नया संसद भवन : रंग में भंग

भारत के नये संसद भवन का अपने उद्घाटन से पहले ही विवादों में घिर जाना यह बतलाने को पर्याप्त था कि भारत की राजनीति किस जगह पर खड़ी है। एक ओर आत्ममुग्ध, प्रचार के भूखे और इतिहास में मुगल बादशाहों की तरह शाही इमारत या प्रतीकों के निर्माण में लगे देश के प्रधानमंत्री हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस के घोषित-अघोषित नेतृत्व में एक ऐसा विपक्ष है जो आजकल आक्रामक है और भाजपा व मोदी को उन्हीं की चालों से घेरने लगा है। दांव-पेंच के बीच यह मामला उच्चतम न्यायालय तक जा पहुंचा। हालांकि न्यायालय ने संसद का उद्घाटन किनसे कराया जाये इसमें हस्तक्षेप से इंकार कर दिया।

नए संसद भवन में सिर्फ भवन ही नया है बाकी तो सब कुछ पुराना-धुराना है। पुरानी इमारत की जगह एक नयी इमारत खड़ी की जा सकती है परन्तु उन लोगों का क्या होगा जो कल तक पुरानी इमारत में बैठकर देश के मजदूरों-मेहनतकशों के जीवन से खेल रहे थे अब वे यह सब कुछ नई इमारत में बैठकर करेंगे। अब तो बात और आगे जा चुकी है कि नये संसद भवन को कथित हिन्दू राष्ट्र के उदय के रूप में पेश किया जा रहा है। हिन्दू फासीवादी नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए जो दिन मुकर्रर करते हैं वह उनके नायक सावरकर का जन्मदिन है। 28 मई के दिन नए संसद भवन का हिन्दू तौर-तरीकों से उद्घाटन और फिर एक हिन्दू राजा के राजदण्ड ‘सेंगोल’ को नए संसद भवन में लोकसभा के अध्यक्ष के आसन के पास स्थापित करना कई अनकही बातों को अपने आप कह देता है। हिन्दू फासीवादी अपने मिशन को कदम-ब-कदम आगे बढ़ाते जा रहे हैं। 
    

विपक्षी दलों की यह बात गलत नहीं है कि यदि संसद भवन का उद्घाटन करना ही था तो उन दिनों को चुना जाता जिनका भारत की आजादी की लड़ाई में महत्व है परन्तु भारत की आजादी की लड़ाई के खलनायक भला क्यों कर ऐसा करें। उनके लिए जो पूज्य है वह सावरकर हैं। वह सावरकर नहीं जो कभी 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर एक अच्छी किताब लिखता है और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देता है। बल्कि वह सावरकर उनका पूज्य है जो अंडमान जेल से छूटने के बाद अंग्रेजों का पिट्ठू बन जाता है और यह बात जोर-शोर से स्थापित करता है कि भारत के हिन्दुओं के दुश्मन मुस्लिम हैं न कि अंग्रेज। महात्मा गांधी की हत्या का आरोपी सावरकर कितना उपेक्षित था इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि जब तक उसने आत्महत्या नहीं कर ली तब तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उसका नाम तक नहीं लेता था। सावरकर को नायक के रूप में हिन्दू फासीवादी पिछली सदी के अंतिम दशकों में स्थापित करने लगे थे। बाद में जब वाजपेयी की सरकार बनी तो उसे एक नायक के रूप में स्थापित करने में पूरा जोर लगा दिया। हिन्दू फासीवादियों के अनुयाइयों को शायद यह न पता हो कि सावरकर निजी जीवन में न तो हिन्दू धर्म के अनुसार आचरण करते थे और न उसके निजी रूप में प्रशंसक थे। गौमांस खाने से भी सावरकर को परहेज नहीं था। और इस मामले में सावरकर और मोहम्मद अली जिन्ना एक जैसे थे कि वे एक तरह से नास्तिक थे परन्तु धर्म उनके लिए अपने कुटिल राजनैतिक लक्ष्यों को हासिल करने का एक साधन भर था। जिन्ना कभी नमाज अदा करने नहीं गये और न सावरकर ने कभी संध्या-पूजा की। 
    

सावरकर के जन्मदिन के दिन नए संसद का उद्घाटन हिन्दू फासीवादी सरकार की एक सोची-समझी चाल है। खासकर आगामी आम चुनाव को धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर लड़ने की भाजपा-संघ की मुहिम को इससे बल ही मिलता है। 
    

विपक्ष का यह तर्क कि संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति को करना चाहिए कुछ खास गलत नहीं है। जाहिर है ऐसा करने के लिए भला नरेन्द्र मोदी क्यों कर तैयार होंगे। नए संसद भवन का निर्माण भले ही भारत की जनता के सैकड़ों करोड़ रुपये लगाकर किया गया हो, भले ही हजारों मजदूरों ने उसके निर्माण के लिए रात-दिन एक कर दिये हों परन्तु श्रेय तो नरेन्द्र मोदी ही लेंगे। राष्ट्रपति द्वारा नये संसद भवन का उद्घाटन करना मोदी की प्रचार की भूख के स्वाभाविक रूप से आड़े आ जाता है। 
    

राहुल गांधी ने राष्ट्रपति के द्वारा नए संसद भवन के उद्घाटन की मांग उठाकर एक ऐसी चतुर चाल चली कि भाजपा-मोदी सरकार रक्षात्मक मुद्रा में आ गई। हिन्दू फासीवादियों को लोकतंत्र की दुहाई देनी पड़ी और वह राजग (एन डी ए) पुनर्जीवित हो गया जो कहीं भाजपा के पांव तले पड़ा हुआ था। यकायक वह पुनः चर्चा में आ गया। राहुल गांधी की चाल ने पूंजीवादी दलों को दो विशाल शिविरों में बांट दिया। एक ओर नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में शामिल होने वाले 25 दल थे। भाजपा को उन दलों को भी न्यौता देना पड़ा जिन्हें उन्होंने पिछले सालों में कभी तवज्जोह नहीं दी थी। आगामी लोकसभा चुनाव के पहले हो रही इस खेमेबाजी ने इस बात की ओर इशारा कर दिया कि चुनावी महाभारत में कल कौन कहां खड़ा हो सकता है। 
    

हिन्दू फासीवादी किसी भी कीमत पर आगामी लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करना चाहते हैं। चुनाव में जीत हासिल करने के लिए वह उन्हीं चीजों पर जोर दे रहे हैं जो उनके आजमाये हुए हथियार रहे हैं। ये हथियार हैंः घोर धार्मिक ध्रुवीकरण, अंधराष्ट्रवाद, सैन्यवाद और लोकरंजक कदम। इन कदमों के जरिये उन्होंने पिछले दोनों आम चुनाव जीते हैं। सच्चे-झूठे वायदे किये हैं जिनमें सबसे मशहूर तो हर व्यक्ति के खाते में पन्द्रह लाख रुपये और 2022 तक किसानों की आय दुगुना करने का रहा है। 
    

चुनाव में जीत तो किसी भी पूंजीवादी राजनैतिक दल का अभिन्न लक्ष्य है परन्तु भाजपा-संघ के लिए आगामी चुनाव महज आम चुनाव नहीं है। वे भारत में चुनावी जीत के जरिये हिन्दू फासीवादी निजाम कायम करने का ख्वाब पिछले लम्बे समय से पालते रहे हैं। सत्ता में चुनाव द्वारा कब्जा करने की ही नीति फासीवाद के नायक हिटलर ने भी अपनाई थी और वह इसमें कामयाब रहा था। हिन्दू फासीवादी भी ठीक यही तरीका अपनाते रहे हैं। 1925 में पैदा हुआ हिन्दू फासीवादी संगठन जब अपनी जन्म सदी मना रहा होगा तब वह चाहेगा कि केन्द्र में उसकी सरकार हो और वह सब कुछ कर सके जो वह विपक्षी दल की सरकार होने की अवस्था में नहीं कर सकते हैं। जहां तक मोदी जी की बात है वह आजन्म सत्ता से चिपका रहना चाहेंगे। और सबसे बड़ी बात यह है हिन्दू फासीवाद जिन एकाधिकारी घरानों (अडाणी-अम्बानी-टाटा-बिड़ला आदि) की सेवा करता है वे अभी भी इन्हें सत्ता में देखना चाहते हैं। वित्तीय पूंजी और हिन्दू फासीवाद का गठजोड़ जो 2012-14 में कायम हुआ था वह आज तक कायम है। हिन्दू फासीवाद की सारी योजनाओं व आक्रामकता के पीछे की ताकत वित्तीय पूंजी है। वित्तीय पूंजी की जितने अच्छे ढंग से सेवा मोदी के नेतृत्व में हिन्दू फासीवादियों ने की है उसको देखते हुए हाल-फिलहाल यह गठजोड़ टूटने वाला नहीं है। 
    

पुराने संसद भवन में तो फिर भी कभी-कभी वे आवाजें उठ जाती थीं जो कभी-कभी जनता के हित में कुछ कहती थीं, कुछ असर रखती थीं। नए संसद भवन में ये आवाजें दुर्लभ हो जाएंगी परन्तु यहीं से वह नींव भी रखी जायेगी जहां से एक दिन उस इमारत का निर्माण होगा जो असल में भारत के शोषित-उत्पीड़ितों के हितों के लिए काम करेगी। 

आलेख

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।