अमरीकी और फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों की अगुवायी में इजरायल और लेबनान के बीच एक युद्ध विराम समझौता हुआ है। इस समझौते के तहत इजरायली सेना 60 दिनों के अंदर लेबनान से क्रमशः हट जायेगी। इसी दौरान हिजबुल्ला अपने सैनिकों और हथियारों को लिटानी नदी से उत्तर की ओर ले जायेगा। लिटानी नदी के दक्षिण में इजरायली सैनिकों का स्थान लेबनान की 5000 सैनिकों की सेना ले लेगी। वह यह सुनिश्चित करेगी कि हिजबुल्ला की मौजूदगी इस क्षेत्र में न रहे। इसकी निगरानी करने के लिए अमरीकी और फ्रांसीसी सेना के विशेषज्ञ संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के साथ मौजूद रहेंगे। इस समझौते के लागू होने के बाद दक्षिणी लेबनान से अपने घरों से लाखों विस्थापित लोग अपने घरों को लौट सकेंगे। इसी प्रकार, पश्चिमी किनारे में बसाये गये यहूदी लोग भी अपने बनाये गये घरों में वापस लौट सकेंगे। यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि हिजबुल्ला को इस समझौता वार्ता में नहीं शामिल किया गया बल्कि उसकी तरफ से लेबनान की सरकार शामिल हुई है।
इस समूचे युद्ध विराम समझौते में इजरायली यहूदी नस्लवादी सरकार द्वारा गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों के व्यापक नरसंहार और विनाश को रोकने पर कोई चर्चा नहीं है। अभी तक हिजबुल्ला यह दावा कर रहा था कि इजरायल पर हिजबुल्ला के हमले तब तक नहीं रुकेंगे, जब तक गाजापट्टी में इजरायली नरसंहार बंद नहीं हो जाता और कब्जाकारी इजरायली सेनायें गाजापट्टी खाली नहीं कर देतीं। लेकिन इस समझौते में इसका कोई जिक्र नहीं है। इसका कारण एक यह हो सकता है कि इजरायल ने लेबनान में जिस बड़े पैमाने पर तबाही बरपा की है और हिजबुल्ला के नेतृत्व सहित कई सीनियर कमाण्डरों की हत्यायें की हैं, उससे हिजबुल्ला अपनी शक्ति को संचित करने के मकसद से दाव-पेंच के बतौर ऐसे समझौते के लिए राजी हुआ हो। हिजबुल्ला के गाजापट्टी और फिलिस्तीनी स्वतंत्र राज्य के संबंध में दृष्टिकोण बदलने का कोई कारण नहीं है।
दूसरी तरफ, इजरायल लेबनान के साथ युद्ध विराम के लिए क्यों तैयार हुआ, यह समझने के लिए जरूरी है कि प्रधानमंत्री नेतन्याहू के ऊपर अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ-साथ खुद इजरायली सेना का दबाव पड़ रहा था कि वह समझौते के लिए कदम उठाये। इजरायल की 50 हजार सेना लेबनान पर जमीनी हमला करने के लिए तैनात रही है लेकिन वह दक्षिणी लेबनान में दूर तक नहीं जा पा रही थी। इजरायली सैनिक मारे जा रहे थे और उसके मरकवा टैंक नष्ट किये जा रहे थे। इसके साथ ही हिजबुल्ला के राकेट, ड्रोन और मिसाइलें न सिर्फ सीमावर्ती क्षेत्र पर बल्कि राजधानी तेल अवीव तक हमले कर रही थीं। इजरायल की आबादी भयाक्रांत होकर रह रही थी। जब भी सायरन बजते, लाखों लोग सुरक्षित बंकरों में छिपने के लिए भाग जाते। ऐसी स्थिति इजरायली लोगों ने पहले नहीं देखी थी। इजरायली सैनिक बदहवास हो रहे थे। कई सैनिकों ने आत्महत्या कर ली थी। हजारों मानसिक तौर पर बीमार हो रहे थे। इजरायल पर चारों तरफ से प्रतिरोध बलों द्वारा हमले हो रहे थे। यह वह परिस्थिति थी जिससे इजरायली यहूदी नस्लवादी शासक समझौता करने के लिए बाध्य हुए। अभी तक बेंजामिन नेतन्याहू यह दावा दोहरा रहे थे कि हिजबुल्ला को नेस्तनाबूद करने के बाद ही वह रुकेंगे। वे इसके पहले समझौता करने की अपनी यह शर्त रख रहे थे कि लेबनान के हवाई क्षेत्र इजरायली हवाई जहाजों के लिए खुले रहेंगे। इजरायल जब चाहेगा लेबनान के हवाई क्षेत्रों से उसी के ऊपर हमला करता रहेगा। लेकिन नेतन्याहू न तो हिजबुल्ला को नेस्तनाबूद कर सके और न ही उसके हाथ से हथियार छीन सके और न ही इजरायल को यह अधिकार दिला सके जिसमें वह लेबनान के हवाई क्षेत्र में निर्बाध आ जा सके। नेतन्याहू यह भी शर्त रख रहे थे कि दक्षिणी लेबनान और इजरायल के बीच एक ‘बफर जोन’ बने और इस जोन की निगरानी इजरायली सेना करे। इन सबसे पीछे हटकर नेतन्याहू समझौता करने के लिए बाध्य हुए।
अभी जब समझौता आखिरी मुकाम पर पहुंच रहा था, तभी नेतन्याहू के मंत्रिमण्डल के धुर दक्षिणपंथी सदस्य इस समझौते का यह कहकर विरोध कर रहे थे कि यह इजरायल का हिजबुल्ला के सामने आत्मसमर्पण है। ये धुर दक्षिणपंथी सदस्य हिजबुल्ला की समाप्ति तक लेबनान पर बमबारी और आक्रामक युद्ध करने के पक्ष में रहे हैं। इसी प्रकार, पश्चिमी किनारे में बसाये गये यहूदी लगातार असुरक्षा महसूस कर रहे हैं। हिजबुल्ला के हमलों से कई बसायी गयी बस्तियों के घर तबाह हो चुके हैं। वे हिजबुल्ला के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने की बात करते हुए इस समझौते का विरोध कर रहे हैं।
इस युद्ध विराम समझौते पर इजरायली अवाम को संबोधित करते हुए नेतन्याहू ने कहा कि इजरायल ने यह समझौता तीन कारणों से किया है। पहला कारण यह बताया कि पश्चिम एशिया में इजरायल का मुख्य दुश्मन ईरान है और ईरान परमाणु अस्त्र सम्पन्न देश होना चाहता है। इस समझौते के परिणामस्वरूप इजरायल अपने मुख्य दुश्मन ईरान पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकेगा और कोशिश करेगा कि ईरान परमाणु अस्त्र सम्पन्न न बन सके। वह ईरान को अपने लक्ष्य में रखकर अपनी कार्रवाई जारी रखेगा। नेतन्याहू ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि वह ईरान के विरुद्ध क्या कार्रवाई करेगा। नेतन्याहू ने सीरिया की हुकूमत को चेतावनी दी कि वह आग से न खेले, अन्यथा इसके परिणाम उसके लिए भयावह होंगे। नेतन्याहू ने अपने संदेश में दूसरा कारण यह बताया कि युद्ध के दौरान सेना थक चुकी है, उसे आराम की जरूरत है। सेना के पास हथियारों और गोला-बारूद की कमी है। इस कमी को जल्द पूरा करके और सेना को और ज्यादा सक्षम बनाकर वे अपने लक्ष्यों की ओर और ज्यादा सशक्त तरीके से आगे तब तक बढ़ते रहेंगे जब तक इजरायल का मकसद नहीं पूरा हो जाता। देश के नाम संबोधन में नेतन्याहू ने तीसरा कारण हमास को अलग-थलग करने का बताया। हिजबुल्ला से समझौता करने के बाद अब वह लड़ाई के मैदान से बाहर हो गया है और हमास का मुख्य सहयोगी जब युद्ध में नहीं रहा तो हमास अब अलग-थलग पड़ जायेगा और गाजापट्टी में हमास का सफाया करने और बंधकों की रिहाई के दोहरे मकसद को पूरा करने का उनका लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा। नेतन्याहू ने उत्तरी इजरायल (पश्चिमी किनारे का इलाका) से निर्वासित यहूदी बस्तियों के लोगों को फिर से वापस बसाने का अपना संकल्प दोहराया। नेतन्याहू ने उत्तरी इजरायल के लोगों के गुस्से को शांत करने के लिए इस संकल्प की चर्चा की। नेतन्याहू ने अपने संबोधन में यह कहा कि यदि हिजबुल्ला युद्ध विराम समझौते का उल्लंघन करेगा तो इजरायल फिर से पूरी ताकत के साथ हमला करेगा। नेतन्याहू ने इजरायल की अवाम को अपने पीछे हटने या आत्मसमर्पण करने या किसी दबाव में न आने की बात पर जोर देने के लिए पूरे संबोधन में अपने लक्ष्य को पूरा करने तक युद्ध जारी रखने का संकल्प दोहराया।
नेतन्याहू को अच्छी तरह पता है कि गाजापट्टी में अभी भी 100 से ज्यादा इजरायली यहूदी हमास के कब्जे में हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद इजरायल उन्हें वापस नहीं ला सका है। इससे इजरायली अवाम में भारी गुस्सा व्याप्त है। इस गुस्से को शांत करने के लिए उन्होंने अपने संबोधन में इन बंधकों की रिहाई में इस समझौते के चलते मदद मिलने की बात कही।
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
जहां तक अमरीकी और फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों का ताल्लुक है, वे लेबनान पर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस समझौते का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस युद्ध विराम समझौते के बाद अमरीकी साम्राज्यवादी लेबनान में तकनीकी सैन्य सलाहकारों की तैनाती करेंगे और लेबनानी सेना को धन मुहैय्या करायेंगे। अमरीकी साम्राज्यवादी संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों में शामिल होने वाले फ्रांसीसी सैनिकों के साथ तालमेल बनायेंगे।
यह ध्यान में रखने की बात है कि अमरीकी साम्राज्यवादियों का प्रभाव लेबनानी सेना पर रहा है। वैसे वहां की राजनीतिक पार्टियों के भीतर अमरीकी साम्राज्यवादियों के समर्थक तत्व मौजूद हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी 2005 से ही लेबनानी सेना की आर्थिक मदद करते रहे हैं। पिछले लगभग दो दशकों के दौरान अमरीकी साम्राज्यवादियों ने लेबनानी सेना को 2.5 अरब डालर से अधिक की सहायता दी है।
अमरीकी साम्राज्यवादी लेबनानी सेना को वेतन देने के लिए धन उपलब्ध कराने के बारे में सऊदी अरब और कतर से भी बात कर रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी लेबनानी सेना को प्रशिक्षण और उपकरण प्रदान करेंगे।
अमरीकी और फ्रांसीसी साम्राज्यवादी लेबनान के अंदर साम्प्रदायिक आधार पर मौजूद विभाजन का इस्तेमाल करते रहे हैं और उसे एक कमजोर देश के बतौर बनाये रख कर इजरायल के प्रभुत्व के अंतर्गत रखने में मदद करते रहे हैं। एक तरफ उसकी सेना को कमजोर रखा गया और इस पर भी अमरीकी साम्राज्यवादियों के अंगूठे के नीचे रखा गया। जब एक सशस्त्र संगठन के बतौर हिजबुल्ला खड़ा हुआ तो इन साम्राज्यवादियों ने इजरायल के साथ मिलकर पहले वहां गृहयुद्ध भड़का दिया, फिर बाद में इजरायल द्वारा लेबनान पर हमला हुआ। इसी प्रक्रिया के दौरान एक सशस्त्र मिलिशिया के बतौर हिजबुल्ला मजबूत हुआ। हिजबुल्ला इस समय न सिर्फ सशस्त्र मिलिशया है बल्कि एक राजनीतिक संगठन भी है। 2006 में युद्ध में इजरायल को लेबनान से पीछे हटना पड़ा और संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव 1701 के तहत एक समझौता हुआ। आज अमरीकी और फ्रांसीसी साम्राज्यवादी 2006 के ही समझौते को लागू कराने की बात कर रहे हैं। अमरीकी व फ्रांसीसी साम्राज्यवादी और साथ ही इजरायली यहूदी नस्लवादी हिजबुल्ला को निरस्त्र करना चाहते हैं। इसके लिए अमरीकी प्रभाव में लेबनानी सेना को मजबूत करना चाहते हैं। इसके जरिए अमरीकी साम्राज्यवादी अपने प्रभुत्व को बरकरार रख सकेंगे। जब तक सशस्त्र हिजबुल्ला मिलिशिया मौजूद है और लेबनानी समाज में हिजबुल्ला राजनीतिक पार्टी के बतौर खड़ा है तब तक अमरीकी साम्राज्यवादियों व इजरायली साजिश कामयाब नहीं हो सकती।
यदि इस समझौते के तहत हिजबुल्ला निरस्त्र कर दिया गया होता तो यह इजरायल और साम्राज्यवादियों की विजय होती। ऐसा करने में इजरायली शासक और अमरीकी साम्राज्यवादी असफल हो गये। यह वस्तुतः और अंशतः इजरायली यहूदी नस्लवादी हुकूमत की पराजय है।
इस पराजय का एक बड़ा और निर्णायक कारण ईरान की हुकूमत और पश्चिम एशिया में मौजूद प्रतिरोध की धुरी है। इस प्रतिरोध की धुरी की एक बड़ी शक्ति हिजबुल्ला है। यदि हिजबुल्ला इस प्रतिरोध की धुरी में नहीं रहता तो यह धुरी कमजोर होगी। लेकिन हिजबुल्ला प्रतिरोध की धुरी का हिस्सा है। ऐसा लगता है कि वह दांव पेंच के तौर पर इजरायल पर अभी हमला नहीं करेगा।
हूथी, हमास और इराक व सीरिया में मौजूद प्रतिरोध की धुरी के हिस्से इजरायली नरसंहारकों के विरुद्ध अपना संयुक्त संघर्ष जारी रखेंगे। इसके साथ ही और सबसे बढ़कर ईरान कभी भी इजरायल पर अपनी जवाबी कार्रवाई कर सकता है।
ईरान की सत्ता के अलग-अलग अधिकारी जवाबी कार्रवाई करने की बात दुहराते रहे हैं। ईरान के सर्वोच्च नेता खामेनेई ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा नेतन्याहू और उसके मंत्री के विरुद्ध सिर्फ गिरफ्तारी वारण्ट जारी करने पर असंतोष व्यक्त किया है और कहा है कि इन अपराधियों को फांसी दी जानी चाहिए।
यदि ईरान और इजरायल का युद्ध होता है तो इसके व्यापक युद्ध में तब्दील होने की पूरी संभावना है। इजरायल के साथ अमरीकी साम्राज्यवादी खड़े ही हैं और ईरान के साथ रूसी और चीनी साम्राज्यवादी खड़े हो सकते हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में रूसी साम्राज्यवादियों से मार खा रहे हैं। वहां भी यूक्रेन को रूस के अंदर तक मार करने वाली मिसाइलें देकर वे युद्ध को व्यापक करने की तैयारी कर रहे हैं।
लगता है जो बाइडेन जाते-जाते अगले राष्ट्रपति के लिए नयी मुश्किलों का अंबार दे रहे हैं। वैसे इनके आपसी अंतरविरोध जो भी हों, दुनिया के देशों को हमलों का निशाना बनाने में उनकी एकता है।
इस युद्ध विराम समझौते का यूक्रेन-रूस युद्ध के विस्तार से भी कोई रिश्ता है, यह भी एक सोचने की बात है। यह युद्ध-विराम समझौता युद्ध को रोकना नहीं है। यह युद्ध के विस्तार में थोड़ी लगाम देना है। जो बाइडेन की युद्धोन्मादी नीति को ढंकने का प्रयास है। यह इस नीति को रूस-यूक्रेन में नहीं ढंक सकते थे। अतः पश्चिम एशिया में युद्ध को ढंककर पेश कर रहे हैं।
अमरीकी साम्राज्यवादी युद्धोन्मादी हैं। शांति का, युद्ध विराम का दिखावा करते हैं वह इस युद्ध विराम प्रस्ताव में भी मौजूद है। यह स्थायी शांति की दिशा में कदम न होकर युद्ध को जारी रखने की, अन्यायपूर्ण युद्ध जारी रखने की एक चाल है।
इजरायल-लेबनान युद्ध विराम समझौता- स्थायी समाधान नहीं है
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इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।