नकली नोट आखिर आते कहां से हैं ?

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संसद में एक प्रश्न के उत्तर में केन्द्रीय वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने बताया 2018-19 के 2,18,650 लाख (संख्या में) 500 रुपये के नकली नोटों के मुकाबले 2022-23 में 9,11,100 लाख नकली नोट पाये गये। यह नकली नोटों की संख्या में 316.6 फीसदी की बढ़ोत्तरी थी। 2023-24 में यह आंकड़ा 8,57,110 लाख नोटों का था। 2000 रुपये के नोटों के मामले में 2018-19 के 2,18,470 लाख के मुकाबले 2022-23 में यह आंकड़ा 98,060 लाख नोटों तक रहा। 2023-24 में यह 2,60,350 लाख के स्तर पर पहुंच गया। यहां यह गौर करने वाली बात है कि 2023 के मई में रिजर्व बैंक ने 2000 रुपये के नोट वापस लेने का फैसल किया। जिसके तहत कुछ महीने के भीतर लोगों ने नोटों को बैंक में जमा कर दिया।
    
नोटबंदी के कई सारे दावों में नकली नोटों को खत्म करना भी शामिल था। मगर 2018-19 में ही भारी संख्या में 500 और 2000 के नोट बाजार में आ गये। सरकार अगर खोजने निकले तो कईयों को जेल भेज दे। पर यह सच है कि कुछ नये शातिर आयेंगे और नकली नोट का बाजार फिर चालू हो जायेगा। सरकार अगर किसी सनक में फिर नोटबंदी कर दे, तब भी यही होगा। जैसा कि अभी हो गया। फिर चाहे सरकार अपने को सही साबित करवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से फैसला लाकर दिखाती घूमे। इससे स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और कोई सरकार इसे सुन भी ले पर मौजूदा फासीवादी मोदी सरकार इस सच को कभी नहीं मानेगी। 
    
देश की करोड़ों-करोड़ मजदूर-मेहनतकश आबादी शोषण की चक्की में बेतहाशा पिसी जा रही है। करोड़ों नौजवान रोजगार के लिए दर-ब-दर की ठोकरें खा रहे हैं। अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, महिलायें तरह-तरह से सताये जा रहे हैं। सरकार उनके लिए क्या कर रही है? पीड़ित को ही दोषी ठहरा रही है। फासीवादी इतने धूर्त हैं कि कबीर की नेकनीयत बात ‘‘बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिला कोई, जो मन देखा आपन, मुझसे बुरा न कोई’’ तो इन्हें समझाना की बेकार है। 
        -एक पाठक, हल्द्वानी

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।