बड़े लोगों की बड़ी बात

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अपने देश में पिछले कुछ सालों से लगातार आरोप लग रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पूंजीपति गौतम अडाणी के बीच यारी है। कि 2002 से अब तक अडाणी के लगातार बड़े से बड़े बनते जाने के पीछे मोदी का हाथ है- पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर और फिर देश के प्रधानमंत्री के तौर पर। यदि कुछ सालों में अडाणी देश के दूसरे नंबर के पूंजीपति बन गये तो मोदी की कृपा से ही। बदले में अडाणी ने मोदी और उनकी पार्टी को बेशुमार पैसा दिया- चुनाव लड़ने और सांसदों-विधायकों की खरीद-फरोख्त के लिए। दोनों ने एक दूसरे को चमकाया- एक ने राजनीति में और दूसरे ने व्यवसाय में। 
    
मोदी और उनकी पार्टी दोनों ही इस यारी से इंकार करती रही है। कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी चाहे जितना ‘मोदानी’ की बात करते रहें पर मोदी और भाजपा अपने इंकार पर डटे हुए हैं। 
    
अब इसकी तुलना मोदी और हिन्दू फासीवादियों के स्वर्ग यानी संयुक्त राज्य अमेरिका से करें। अभी हालिया चुनाव में दुनिया के सबसे धनी आदमी एलन मस्क ने वहां के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप का खुल कर समर्थन किया। वे दोनों एक साथ खुलकर मंच पर नजर आये। दोनों ने एक-दूसरे की दोस्ती की कसमें खायीं। और तो और मस्क ट्रंप के परिवार में भी शामिल हो गये- कम से कम पारिवारिक फोटो में। मस्क ने ट्रंप के चुनावी प्रचार में अरबों रुपये खर्च किये। यहां तक कि लोगों को ट्रंप के साथ लाने के लिए उन्होंने एक लाटरी योजना भी शुरू कर दी। 
    
चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप जीत गये। वे अमेरिका के अगले राष्ट्रपति होंगे। अपने नये मित्र एलन मस्क का शुक्रिया अदा करने के लिए ट्रंप ने उन्हें अपनी सरकार में स्वयं सरकार को ही छोटा करने के लिए नियुक्त करने का फैसला किया है। वे सरकारी विभागों को बंद करके और उनमें छंटनी करके सरकारी खर्च को एक चौथाई या एक तिहाई कम करेंगे। स्वयं सरकारी खर्चे से अरबों डालर कमाने वाले मस्क आम अमरीकियों को सरकारी नौकरी से निकालेंगे। ऐसा करके वे और ज्यादा सरकारी पैसा अपनी जेब में डालने का रास्ता साफ करेंगे। मस्क ने ट्रंप को जिताया अब ट्रंप सरकारी पैसा मस्क पर लुटायेंगे। और इसका रास्ता भी स्वयं मस्क ही साफ करेंगे। 
    
भारत में मोदी और अडाणी का रिश्ता वही है जो अमेरिका में ट्रंप और मस्क का है। बस फर्क केवल इतना है कि एक छिपा है और दूसरा खुला। एक छिपाया जाता है, दूसरे को दिखाया जाता है। एक में इंकार किया जाता है, दूसरे में स्वीकार। एक जगह छिपाने के लिए झूठ पर झूठ बोला जाता है जबकि दूसरी जगह इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ती। एक जगह इसके लिए हद दर्जे का पाखंड करना पड़ता है जबकि दूसरी जगह इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ती। 
    
यह फर्क भारत जैसे पिछड़े पूंजीवादी देश और अमेरिका जैसे विकसित साम्राज्यवादी देश का फर्क है। कहने के लिए एक दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और दूसरा दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र। पर दोनों लोकतंत्र के व्यवहार में यह फर्क दिखता है कि पूंजीवाद में पैसे की माया क्या है और कैसे पूंजीवादी विकास के साथ इस माया की शर्म-हया खत्म होती जाती है। 
    
अमरीकी लोकतंत्र में पैसे द्वारा खरीद-फरोख्त बेहद आम है और कानूनी है। वहां पूंजीपति खुलेआम चुनाव में पैसा दे सकते हैं। वहां संसद में पैसे लेकर सवाल पूछे जा सकते हैं। इसके लिए राजधानी में सैकड़ों संस्थाएं और हजारों व्यक्ति लगे हुए हैं। पूंजीपति और कंपनियां पैसे से सरकारी नीतियां बनवा-बदलवा सकती हैं। कुल मिलाकर सारा खेल खुला फर्रुखावादी है। 
    
भारत में भी यह सारा कुछ होता है। पर यहां इस सबको गैर-कानूनी माना जाता है। इसीलिए इसे छिपाया जाता है। अडाणी और अंबानी का पूरा इतिहास इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। भारत में यह पहले भी होता था पर अंबानी-अडाणी के काल में यह सब चरम पर पहुंच गया। 
    
मोदी एण्ड कंपनी अमरीकी माडल के मुरीद हैं। उनकी सारी नीतियां अमरीकी तर्ज पर हैं। पर उनकी बदकिस्मती से भारत का लोकतंत्र अमरीकी माडल पर नहीं चल रहा है। इसीलिए उन्हें इतना झूठ-फरेब करना पड़ रहा है। यदि वे भारतीय राजनीति में और ज्यादा टिके रहे तो वे इस मामले में भी यहां अमरीकी माडल लागू करने का प्रयास करेंगे। तब मोदी को अडाणी का नाम आते ही बगलें झांकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। 

आलेख

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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