नये संसद भवन में आयोजित संसद के विशेष सत्र में महिला आरक्षण विधेयक आनन-फानन में पारित करवा दिया गया। इस विधेयक को संसद भवन के गलियारों में धूल फांकते हुए दशकों गुजर गये थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि इस विधेयक को यकायक मोदी सरकार ने संसद में पास करवा दिया।
शायद ही कोई ऐसा भोला होगा जो यह मानेगा कि इस विधेयक को पास करवाने के लिए मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलवाया था। अगर संसद-विधानसभाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का सवाल मोदी सरकार के लिए महत्वपूर्ण रहा होता तो वह इस बिल को अपने पहले या दूसरे कार्यकाल के प्रथम विधायी कार्यों के साथ प्र्रस्तुत करती और पास करवाती। इसे प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखती।
असल में जैसा कि बाद में देखने में आया। विशेष सत्र मोदी साहब की जलवेबाजी के लिए था। महिला आरक्षण विधेयक महज एक बहाना था। मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सम्बन्धी विधेयक इतना हास्यास्पद था कि मोदी सरकार को उसे पेश करने की हिम्मत ही नहीं हुई। और ‘एक देश एक चुनाव’ विधेयक मोदी सरकार के लिए फजीहत साबित होगा इसलिए उसके लिए पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में एक समिति बनाकर उसे हाल फिलहाल के लिए ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। साफ है विशेष सत्र सिर्फ और सिर्फ नये संसद भवन में ‘मोदी तमाशा’ आयोजित करने के लिए था। महिला आरक्षण विधेयक क्योंकि कांग्रेस पार्टी के द्वारा पहले से प्रस्तावित था तो मोदी सरकार ने मौके पर चौका मारने की चाल चली। कांग्रेसियों ने मोदी सरकार के सुर में सुर मिलाकर श्रेय लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
महिला आरक्षण विधेयक को एक भारी भरकम पवित्रतावादी नाम ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ के रूप में पेश किया गया। यह कुछ वैसा ही जैसा उत्तराखण्ड में ‘मिड-डे-मील वर्कर’ को भोजनमाता नाम दिया गया। भोजनमाता ऐसी भारतीय हिन्दू माताओं की तरह है जिनके हिस्से सिर्फ कर्तव्य आता है अधिकार नहीं। बेगार आती है। न तो उन्हें न्यूनतम वेतन मिलता है और न किसी किस्म के लाभ। माता नाम को सम्मान मिलता तो बेचारी गौमाता क्यों गली-गली भटकती फिरती।
हकीकत यही है कि संसद में महिला आरक्षण विधेयक पास होने के बावजूद निकट भविष्य में तो क्या कई-कई वर्षों तक हकीकत नहीं बनने वाला है। विधेयक को हकीकत में उतारने के लिए पहले जनगणना और फिर उस जनगणना पर आधारित परिसीमन की दीवार को लांघना पड़ेगा।
गौरतलब है कि भारत के इतिहास में यह पहली दफा हुआ है जब जनगणना समय से नहीं हो सकी। 2021 में होने वाली जनगणना आम चुनाव के बाद होगी, ऐसी घोषणा मोदी सरकार ने की है। इस जनगणना के बाद होने वाले परिसीमन के बाद लोकसभा व राज्य विधानसभा की सीटें बढ़ायी जायेंगी। परिसीमन के बाद जब नये आम चुनाव होंगे तब कहीं जाकर महिलाओं को संसद व विधानसभा में तैंतीस फीसदी आरक्षण मिल पायेगा। मजे की बात यह है कि भारत के उच्च सदन राज्य सभा व प्रदेश विधान परिषदों में यह आरक्षण लागू नहीं होगा।
परिसीमन की राह भी आसान नहीं है। परिसीमन को लेकर सभी ओर से खींचतानी होती है। जनसंख्या की दृष्टि से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश-बिहार-महाराष्ट्र आदि का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा तो दक्षिण-पूर्वी भारत का प्रतिनिधित्व जो कि उनके असंतोष का पहले से कारण है; को और बढ़ायेगा। परिसीमन को लेकर कितना मामला पेंचीदा हो जाता रहा है, इसके उदाहरण जम्मू-कश्मीर व असम राज्य के परिसीमन रहे हैं।
परिसीमन के कारण उत्पन्न होने वाले राजनीतिक बवाल को देखा जाए तो महिला आरक्षण का लागू होना 2029 के आम चुनाव तो क्या उसके बाद भी आसान नहीं है।
ऐसे ही जनगणना का मामला बन जाता है। आम चुनाव के बाद जनगणना की घोषणा कर मोदी सरकार एक ओर अपनी नाकामियों पर पर्दा डाल रही है दूसरी तरफ इसे महिला आरक्षण की शर्त बताकर उसने साबित कर दिया कि वह महिला आरक्षण को लागू करने को गम्भीर नहीं है। 2031 में अगली जनगणना का समय होगा तो क्या परिसीमन इस या उस जनगणना के बाद होगा। फिर जब परिसीमन होगा तब आरक्षण लागू होगा।
महिला आरक्षण के विधेयक का वर्षों तक संसद के गलियारे में पड़े रहना और फिर उसके एक अधिनियम का आकार ग्रहण करने के बाद हकीकत में लागू होने में वर्षों का और इंतजार करना होगा। भारत का शासक वर्ग कितना ही ‘महिला सशक्तीकरण’ का नारा उछाले असल में वह ही महिलाओं को सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक बराबरी हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा है। भारत ही नहीं अमेरिका, जापान, फ्रांस, इंग्लैण्ड जैसे सभी देशों में महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है। वहां के शासक और उसकी व्यवस्था ही महिलाओं की इस स्थिति के लिए जिम्मेवार है।
महिला आरक्षण के भीतर पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का भी शिगूफा छेड़ा गया। और ठीक इसी तरह धार्मिक अल्पसंख्यकों की महिलाओं के आरक्षण की बात उठायी गयी। भारत के शासक वर्ग आम तौर पर इसके खिलाफ रहे हैं।
भारत के आरक्षण की सच्चाई यह रही है कि आरक्षण शोषित-उत्पीड़ित-दमित तबकों के लिए सीमित अर्थों में ही भूमिका निभाता रहा है। आरक्षण के जरिये पूंजीवादी व्यवस्था और शासक वर्ग का सामाजिक आधार तो किंचित विस्तार पाता परन्तु आम शोषित-उत्पीड़ित जन व्यापक हिस्से के जीवन में खास परिवर्तन नहीं आता। महिला आरक्षण यदि किसी हसीन दिन लागू हो भी जायेगा तो भी इसका लाभ समाज के उच्च वर्ण को ही मिलेगा। क्योंकि भारत के चुनाव में खड़े होने के लिए हजारों रुपये की जरूरत है तो चुनाव लड़ने के लिए कई-कई लाख रुपये चाहिए। पूंजीवादी दल आम तौर पर अपनी पार्टी का टिकट करोड़-करोड़ रुपये में बेचते हैं और पूंजीवादी पार्टियां किसी सिंडीकेट या माफिया गिरोह की तरह चलायी जाती हैं। ऐसे राजनैतिक वातावरण व व्यवस्था में किसी आम मजदूर-मेहनतकश महिला का चुनाव में खड़ा होना और जीतना दोनों ही आकाश-कुसुम साबित होते हैं।
महिला आरक्षण के समर्थन में एक बात यह उठती है कि क्यों नहीं राजनैतिक दल अपने भीतर व टिकट बांटने में महिला आरक्षण को लागू करते हैं। भाजपा के सांसदों में महिलाओं की भागीदारी कुल मिलाकर दस-ग्यारह फीसदी है। क्या चीज है जो इन पार्टियों को अपने भीतर महिलाओं को उनकी आबादी के अनुसार प्रतिनिधित्व देने से रोकती है। इसका सीधा जवाब है कि निजी सम्पत्ति पर आधारित वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के हर अंग-उपांग में सम्पत्तिशाली पुरुषों का वर्चस्व है। शासक वर्ग की महिलाओं को छोड़ दिया जाये तो भारत की महिला आबादी का व्यापक हिस्सा दोहरी या तिहरी दासता का शिकार है।
महिला आरक्षण आम महिलाओं की दासता का अंत नहीं कर सकता। मजदूर-मेहनतकश महिलाएं हों या पुरुष उनका जीवन पूंजीवाद में दासता की जंजीरों में ही जकड़ा रहेगा। उनकी मुक्ति का रास्ता पूंजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन से होकर ही गुजरता है।
महिला आरक्षण क्या महज एक झुनझुना
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।