किसी ने मेरे शोध प्रबंध को उठाया और उस पेज की जहां मैंने त्रिवेणी के बारे में बात की है और वर्षों के अपने शोध के आधार पर लिखा था, उस आधार पर नहीं बल्कि शब्दावली में अपने एजेंडे के हिसाब से फेरबदल किया। -एलन मोरिनिस
फरवरी में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के त्रिवेणी के इलाके में कुंभ मेला तीर्थ यात्रा के पुनरुद्धार पर बहुत खुशी व्यक्त की थी। उस समय, मोदी ने कहा, ‘‘क्या आप जानते हैं कि यह इतना खास क्यों है? यह विशेष है, क्योंकि इस प्रथा को 700 वर्षों के बाद पुनर्जीवित किया गया है ...दो साल पहले, त्यौहार को स्थानीय लोगों द्वारा और ‘त्रिवेणी कुंभो पोरिचलोना शोमिती’ के माध्यम से फिर से शुरू किया गया है। मैं इस संगठन से जुड़े सभी लोगों को बधाई देता हूं आप न केवल एक परंपरा को जीवित रख रहे हैं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विरासत की रक्षा भी कर रहे हैं।’’
ऐतिहासिक तथ्य यह है कि त्रिवेणी में कभी भी कुंभ मेला नहीं हुआ था, और तथाकथित ‘पुनरुद्धार’ गलत शोध पर आधारित है। मैं इसे विश्वास के साथ कहता हूं क्योंकि इस दुष्प्रचार का स्रोत आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में मेरे डाक्टरेट शोध प्रबंध का एक वाक्य है जिसके साथ किसी ने छेड़छाड़ की और फिर व्यापक रूप से प्रसारित किया। मेरा शोध पश्चिम बंगाल में तीर्थयात्रा परंपराओं पर केंद्रित है और आक्सफोर्ड में बोडलियन लाइब्रेरी में डिजिटल रूप में इंटरनेट पर उपलब्ध है। किसी ने मेरे शोध प्रबंध को उठाया और उस पेज की जहां मैंने त्रिवेणी के बारे में बात की है और वर्षों के अपने शोध के आधार पर लिखा था, उस आधार पर नहीं बल्कि शब्दावली में अपने एजेंडे के हिसाब से फेरबदल किया। मैंने लिखा था कि सौर संक्रमण (संक्रान्ति) का हर काल ‘‘गंगा में स्नान के लिए शुभ होता है (Auspicious for a bath in the Ganges)।
मूल वाक्यांश कोष्ठक में दिखाया है; जालसाजों ने मेरे शब्दों को हटा दिया और उन कोष्ठकों के भीतर इन शब्दों को ठूंस दिया : ‘‘अतीत में यहां एक कुंभ मेला आयोजित किया गया था’’ (A Kumbha mela was held here in past)। मेरे वाक्यांश और उनके, दोनों में कुल 29 अक्षर हैं। अगर मैंने इसे लिखा होता, तो मैं ‘‘अतीत’’ से पहले निश्चयवाचक उपपद (definite article ‘the’) का इस्तेमाल करता, लेकिन उनके पास इसके लिए जगह नहीं थी।
कुछ हद तक प्रभावशाली ढंग से, जालसाजों ने सही फान्ट भी प्राप्त कर लिया जो शायद खोजना आसान नहीं था क्योंकि मूल दस्तावेज को इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर पर टाइप किया गया था, कंप्यूटर पर नहीं। इसे देखने पर किसी को आभास नहीं होगा कि यह एक फर्जीवाड़ा है। अगर मैं निराश नहीं होता तो मैं भी प्रभावित होता।
इस फेरबदल किये हुए पेज को हिंदू वर्चस्ववादियों द्वारा त्रिवेणी में एक प्रमुख हिंदू तीर्थयात्रा को ‘पुनर्जीवित’ करने के औचित्य के रूप में व्यापक रूप से प्रसारित किया गया था। वह स्थान, वास्तव में, एक तीर्थ स्थल रहा है और अपने शोध में मैंने इसे बंगाल के केवल दो स्थानों में से एक के रूप, में पहचाना है, जिसमें प्राचीन काल में हिंदू धार्मिक समारोहों की मेजबानी करने का मजबूत दावा है (दूसरा गंगा सागर है)।
लेकिन खास एजेंडे वाले लोग, इसे कुंभ मेले की तरह उच्च स्तर की पवित्रता और महत्व देना चाहते थे जो भारत में चार स्थलों पर होता है और लाखों प्रतिभागियों को आकर्षित करता है। इसलिए उन्होंने अपने लक्ष्य को साधने के लिए मेरे शोध को नकली बनाया।
आप पूछ सकते हैं कि विद्वानों के शोध को नकली बनाने के लिए कोई इस हद तक क्यों जाएगा। कारण स्पष्ट दिखता है। आज त्रिवेणी में सबसे प्रमुख दरगाह 14 वीं शताब्दी के नेता गाजी जफर खान का क़ब्रगाह है, जिनकी इस क्षेत्र की मुस्लिम विजय में प्रमुख भूमिका थी।
वहां हिंदू प्रतिमाओं के साथ निर्माण सामग्री की उपस्थिति ने कुछ लोगों को यह दावा करने के लिए प्रेरित किया कि यह दरगाह एक हिंदू मंदिर के स्थल पर बनाई गई थी, इस तथ्य को नजरअंदाज करते हुए कि बौद्ध और जैन चित्र भी यहां पाए जाते हैं।
ऐसा लगता है कि जालसाजों का एजेंडा सिर्फ एक तीर्थ को ‘पुनर्जीवित’ करना भर नहीं है, बल्कि इस प्रक्रिया में एक मुस्लिम स्थल को भी नष्ट करना है। मुसलमानों द्वारा कथित रूप से नष्ट किए गए मंदिर के स्थल पर एक प्रमुख त्यौहार के पुनर्जन्म का दावा करना उस एजेंडे को आगे बढ़ाने का आदर्श तर्क है।
मुझे पता होना चाहिए था। इस साल मार्च में, मुझे सनातन संस्कृति संसद से 2024 में होने वाले ‘पुनर्जीवित’ तीर्थयात्रा में सम्मानित अतिथि के रूप में शामिल होने का निमंत्रण मिला। निमंत्रण पत्र की शुरुवात थी ‘‘हम बंगाल के हिंदू आपके शोध और इस तथ्य को सामने लाने के लिए कि मुगल बादशाह जफरशाह के बंगाल पर आक्रमण करने के बाद त्रिवेणी में (माघी कुंभ मेला) में गंगा आरती की पूजा को रोक देने तथा हिन्दू मंदिरों को नष्ट कर देने के बाद 704 वर्षों के लिए माघी कुंभ मेला त्रिवेणी का आयोजन बंद कर दिया गया था; अपना हार्दिक दृढ़ विश्वास आप तक व्यक्त करना चाहते हैं।’’
मैंने तुरंत ही यहां काम कर रही धार्मिक राजनीति को महसूस किया और निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। उस चिंता ने मुझे लेखक के कुंभ मेले के संदर्भ से विचलित कर दिया और जैसा कि त्रिवेणी मेरे शोध में केवल एक मामूली बिंदु था, मैं उस वक़्त इस घटना के साथ किसी भी जुड़ाव से पीछे हटने से ही संतुष्ट था।
इस महीने, स्वतंत्र पत्रकार, स्निग्धेंदु भट्टाचार्य ने आनलाइन पत्रिका, आर्टिकल 14 में एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने मेरे शोध प्रबंध की जालसाजी का खुलासा किया। उन्होंने फरवरी 2022 में हिंदुत्व कार्यकर्ताओं द्वारा त्रिवेणी कुंभ मेले के पुनर्जीवित होने का ढिंढोरा पीटते हुए आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन का हवाला देते हुए कहा, ‘‘हमें किसी टाम, डिक और हैरी के लेखन से नहीं, बल्कि आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध पत्र से पता चला है कि 700 साल पहले तक यहां कुंभ मेला आयोजित किया जाता था’’, उन्होंने कहा ‘‘कुंभ मेले के पुनर्स्थापना से शहर की शान फिर से बढ़ेगी।’’ उक्त दावे का वास्तव में, तथ्यतः कोई आधार नहीं है; आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का जो शोध पत्र उन्होंने मेरे नाम से प्रसारित किया है, वह त्रिवेणी में कुंभ मेले के बारे में कुछ नहीं कहता है क्योंकि वहां कभी मेला था ही नहीं।
लेकिन कुछ लोगों के लिए, साम्प्रदायिक राजनीति (मैं नफरत कहने की हिम्मत कैसे करूं?) इतनी शक्तिशाली प्रेरक शक्ति है कि वे अपने रास्ते में तथ्यों के रूप में इतनी नगण्य चीज को खड़े नहीं होने देंगे। वे अपने उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी से दस्तावेजों को गलत तरीके से पेश करने की जहमत उठाएंगे और वे उन सभी का, उच्चतम पद तक का, अविवेकपूर्ण समर्थन हासिल करेंगे जो उनके एजेंडे पर सहमत हैं। किसी को भी हैरत नहीं होनी चाहिए। यह हिंदू वर्चस्व के नशे के कारोबारियों के अपने लक्ष्यों को हासिल करने में बेईमान होने का सिर्फ एक और उदाहरण है।
मुझे डर है कि वे इसे नहीं समझ पाएंगे कि त्रिवेणी में हिंदू मंदिर, जिसके बारे में इनका दावा है कि जफर खान ने इसे नष्ट किया था, देवता विष्णु को समर्पित था, जिसे भक्त सत्यनारायण, सत्य के भगवान के रूप में पूजते हैं।
(एलन मोरिनिस एक सेवानिवृत्त कनाडाई मानव विज्ञानी और रोड्स स्कालर हैं, जिनके आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में डाक्टरेट शोध प्रबंध का शीर्षक ‘‘हिंदू परंपरा में तीर्थयात्रा : पश्चिम बंगाल का एक केस स्टडी’’ है, जिसे बाद में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था)