
पितृसत्ता की जंजीरों में बंधी,
सपनों की दुनिया से अंधी।
आसमान छूने की ख्वाहिश,
धरती पर गिराई जाती हैं।
हर कदम पर रोक-टोक,
आवाज दबाई जाती है।
क्यों न सुने उनकी पुकार,
जो न्याय की राह दिखाती हैं।
घर की चारदीवारी में सिमटी,
अपनी पहचान खो देती हैं।
जिम्मेदारी का बोझ उठाए,
अपने वजूद से लड़ती हैं।
पितृसत्ता की यह दीवार,
सदियों से खड़ी है।
औरत की शक्ति को दबाने में,
यह हर जगह बड़ी है।
पर अब हवा बदल रही है,
स्वर नए गूंज रहे हैं।
पंख फैलाकर उड़ने को,
औरत के सपने झूल रहे हैं।
नयी सदी का यह संकल्प,
पितृसत्ता को मिटाना है।
हर नारी को उसका हक,
अब मिलकर दिलाना है।
-पूनम धारीवाल