हो गयी है और उनके दाम आसमान छू रहे हैं। गैस सिलेण्डर की कीमत 3000 रुपये तक जा पहुंची है। <br />
आर्थिक नाकेबंदी को लगभग दो माह बीत गये परन्तु यह चिन्ता का विषय केन्द्र सरकार के लिए तब बना जब यह मीडिया की सुर्खियों में आया। दिल्ली की हर छोटी-बड़ी घटना को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाने वाले मीडिया के लिए मणिपुर के हालात डेढ़ माह बाद ही कुछ खबर बने। और मोदी सरकार की गम्भीरता का आलम यह है कि एक जूनियर मंत्री को भेजकर उसने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। और यह मंत्री बिल्कुल फौजी अफसरों वाली भाषा में एक चुनी हुयी सरकार और उसके मुखिया को धमकाने लगा। <br />
मणिपुर के वर्तमान हालात के लिए तात्कालिक तौर पर कांग्रेसी मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के उस फैसले को जिम्मेदार माना जा सकता है जिसमें उन्होंने सात नये जिलों की घोषणा की थी। इन नये जिलों में से अधिकांश मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में थे। <br />
मणिपुर की आबादी करीब 27 लाख है। बड़ी आबादी इम्फाल घाटी में रहती है परन्तु 90 प्रतिशत भू-भाग पहाड़ के पांच जिलों के पास है। पहाड़ी जिलों में रहने वाली आबादी में नागा व कूकी जनजाति का बहुमत है। जबकि इम्फाल घाटी में मेतई समुदाय का बहुमत है। घाटी में रहने वाली आबादी या मेतई समुदाय का ही राज्य के शासन-प्रशासन में वर्चस्व है। <br />
मणिपुर के आज के बुरे हालातों के लिए नागा और मेतई समुदायों के बीच के व्याप्त तनाव को कारण बताना आसान है और ‘लॉ एण्ड आर्डर’ की समस्या कहकर राज्य सरकार को दोषी ठहराना उससे भी आसान है। केन्द्र में काबिज वर्तमान सरकार का मुख्यतः यही रुख है और कमोबेश यही रुख केन्द्र की हर सरकार का रहा है। <br />
असल में मणिपुर की समस्या की शुरूवात 1949 में तब ही हो गयी थी जब उनका विलय भारतीय सेना के दम पर भारतीय संघ में जबर्दस्ती कर दिया गया था। वहां की जनता के द्वारा चुनी गयी संवैधानिक सभा को फौजी बूटों के नीचे कुचल दिया गया था। मणिपुर के भारत में विलय को लेकर कोई जनमत संग्रह नहीं कराया गया और जनता की राय तक नहीं पूछी गयी। इसके साथ समस्या और विकराल रूप धारण करती गयी जब ‘नागा समस्या’ के ठीक व सही समाधान के बजाय उसके संघर्षों को कमजोर करने के लिए घृणित चालें चली गयीं। नागा आबादी बहुल इलाकों को अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर और नागालैण्ड में बांट दिया गया। नागाओं का सशस्त्र संघर्ष भारत की आजादी के बाद से ही जारी है और आज भी नागालैण्ड की स्थिति यह है कि वहां तीन तरह का शासन है। एक भारत और उसकी राज्य सरकार का, दूसरा प्रमुख नगा संगठन ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालिज्म’ (इशाक-मुइया) गुट का तथा मणिपुर के कुछ सीमावर्ती जिलों और म्यांमार में रहने वाले नगाओं के बीच एन सी सी एन (कापलांग) गुट का। हाल के समय में (2015) भारत की केन्द्रीय सरकार और एन सी सी एन (इशाक-मुइया) के बीच कोई गुप्त समझौता हुआ जिसके बारे में अभी भी समझौता करने वालों के अलावा किसी को कुछ नहीं पता है। इस समझौते ने मणिपुर में भारी तनाव पैदा किया हुआ है। मणिपुर की गैर नागा आबादी को लगता है कि इस समझौते के तहत मणिपुर के नागा बहुल इलाकों को नागालैण्ड में मिला दिया जायेगा। और उसी तरह नये जिलों के गठन को लेकर नगा आबादी को लगता है कि यह उन्हें कमजोर करने की साजिश है। यह उन्हें वृहत्तर नगालिम में न जाने के लिए किया जाने वाला षड्यंत्र है। <br />
मणिपुर में व्याप्त तनाव और संघर्ष के लिए कहीं से भी स्थानीय आबादी दोषी नहीं है। उनके बीच परस्पर अविश्वास, संशय और साम्प्रदायिक तनाव को केन्द्र की ‘फूट डालो और राज करो’ तथा विस्तारवादी नीतियों ने जन्म दिया है। पूरा पूर्वोत्तर भारत भारत के शासक वर्गों की महत्वाकांक्षाओं के घोर दमन के कारण दशकों से सुलग रहा है। पूरे पूर्वोत्तर भारत में ‘आफस्पा’ लादी हुयी है जिसके कारण फौज को नागरिक आबादी के दमन के लिए ऐसे अधिकार हासिल हैं जो मानवाधिकार का घोर उल्लंघन है। भारतीय सेना और पुलिस के दमन के प्रति-उत्तर में वहां बड़ी संख्या में ऐसे सशस्त्र गुट बनते-बिगड़ते रहते हैं जो फौज और सरकार को अपने निशाने पर लेते रहे हैं। उल्फा और एन सी सी एन इनमें सबसे बड़े और प्रभावशाली रहे हैं। मणिपुर में भी ऐसे अनेक गुट रहे हैं जो मणिपुर को आजाद कराना चाहते हैॅं। इन सशस्त्र गुटों के दमन के नाम पर स्थानीय आबादी को बहुत कुछ सहना पड़ता है। ईरोम शर्मिला से लेकर स्थानीय आबादी के बहुत से संगठन आफस्पा को हटाने को लेकर दशकों से संघर्ष कर रहे हैं पर भारत के शासक वर्गों के कानों में कोई आवाज पहुंचती ही नहीं।<br />
मणिपुर के हालात बहुत खराब हैं परन्तु उनके साथ कोई नहीं खड़ा है न भारत के शासक वर्ग और न ही भारत के न्यायालय और न ही भारत का मीडिया। जहां तक भारत के आम मजदूर-मेहनतकश जनता का सवाल है जो पहले ही भारत के शासक वर्गों से शोषित और दमित है वह अपने अधिकारों व संघर्षों के प्रति सचेत, सक्रिय और संगठित नहीं है। अतः वह मणिपुर की मजदूर, मेहनतकश जनता के साथ फिलवक्त खड़ी होगी इसकी अभी कोई सम्भावना नहीं है। <br />
मणिपुर कश्मीर की तरह दो राहे पर खड़ा है। दशकों से लोग लड़ रहे हैं पर उनकी मंजिल उन्हें तब ही करीब आते दिखेगी जब भारत की मजदूर-मेहनतकश आबादी जागेगी और संघर्ष करने के लिए अपनी दोनों भुजायें खड़ी कर लेगी।
सुलगता मणिपुर और शासक मौन
राष्ट्रीय
आलेख
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