
इतिहास के क्षेत्र में वर्तमान क्षेत्र के लोग अलग-अलग कारणों से प्रवेश करते हैं। कुछ इतिहास के अध्ययन के नाम पर इतिहास के गलियारे में गुम हो जाते हैं तो कुछ इतिहास के बारे में झूठे किस्से गढ़ते हैं ताकि वर्तमान में उन लोगों के हितों की सेवा की जाए जो आज के बादशाह हैं। कुछ अन्य होते हैं जो वर्तमान से इतिहास के क्षेत्र में इसलिए प्रवेश करते हैं ताकि वर्तमान के प्रश्नों का आधार व उत्तर खोजा जाए ताकि भविष्य का निर्माण किया जा सके। इतिहास का अध्ययन महज इसलिए कि वर्तमान को बदला जाए और इतिहास का निर्माण किया जाए। अच्छे भविष्य की नींव रखी जाए।
सन् उन्नीस सौ पच्चीस में भी ऐसे लोग थे जो इतिहास के क्षेत्र में उपरोक्त अलग-अलग वजहों से इतिहास के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे और जाहिर तौर पर आज भी ऐसे अनेकोनेक लोग हैं। और जब उन्नीस सौ पच्चीस से जुड़ी कई-कई परस्पर विरोधाभासी घटनाएं हों तो यह फिर उन व्यक्तियों के ऊपर निर्भर होता है कि वे इतिहास के प्रति क्या नजरिया रखते हैं और वर्तमान में किन विचारों, मूल्यों, राजनीति के आधार पर समाज में दखल देते हैं।
उन्नीस सौ पच्चीस मानव जाति के इतिहास में एक ऐसे काल का द्योतक था जब बर्बरता को चुनौती देते हुए एक नयी सभ्यता जन्म ले रही थी। यानी विश्व पूंजीवाद ने मानव जाति को पहले विश्व युद्ध में धकेलने के बाद अब अपने को कायम रखने के लिए फासीवाद की शरण ले ली थी। इटली में मुसोलिनी सत्ता में काबिज हो रहा था तो हिटलर का उदय हो रहा था। 1925 (18 जुलाई) में ही हिटलर ने अपनी जहरीली किताब मेरा संघर्ष (मैन काम्फ) प्रकाशित करवायी थी। यह किताब नाजीवाद का ‘घोषणापत्र’, ‘बाइबिल’, ‘जनसंहार का विश्वघोष’ आदि सब कुछ थी। फासीवाद, नाजीवाद, विश्वयुद्ध जहां मानव जाति को अंधकार में धकेल रहे थे वहां इसके ठीक उलट सोवियत संघ में एक नयी सभ्यता समाजवाद आकार ले रही थी। भीतरी और बाहरी पूंजीवादी व प्रतिक्रियावादी शत्रुओं को हराते हुए सोवियत संघ में जिस समाजवाद का निर्माण हो रहा था वह भारत सहित पूरी दुनिया के गुलाम लोगों, शोषित-उत्पीड़ित जनों को मुक्ति की राह बता रहा था।
भारत में भी सन् 1925 में उथल-पुथल का ही दौर चल रहा था। बर्बरता और सभ्यता के नये बीज बोये जा रहे थे। आज का भारत ऐसा क्यों है, का एक अंकगणितीय जवाब 1925 में भी छुपा है। कुछ तिथियों उससे जुड़ी घटनाओं पर गौर कीजिये यह आपको अतीत का ज्योतिषशास्त्री बना देगा।
9 अगस्त, 1925 को भारत के राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों ने काकोरी में क्रूर अंग्रेजी शासकों के खजाने को लूट लिया ताकि भारत की आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाया जा सके। ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एशोसिएशन’ से जुड़े इन साहसी क्रांतिकारियों रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रोशन और राजेन्द्र प्रसाद लाहिड़ी को बाद में अंग्रेजों ने फांसी में लटका दिया। भारत के इन अमर शहीदों ने भारत की आजादी की लड़ाई के कुर्बानी के रास्ते पर चलने के लिए एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को प्रेरित किया। इनकी कहानियां आज भी देश के लोगों को प्रेरित करती हैं। क्या कमाल के ये नौजवान थे।
27 सितम्बर, 1925 को हिटलर और मुसोलिनी के फासीवादी विचारों का ‘भारतीयकरण’ करते हुए हेडगेवार ने हिन्दू फासीवादी संगठन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की नींव डाली। इन सौ वर्षों में यह विष बीज एक विशाल विष वृक्ष में बदल गया है। सौ वर्ष पहले जर्मनी फासीवाद के मुहाने पर खड़ा था आज हमारा प्यारा देश फासीवाद के मुहाने पर खड़ा है। बर्बरता भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रही है। और हमारे समय का यह यक्ष प्रश्न है कि हम कैसे और किस तरह से बर्बरता का मुकाबला कर एक नयी सभ्यता का निर्माण करते हैं।
26 दिसम्बर, 1925 को भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो रहा था यद्यपि विदेश में यह प्रयास करीब पांच वर्ष पहले हो चुके थे। कम्युनिस्ट भारत के समाज के ऐसे तत्व व तथ्य बनकर उभरने वाले थे जिन्हें कोई भी शासक नजरअंदाज नहीं कर सकता था। कम्युनिस्टों में से कुछ शासकों की गोद में जा बैठे और कुछ ने क्रांति का प्रतीक बन चुके लाल झण्डे को आज तक उठाया हुआ है। जिनके हाथ में लाल झण्डा आज तक बना हुआ है। वे आज भी उस सोवियत संघ से प्रेरणा लेते हैं जो एक नयी सभ्यता-समाजवाद- का प्रतीक बनकर 1925 में उभर रहा था।
उन्नीस सौ पच्चीस में सिर्फ ऐसी घटनाएं व ऐसे संगठन ही जन्म नहीं ले रहे थे जो भारत के भविष्य की दिशा तय रहे थे बल्कि ऐसे व्यक्ति भी जन्म ले रहे थे जिन्होंने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपना व्यापक अच्छा-बुरा प्रभाव छोड़ा। 9 जुलाई को एक बड़े फिल्म अभिनेता-निर्देशक गुरूदत्त का जन्म हुआ जिनकी बनाई फिल्में विश्व क्लासिक में शामिल हो गईं। 15 जुलाई को एक बड़े नाट्यकर्मी बादल सागर का जन्म हुआ तो 7 अगस्त को एम.एस.स्वामीनाथन नाम के पूंजीवादी कृषि वैज्ञानिक का जन्म हुआ। ऐसे अनेकोनेक व्यक्तियों की चर्चा की जा सकती है। ये व्यक्ति अपने युग की पैदाइश थे और ये आज के भारत की तस्वीर के एक हिस्से हैं।
उन्नीस सौ पच्चीस का भारत एक ऐसा भारत था जो अपनी मुक्ति के लिए व्याकुल था। हजारों-हजार लोग अब तक अपनी जान को देश की आजादी के लिए कुर्बान कर चुके थे। इनमें आदिवासी, नौजवान, किसान आदि सभी थे।
भारत के पास 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की स्मृतियां थीं तो इस बात की भी स्मृति थी कैसे अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत 1905 में बंगाल का विभाजन किया था। और भारत की जनता को नाज था कि उन्होंने कैसे अंग्रेजों से बंगाल का विभाजन अपने जुझारू संघर्षों के द्वारा 1912 में वापस कराया था। 1912 ही वह साल था जब अंग्रेज अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाये थे।
गदर आंदोलन, जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड, असहयोग आंदोलन, चौरा-चौरी काण्ड जैसी ऐतिहासिक घटनाओं के बीच भारत अपनी आजादी की ओर बढ़ रहा था। कांग्रेस पार्टी आजादी की लड़ाई के केन्द्र में थी और उसके केन्द्र में महात्मा गांधी थे। महात्मा गांधी एक ऐसे चतुर राजनेता थे जिन्होंने संत का रूप धारण किया था। भारत के उभरते पूंजीपति वर्ग को जैसा नेता उस दौर में चाहिए था ठीक वैसा नेता उन्हें महात्मा गांधी के रूप में मिला। गांधी जी की विचारधारा, कार्यनीति व रणकौशल की खासियत यह थी कि वे भारत के पूंजीपति वर्ग को भारत की सत्ता दिलाने में कामयाब रहे। भारत में चीन की तरह मजदूर वर्ग के नेतृत्व में क्रांति इसलिए नहीं हुयी क्योंकि भारत के पास चीन की तरह कोई माओ नहीं था। यहां क्रांति की स्थिति और संभावना इतिहास में कई-कई बार पैदा हुयी परन्तु क्रांतिकारियों के सही संगठन व अच्छे नेतृत्व के बिना क्रांति ऐसे बादल की तरह रही जो उमड़े-घुमड़े तो बहुत परन्तु बरसे नहीं। हालांकि क्रांति के बादल भारत के आसमान में एक सदी से बारी-बारी से आते-जाते रहे हैं।
उन्नीस सौ पच्चीस में भारत की आजादी की दिशा ही नहीं तय हो रही थी बल्कि भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि भी तैयार हो रही थी। हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग जैसे घोर साम्प्रदायिक संगठन 1925 से पहले ही अस्तित्व में आ गये थे। 1925 में बने आर.एस.एस. ने हिन्दू महासभा व कांग्रेस में मालवीय जैसे नेताओं के आशीर्वाद से तीव्र प्रगति की और फिर शनैः शनैः वह वहां पहुंच गयी कि उसके नेतृत्व में हिन्दू फासीवाद एक ठोस वास्तविकता, सबसे बड़ा खतरा बनकर भारत के ऊपर मंडरा रहा है।
उन्नीस सौ पच्चीस भारत के इतिहास में एक संधि काल की तरह दिखायी देता है। हो सकता है दो हजार पच्चीस भारत के इतिहास में एक नया मोड़ साबित हो। नया मोड़, बर्बरता और सभ्यता के मसले पर भी हो सकता है। हिन्दू फासीवाद का बढ़ता वर्चस्व, अम्बानी-अडाणी जैसे एकाधिकारी घरानों का समर्थन भारत को बर्बरता की ओर धकेल सकता है और 1925 के काकोरी के शहीदों सा साहस बर्बरता को भी पीछे धकेल सकता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं यदि भारतीय एक समय दुनिया की सबसे बड़ी ताकत रहे ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत की जमीन से खदेड़ सकते हैं तो निःसंदेह वे हिन्दू फासीवाद को निर्णायक शिकस्त दे कर नई सभ्यता का निर्माण कर सकते हैं।
इतिहास की बातों का महत्व तभी है जब इतिहास निर्माण का काम अपने हाथों में लिया जाए। हर युग का अपना कार्यभार होता है। हमारे युग का कार्यभार है हिन्दू फासीवाद और उसे पालने वाले पूंजीवाद को ध्वस्त किया जाये और नई सभ्यता के प्रतीक समाजवाद का निर्माण किया जाए।