विभाजन

साइकिल से फैक्टरी पहुंचने में दस मिनट लगते हैं। 8 बजकर 10 मिनट ये वो अंतिम समय है जिस वक्त तक मजदूरों को फैक्टरी में पहुंच जाना होता है। उसके बाद लेट आने पर गेट पर रोका भी जा सकता है और वापसी भी हो सकती है। आज तो एच आर डांट लगाएगा, साइकिल पर बैठते ही कपिल के दिमाग में ये विचार घूमने लगता है क्योंकि जैसे ही घड़ी पर नजर गई, घड़ी ने 8 बजकर 5 मिनट का संकेत दिखाया। पूरे दिन का नुकसान करने से बेहतर है थोड़ी डांट खा ली जाए। लेट होना एक अपराध है जिसके दंडस्वरूप आपको कंपनी की सुरक्षा में तैनात गार्ड गेट पर पूछताछ के लिए रोक सकता है। डांट लगा सकता है। अपमानित कर सकता है। आपका एक घंटा काटा जा सकता है या फिर घर वापस भेजा जा सकता है। खैर आज गनीमत रही कि मामूली पूछताछ के बाद एंट्री हो गई।
    
गेट पर कई तरह के रजिस्टर रखे हुए हैं जो अलग-अलग प्रकृति के कामों से संबंधित हैं, अलग-अलग ठेकेदारों से संबंधित हैं। फ्रेडलिंग, बंडलिंग, ढलाई के मजदूर, दिहाड़ीदार, कंपनी के मजदूर सबके अलग-अलग रजिस्टर हैं। इन सभी मजदूरों की उपस्थिति दर्ज करने की जिम्मेदारी सिक्योरिटी गार्ड के जिम्मे रहती है और फिर एच आर विभाग की।
    
श्याम बदन बिहार का मजदूर है जो पीस रेट के हिसाब से फ्रेडलिंग का काम करता है। ठेकेदार भी बिहार का है और उसी के गांव का है। ठेकेदार के तहत लगभग 20 मजदूर यहां पीस रेट पर काम करते हैं। हर पीस पर रेट तय है जिसका आधा मजदूर को मिलता है और आधा हिस्सा ठेकेदार अपनी जेब में रख लेता है। ऐसा ही फ्रेडलिंग का एक ठेकेदार और है उसके भी लगभग इतने ही मजदूर फ्रेडलिंग का काम करते हैं।
    
यदि आप पानी पीने नल के पास खड़े हैं तो बिना किसी शक के इन फ्रेडलिंग के मजदूरों को आसानी से पहचान सकते हैं। सर पर बांधा हुआ कपड़ा, डबल कमीज, चेहरे और हाथों में गहरी गर्द। नाक में भरी गाढ़ी काली धूल, फटे हुए जूतों पर बंधा हुआ कपड़ा तो यकीनन आप के बगल में एक फ्रेडलिंग का मजदूर खड़ा है। फ्रेडलिंग का दूसरा ठेकेदार बंगाली है। हरि मंडल और श्याम बदन दोनों ही फ्रेडलिंग का काम करते हैं, जिनकी कार्य परिस्थितियां बिल्कुल एक जैसी हैं। परंतु भाषा, संस्कृति, उत्सव त्यौहार, खान-पान की भिन्नता के बावजूद इनके बीच की सबसे बड़ी खाई इनके ठेकेदारों का अलग-अलग होना है। कपड़े बदलने से लेकर नहाने तक और साथ में खाने से लेकर रात में पी जाने वाली सस्ती, कच्ची शराब तक, हर जगह उस खाई को महसूस किया जा सकता है। और जब भी कोई हादसा होता है तो संवेदना और सुरक्षा की भावना के अतिरिक्त कुछ भी साझा नहीं हो पाता। ये खाई तब भी अपनी भूमिका निभा रही होती है।
    
एक अन्य ठेकेदार भी है जिसने लोडिंग, अनलोडिंग का ठेका ले रखा है। इसके मजदूरों का काम फ्रेडलिंग के मजदूरों के आगे माल डालना और फ्रेडलिंग किए गए माल को आगे बढ़ाने का है। ये मासिक वेतनभोगी मजदूर होते हैं। इन ठेके के मजदूरों को पी एफ, ई एस आई, साप्ताहिक अवकाश जैसी कोई सुविधा मुहैय्या नहीं होती। किसी दिन दिहाड़ी 1500 रुपए भी होती है तो किसी दिन शाम तक खाली बैठकर वापस भी आना पड़ता है। सब कुछ बाजार की मांग पर निर्भर होता है। और इसी कारण इनके और कंपनी के मजदूरों के बीच एक अकारण द्वेष का भाव मौजूद रहता है। इसी तरह एक ही प्रकृति का काम होने के बावजूद दो या तीन ठेकेदारों के तहत मजदूर काम करते हैं।
    
कम्पनी के तहत काम करने वाले मजदूरों में भी वर्गीकरण किया जाता है। कपिल कंपनी का कैजुअल मजदूर है, जिसे सरकारी मानकों द्वारा तय मजदूरी भी नहीं मिलती। पी एफ, ई एस आई की कोई सुविधा इन कैजुअल मजदूरों को नहीं मिलती। सिर्फ होली, दीपावली और राष्ट्रीय अवकाश का पैसा मिल जाता है और एक साप्ताहिक अवकाश भी मिलता है। इन कैजुअल मजदूरों से थोड़ा सा भिन्न स्थिति परमानेंट मजदूरों की है। इन्हें सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी मिलती है। पी एफ, ई एस आई की सुविधा के अलावा ई एल, सी एल वगैरह की सुविधाएं भी कुछ मजदूरों को मिल जाती हैं। हालांकि यह मात्र गुड़हल के वृक्ष पर उगने वाले फूलों की जितनी ही होती है जबकि वास्तिकता गुड़हल के पत्तों जैसी। परमानेंट और कैजुअल मजदूरों के मध्य काम का कोई विभाजन सीधे तौर पर नहीं होता परंतु वास्तव में ज्यादा श्रम वाले काम यही कैजुअल मजदूर करते हैं, परंतु जब भी वार्षिक वेतन वृद्धि का समय आता है तो इन्हीं कैजुअल मजदूरों की वेतन वृद्धि सबसे कम होती है। और कहीं न कहीं ये कैजुअल मजदूरों के मन में परमानेंट मजदूरों के प्रति बैर भाव का कारण बनती है। जब भी इन कैजुअल मजदूरों को परमानेंट मजदूरों द्वारा हेल्पर कहा जाता है तो उसमें इन्हें खुद से कमतर समझने की प्रवृत्ति मौजूद रहती है। मूलतः काम की प्रकृति एक जैसी होती है, परंतु दोनों के मध्य सदैव एक खाई मौजूद रहती है। एक विभेद मौजूद रहता है जिसका कारण आर्थिक होता है। और यह विभेदीकरण उन्हें एकरूपता देने में सदैव बाधक रहता है।
    
आपने मोटर गाड़ी में बैठकर उसका आनंद लिया होगा। मोटर गाड़ी बहुत तेज रफ्तार से सड़क पर दौड़ती है। बाहर से देखने पर वह एक एकीकृत ढांचा होता है। परंतु वास्तविकता हमारी देखने की क्षमता से ज्यादा बड़ी होती है। क्योंकि मोटर गाड़ी महज आकार भर नहीं होती। वह अपने भीतर भिन्नताओं और उसके एकीकरण को लिए होती है। उसके भीतर सैंकड़ों पुर्जे होते हैं जो उसे गति और आकार देते हैं। प्रत्येक पुर्जे की अपनी अहमियत और अपनी विशेषताएं होती हैं। प्रत्येक पुर्जे की बनावट, बनने की प्रकिया, धातु की गुणवत्ता, भिन्न-भिन्न होती है। और ये भिन्नताएं एकता के निश्चित सूत्र में बंधकर वेग से चलने वाले वाहन का साकार रूप लेती हैं।
    
परंतु धातु के इन पुर्जों का जन्म इस तरह हुआ होता है कि प्रत्येक पुर्जा खुद को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में ही महसूस कर पाता है। उसे सिर्फ खुद के ऊपर पढ़ने वाले दबाव और घर्षण का ही भान होता है जो उसके वजूद को लगातार प्रभावित करता है। परंतु अपनी बारी में अपने जैसे ही पुर्जों के ऊपर पड़ने वाले दबाव, घर्षण के प्रति वह उदासीन रहता है। इसका भान उसे कभी नहीं रहता। न ही उसे इस बात का भान रहता है कि एक सम्मिलित इकाई के रूप में ही उसका कोई वास्तविक अस्तित्व है। किस तरह प्रत्येक पुर्जे के साथ वह घनिष्ट रूप से जुड़ा है। किस तरह प्रबल वेग से चलने वाले, गति देने वाली ऊष्मा का संबंध प्रत्येक पुर्जे के आपसी संबंधों के साथ जुड़ा हुआ है। पुर्जे को इस बात का ज्ञान नहीं होता। पुर्जा अलग-थलग पड़ा रहता है। परंतु एक बार जब वह निश्चित क्रम में बाकी पुर्जों के साथ सही तालमेल में संगठित रूप ग्रहण कर लेता है तब वह प्रबल वेग से गतिमान हो उठता है और पूरी दुनिया को गतिमान बना देता है।

आलेख

/ceasefire-kaisa-kisake-beech-aur-kab-tak

भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

/terrosim-ki-raajniti-aur-rajniti-ka-terror

आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

/modi-government-fake-war-aur-ceasefire

युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

/fasism-ke-against-yuddha-ke-vijay-ke-80-years-aur-fasism-ubhaar

हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

/jamiya-jnu-se-harward-tak

अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।