विकल्प तो है

देश के पांच राज्यों में विधानसभा की रिक्त हुई 13 सीटों पर 10 जुलाई को हुए उपचुनाव के नतीजों में भाजपा केवल 2 सीटें ही जीत पाई। बाकी 11 सीटों में एक सीट निर्दलीय ने और शेष ‘इंडिया’ गठबंधन ने जीतीं। कांग्रेस पार्टी खुश हुई और कहा कि अब अगले चुनाव में भाजपा राज्य दर राज्य हारती ही जायेगी। कांग्रेस का दौर आने वाला है। 
    
इससे पहले हुए लोकसभा के आम चुनाव में भी करोड़ों नागरिकों ने भाजपा के विरोध में अपना मत दिया था। नतीजतन भाजपा लोकसभा में साधारण बहुमत भी न पा सकी। कहा जा रहा है कि भाजपा यानी मोदी की पूंजीपति परस्त खुली नीतियों व कार्यवाहियों तथा ‘विकसित भारत’ सम्बन्धी उनके अहं भरे घोर प्रलाप के खिलाफ लोगों ने अपना वोट दिया। हुआ क्या? कांग्रेस की सीटें बढ़ गयीं। सपा, टीएमसी, टीडीपी जैसी पार्टियों को नई तन्दरूस्ती मिल गयी। चुनावों की सनसनी, नतीजों का कोलाहल, तरह-तरह के नारे व जीतों का नाच अब शांत हो चुका है। केवल सोशल मीडिया पर ही थोड़ा बहुत दिख रहा है। 
    
आखिर ऐसा क्यों है कि आम लोगों का अधिकांश शासन सत्ता में बैठी पार्टी को हटाने के लिए वोट कर देता है? 2004 में भाजपा को हटाया। 2014 में कांग्रेस को हटाया। 2024 में फिर से भाजपा को हटा रहे हैं। सत्तारूढ़ दल को हटा कर, यानी भाजपा को हटा कर कांग्रेस को लाने की जारी प्रक्रिया अगले चुनाव तक पूरी हो जाने की पूर्ण संभावना है। साफ है, भाजपा हटेगी तो कांग्रेसी ही आयेगी। कांग्रेस हटेगी तो भाजपा ही आयेगी। मौजूदा दौर में ऐसा ही है। भाजपा, कांग्रेस का कोई विकल्प इस दौर में नहीं दिख रहा है। 
    
मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा-कांग्रेस के अतिरिक्त किसी विकल्प का न होना निराशाजनक है। क्षोभजनक है। 100 में से औसतन 60 लोग ही वोट देने आते हैं। वो 40 जो वोट देने नहीं आते हैं उनमें अधिकांश ऐसे ही निराश व क्षुब्ध हैं। उनकी मनः स्थिति है कि भाजपा की जगह कांग्रेस आ भी गयी तो क्या होगा? अथवा कांग्रेस की जगह भाजपा आ जायेगी तो भी क्या होगा? कांग्रेस बहुत दिन सत्ता में रही है। क्या हुआ? भाजपा भी बीते 10 साल से ऊपर सत्ता में रही है और अभी भी है क्या हुआ और क्या हो रहा है। 
    
बताया जा रहा है कि कांग्रेस के राहुल गांधी की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। राहुल गांधी, उत्तर प्रदेश में, लोकप्रिय प्रधानमंत्री के रूप में, मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी से आगे निकल गये हैं। इनकी लोकप्रियता प्रधानमंत्री मोदी से ज्यादा हो गयी है। अगर राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री बन गये तो क्या होगा? राहुल ने प्रधानमंत्री मोदी की निजीकरण तथा ‘‘मोनेटाइजेशन’’ सम्बन्धी नीतियों की जबर्दस्त आलोचना की है। उनका कहना है कि इन नीतियों के अंतर्गत देश के सरकारी संस्थान औने-पौने दाम पर पूंजीपतियों को सौंपे जा रहे हैं। नतीजतन, नौकरियां लगातार विलुप्त हो रही हैं। और तो और, नौकरियों में आरक्षण के प्रावधान भी निरर्थक हो जा रहे हैं क्योंकि सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र कम और कमतर होता जा रहा है। 
    
ऐसे में अगर राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आ जाये तो क्या उक्त निजीकरण सम्बन्धी प्रक्रिया उलट जायेगी? अर्थात् वे संस्थान, जिनका निजीकरण हो चुका है, वह फिर से     राष्ट्रीयकृत होंगे? अथवा आर्थिक रूप से ‘‘निजीकरण’’ सम्बन्धी नीतियां रोक दी जायेंगी? नहीं। ऐसा नहीं होगा। एक तो यह कि निजीकरण-उदारीकरण एवं वैश्वीकरण सम्बन्धी कुख्यात एवं शोषणकारी नीतियां 90 के दशक में कांग्रेस सरकार द्वारा ही लागू की गयी थीं। दूसरे यह कि चुनाव के दौर में राहुल गांधी के एक ‘‘ओजस्वी’’ भाषण के बाद उनसे सीधे यह पूछा गया कि एक खास संस्थान जिसे मोदी सरकार ने निजीकरण कर दिया है तो क्या आप पुनः राष्ट्रीयकृत करेंगे? राहुल गांधी ने कुछ देर रुक कर, सोचनीय मुंह बनाकर, जवाब दिया कि इस पर तो गंभीरता से सोचना पड़ेगा। अर्थात् निजीकृत संस्थानों के राष्ट्रीयकृत होने की कोई संभावना नहीं है। इसी तरह अन्य मामलों में भी है। सत्ता में, पार्टियों के अदल-बदल से केवल रंग-रोगन में ही बदलाव दिख सकता है। ढांचे में कोई नहीं। नींव सहित पूरा भवन-दरवाजे, चौखट, खिड़कियां, रोशनदान आदि-आदि सभी कुछ वैसा ही रहना है। क्षोभ एवं निराशा की वजह यही है। इंतहा यह कि अक्सर लोग चुनावी प्रक्रिया तथा चुनावबाजी में लगी सत्ता में येन केन प्रकारेण आने को छटपटाती पार्टियों से निराश होकर उनसे अपनी रुचि खो चुके हैं। इन सबसे आम जन की कोई भी समस्या हल हो ही न सकेगी। 
    
गरीबी और गैर बराबरी पहले से है। इस दौर में बेरोजगारी अब तक के चरम पर पहुंच चुकी है। अधिकांश युवाओं का भविष्य दिशाहीन व अंधकारमय हो रहा है। गैर बराबरी- आर्थिक गैरबराबरी- अपने चरम पर जा चुकी है। एक ओर करोड़ों गरीब, हताश-निराश अपनी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने में असमर्थ हो रहे हैं दूसरी ओर धन-सम्पदा का निर्लज्ज प्रदर्शन करते हुए राष्ट्र श्रेष्ठि हजारों करोड़ रुपये बेटे की शादी में खर्च कर रहे हैं। बच्चों की पढ़़ाई-लिखाई यानी शिक्षा व्यवस्था और बीमारी में दवादारू अर्थात् चिकित्सा व्यवस्था इनकी पहुंच से दूर कर दी गयी है। अलाभकारी खेती व 10-12-14 घंटे खटने के बाद भी जीने लायक मजदूरी न मिल पाना इस दौर की कठोर सच्चाई है। किसी भी पार्टी के सत्ता में आ जाने से इन हालातों में कोई राहत मिल पाने की उम्मीद नहीं है। 
    
गरीबों को केवल राहत देने के लिए बजट का अधिकांश उन पर खर्च करना होगा। अप्रत्यक्ष करों की वह राशि जो देश के इन करोड़ों लोगों से वसूल की जा रही है, कम से कम, यदि वह राशि इन गरीबों की राहत पर खर्च की जाये तो आंशिक राहतकारी होगी। पर इन राजनीतिक दलों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती। वास्तव में, यदि गरीबी एक हद तक दूर करनी है तो देश के छीने जा रहे मुनाफे का एक अच्छा हिस्सा इन पर लगाना होगा। गैर बराबरी दूर करने के लिए तो देश के संसाधनों पर देश के मजदूरों का न केवल मालिकाना होना होगा बल्कि उसके इंतजामिया भी इन्हीं के हाथों में होना होगा। गैरबराबरी दूर होने के लिए व्यवस्था का ढांचा भी तदनुसार बदलना होगा। देश के करोड़ों गरीबों, जरूरतमंदों, मजदूरों के लिए इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। इस विकल्प का ठोस रूप यानी ऐसी राजनीतिक पार्टी जो यह सब कर सके वह कौन और कहां है? अभी वह नहीं है। विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि इस विकल्प के ठोस रूप का निर्माण भी मजदूरों को अपने लिए करना होगा। और वह यह निर्माण कर सकते हैं। 

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