महाराष्ट्र जीत ने भाजपा को वाचाल तो झारखण्ड हार ने गूंगा बनाया

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महाराष्ट्र व झारखण्ड विधान सभा के चुनाव व विभिन्न राज्यों में उपचुनाव तथा लोकसभा उपचुनाव में संघ-भाजपा व उसके नेताओं ने घोर साम्प्रदायिक-धार्मिक ध्रुवीकरण, राज्य मशीनरी और धनबल का भरपूर प्रयोग किया। झारखण्ड में मिली करारी हार और लोकसभा उपचुनाव में हार के अलावा चुनाव परिणाम मुख्यतः संघ-भाजपा के पक्ष में रहे। झारखण्ड में यदि उसे बड़ी हार मिली तो महाराष्ट्र में उसे बड़ी जीत मिली। एक तरह से कहा जाए तो महाराष्ट्र में एक ढंग से तो झारखण्ड में हेमंत सोरेन ने दूसरे ढंग से सत्ता विरोधी लहर को थाम लिया। महाराष्ट्र में ‘लाडली बहन’ योजना ने भाजपा की जीत में मुख्य भूमिका निभायी तो झारखण्ड में केन्द्र की एजेन्सियों द्वारा हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी से उनकी पार्टी के प्रति उमड़ी सहानुभूति ने भाजपा की हार में मुख्य भूमिका निभायी। 
    
अप्रत्याशित नतीजे महाराष्ट्र के हैं जहां पांच माह पहले हुए आम चुनाव में संघ-भाजपा को मुंह की खानी पड़ी थी। और वहां कांग्रेस पार्टी आम चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। लेकिन इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस या उसके सहयोगियों को इतनी सीटें भी नहीं मिलीं कि वे मुख्य विपक्षी पार्टी और नेता प्रतिपक्ष का पद पा सकें। 
    
महाराष्ट्र में जीत हासिल करने के लिए संघ और भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। हालांकि ऐसी ताकत उसने झारखण्ड में भी झोंक दी थी परन्तु वहां मामला उल्टा पड़ गया। योगी का घोर साम्प्रदायिक नारा ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ हो या मोदी का महीन-महीन बुना उतना ही साम्प्रदायिक नारा ‘एक हैं तो सेफ हैं’ महाराष्ट्र में कितना कारगर रहा कहना मुश्किल है परन्तु झारखण्ड में बिल्कुल भी नहीं चला। झारखण्ड में असम के अगिया बैताल हिमंत सरमा का ‘बांग्लादेशी घुसपैठिया’ व ‘डेमोग्राफी चेंज’ की आग लगाऊ बकवास भी बिल्कुल नहीं चली बल्कि इसने संघ-भाजपा के खिलाफ उल्टा माहौल बनाया।
    
‘एक हैं सेफ हैं’ नारा भगवान जाने कितना हिन्दू मतदाताओं को एकजुट करने के लिए कारगर रहा हो परन्तु यह संघ-भाजपा के लिए एकदम कारगर रहा। संघ ने भाजपा की जीत को महाराष्ट्र व झारखण्ड में हासिल करने के लिए इस बार पूरी जान लगा दी। और इसी तरह ‘एक हैं सेफ हैं’ नारे ने एकाधिकारी पूंजीपतियों व हिन्दू फासीवादियों की एकजुटता को भी कायम रखा। महाराष्ट्र में तो गौतम अडाणी का ‘धारावी प्रोजेक्ट’ के अलावा भी बहुत कुछ दांव पर लगा था। अजित पवार ने ठीक चुनाव के बीच एक ऐसी चाल, अडाणी के साथ सरकार निर्माण के लिए मुलाकात मामले की पोल खोल कर खेली कि भाजपा-संघ सतर्क हो गये। और चाचा शरद पवार की पैंतरेबाजी की पोल खोल भतीजे ने एक तीर से कई निशाने साध दिये। अजीत पवार ने बता दिया कि वह अडाणी व भाजपा-संघ के कितने-कितने राज खोल सकते हैं। अजीत पवार ने चाचा को ही नहीं भाजपा-शिवसेना को भी मात दे दी। 
    
सभी राज्यों के उपचुनाव में मुख्य तौर पर सत्ताधारी पार्टी ही विजयी रही। उत्तर प्रदेश में योगी ने अपने राजनैतिक भविष्य को सुरक्षित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। संघ तो उनके साथ खड़ा था ही। चुनावी जीत हासिल करने के लिए राज्य मशीनरी का नंगा इस्तेमाल किया गया। यहां तक कि मुस्लिम मतदाताओं को धमकाने की तस्वीरें मीडिया तक में सामने आ गयीं। समाजवादी पार्टी अपने मतदाताओं की गिनती करती रह गयी और योगी ने मतपेटियां गिन लीं। 
    
लोकसभा उपचुनाव में प्रियंका गांधी जहां आसानी से जीत गयी वहां नादेड़ की सीट मुश्किल से ही बचा पायी।  
    
उत्तराखण्ड में केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव में जीत हासिल करने के लिए पुष्कर सिंह धामी ने वही कुछ किया जो योगी ने उ.प्र. में किया। अयोध्या-बदरीनाथ हारने के बाद संघ-भाजपा-धामी ने यहां की जीत को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था।

आलेख

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।