
मोदी सरकार के बड़बोले वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी को भारत सरकार को बजट पेश किया। पहले यह बजट फरवरी महीने की अंतिम तारीख को पेश किया जाता था लेकिन इस बार इसे महीनेभर पहले कर दिया गया। विपक्षी दलों की राष्ट्रपति और चुनाव आयोग से गुहार का कोई असर नहीं हुआ। ये पार्टियां इस बिना पर बजट को आगे टालने की बात कर रही थीं कि इससे पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा को अतिरिक्त फायदा मिल सकता है क्योंकि जनता को लुभाने के लिए सरकार द्वारा बजट में कुछ घोषणाएं की जा सकती हंै। <br />
अंत में जब बजट पेश हुआ तो पाया गया कि यह बजट भी पिछले सालों के बजटों की तरह ही जनता की बात करते हुए पूंजीपतियों को <img alt="" src="/newsImages/170215-231141-5 1.bmp" style="width: 483px; height: 713px; border-width: 3px; border-style: solid; margin: 3px; float: right;" />लुटाने वाला ही बजट था। चुनाव जीतना भाजपा की प्राथमिकता हो सकती है पर पूंजीपति वर्ग इस बात की इजाजत नहीं देगा कि सरकार का बजट जनता पर लुटा दिया जाये। चुनाव की मजबूरियों को किनारा लगाता हुआ बजट पूंजीपति वर्ग को इस कदर भाया कि दिन का अंत होते-होते शेयर बाजार दो प्रतिशत की छलांग लगा गया। यह बजट के दिन की दूसरी सबसे बड़ी छलांग थी। <br />
यह हमेशा रहा है, खासकर उदारीकरण के जमाने में, कि पूंजीपति वर्ग के अपने बजट को जनता का बजट घोषित किया जाता रहा है। यह सबसे ज्यादा पूंजीपति वर्ग के चाकर यानी तथाकथित अर्थशास्त्री करते रहे हैं। बजट के दिन और उसके कुछ दिनों बाद तक अखबारों-पत्रिकाओं और टी.वी. इत्यादि में इस तरह के विशेषज्ञों की भरमार हो जाती है कि भांति-भांति के तरीके से बताते हैं कि पूंजीपतियों से छीनकर जनता को दे दिया जा रहा है। मसलन दो फरवरी को टाइम्स आफ इंडिया के पहले पन्ने का सबसे मोटा शीर्षक था ‘कैसे भारत की कर व्यवस्था गरीब की पक्षधर हो गयी’। एक महीने पहले ही आक्सफैम की रिपार्ट ने बताया था कि भारत के एक प्रतिशत अमीर अब देश की साठ प्रतिशत सम्पति के मालिक हैं। लेकिन बड़े पूंजीपतियों के इस अखबार को यह झूठ प्रचारित करने में कोई दिक्कत नहीं होती। यहां तक कि वह अपने पसंदीदा प्रधानमंत्री मोदी की बात भी नहीं सुन रहा है कि अमीर लोग कर नहीं दे रहे हैं। <br />
सरकारें गरीबों की पक्षधरता का खेल कैसे खेलती हैं और पूंजीपति वर्ग के भोंपू कैसे उसको प्रचारित करते हैं उसका एक उदाहरण <img alt="" src="/newsImages/170215-231209-5 2.bmp" style="width: 181px; height: 270px; border-width: 3px; border-style: solid; margin: 3px; float: right;" />मनरेगा है। उदारीकरण की तबाही कहीं देश के मजदूर वर्ग को विद्रोह की ओर धकेल न दे, इसके लिए संप्रग की पहली सरकार ने यह योजना लागू की। इसके तहत गावों में रोजगार चाहने वालों को साल में सौ दिन रोजगार मिलना था। दिहाड़ी सौ रूपये तय की गयी। बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेश के बावजूद सरकार दिहाड़ी को न्यूनतम मजदूरी के बराबर करने को तैयार नहीं हुई। जहां तक रोजगार का सवाल है इसे कहीं भी, कभी भी सौ दिन तक नहीं दिया गया हालांकि कानून में यह स्पष्ट प्रावधान था कि रोजगार चाहने वालों को या तो रोजगार मिलेगा या पैसा। यह योजना 2006 में कुछ जिलों में शुरू हुई और 2009-10 में इसे सारे देश में लागू कर दिया गया। <br />
योजना के समर्थकों का कहना है कि इस योजना से गांवों में भूखमरी कम करने में मदद मिली है। बात यहां तक की जाती है कि 2009 के चुनावों में संप्रग सरकार की अप्रत्याशित जीत के पीछे किसानों की कर्ज माफी के साथ इस योजना का बड़ा हाथ था। हालांकि मोदी ने सत्तारूढ़ होने के बाद इस योजना का काफी मजाक उड़ाया पर उनकी हिम्मत इस योजना को समाप्त करने की नहीं पड़ी। यही नहीं, इस बजट में जेटली ने दावा किया कि उन्होंने इस योजना पर अब तक का सबसे ज्यादा प्रावधान किया है। अड़तालीस हजार करोड़ रूपये का। <br />
जब यह योजना पूरे देश में लागू की गयी तो उस साल के बजट यानी 2009-10 के बजट में इस योजना के लिए तीस हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। उस साल का कुल केन्द्रीय बजट आठ लाख करोड़ रुपये का था <img alt="" src="/newsImages/170215-231229-5 3.bmp" style="width: 221px; height: 271px; border-width: 3px; border-style: solid; margin: 3px; float: right;" />और रक्षा बजट करीब एक लाख करोड़ रुपये का। 2017-18 का बजट करीब साढ़े इक्कीस लाख करोड़ रुपये का है और रक्षा बजट करीब पौने तीन लाख करोड़ रुपये का। यदि 2009-2010 और 2017-18 के बजट की राशि को और रक्षा बजट में राशि के अनुपात को ध्यान में रखा जाये तो मनरेगा पर बजट करीब अस्सी हजार करोड़ रुपये होना चाहिए था। 2009-10 में मनरेगा पर किये पुराने खर्च के अनुपात को वही रखने के लिए भी इस बजट में अस्सी हजार करोड़ रुपये से ऊपर का प्रावधान किया जाना चाहिए था। पर प्रावधान किया गया केवल अड़तालीस हजार करोड़ रुपये का। पर वित्तमंत्री संसद में धोषणा करते हैं कि यह मनरेगा पर अब तक का सबसे बड़ा खर्च है। यह ऐसा झूठ है जिसे संसद में बोलने के लिए उन पर संसद को गुमराह करने का विशेषाधिकार हनन का मुकदमा भी नहीं चल सकता क्योंकि वे यह कहकर बच निकलेंगे कि निरपेक्ष तौर पर यही सही है। <br />
पिछले नौ सालों में गरीबी और बढ़ी है। बेरोजगारों की संख्या में और बढ़ोतरी हुई है। इसे देखते हुए मनरेगा पर खर्च बजट के अनुपात में पहले से ज्यादा बढ़ना चाहिए था। अब यह 2009-10 के अनुपात का महज 60 प्रतिशत रह गया है। वास्तविक जरूरत क्या है? सरकार के सारे प्रयासों के बावजूद देश के भूखमरी के शिकार लोगों का आंकड़ा कम से कम पचास करोड़ यानी दस करोड़ परिवारों का है (करीब चालीस प्रतिशत)। अब यदि एक परिवार को सौ दिन रोजगार देना है और दिहाड़ी दो सौ रुपये भी हो तो मनरेगा की कुल राशि करीब दो लाख करोड़ रुपये बन जाती है। और सरकार ने इस बजट में प्रावधान कितने का किया है? महज अड़तालीस हजार करोड़ रुपये का। यानी न्यूनतम जरूरत का एक चैथाईं और उस पर भी सरकार के जरखरीद गुलाम यह कहते हैं कि मनरेगा पर इतना ज्यादा प्रावधान नोटबंदी के असर को कम करने के लिए किया गया है। (प्रसंगवश चालू वर्ष में यह खर्च केवल पांच सौ करोड़ रुपये ही कम है)। मनरेगा कानून की धज्जियां उड़ाते हुए जरूरत का केवल एक चौथाई खर्च किया जा रहा है और पूंजीपति वर्ग के चाकर चीख-पुकार कर कह रहे हैं कि इस मद में सरकार ने बहुत ज्यादा प्रावधान कर डाला है। <br />
मनरेगा जैसी ही कहानी अन्य सभी ऐसे खर्चों की है जो जनता पर किये जाते हैं। स्वास्थ्य को ही लें। इस बार के बजट में ऐसा लगता है कि स्वास्थ्य मद पर करीब बीस प्रतिशत राशि बढ़ा दी गयी है। पर यह राशि मूलतः उन योजनाओं के लिए है जो विश्व बैंक या विश्व स्वास्थ्य संगठन के झंडे तले चलाई जा रही हैं। आम स्वास्थ्य सेवाओं का तो यह हाल है कि पिछले बीस सालों के सारे शोर के बावजूद सरकार का कुल स्वास्थ्य बजट सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत बना हुआ हैं (जबकि इसे कम से कम तीन प्रत्शित करने की मांग की जा रही है) इसमें भी केंद्र सरकार का हिस्सा केवल एक तिहाई है। परिणाम यह है कि कई स्वास्थ्य सूचकांकों मंे भारत बांग्लादेश से भी पीछे है। <br />
जब भी भूखमरी और बेरोजगारी से जूझती जनता को राहत की बात आती है तो सरकार और उसके जरखरीद दोनों बजट की सीमा का हवाला देने लगते हैं। इस बजट में सार्वभौमिक बुनियादी आय पर चर्चा के संदर्भ में बताया गया कि सरकार जनता पर सब्सिडी के तौर पर सकल घरेलू उत्पाद का करीब पांच प्रतिशत खर्च करती है जिसमें से एक प्रतिशत मध्यम वर्ग को जाता है। सब्सिडी की भारी राशि की बात करने वाले यह नहीं बताते कि सरकार हर साल सकल घरेलू उत्पाद का करीब चार प्रतिशत पूंजीपतियों पर माफी के तौर पर लुटा दे रही है। वे यह नहीं बताते कि आय कर की उच्चतम सीमा 1970 में नब्बे प्रतिशत से घटाकर अब केवल तीस प्रतिशत हो गयी है। वे यह भी नहीं बताते कि भारत उन देशों में है जहां सबसे ज्यादा तेजी से अरबपति पैदा हो रहे हैं। <br />
सरकार ने इस बजट में ढाई लाख से पांच लाख रुपये की आय पर आयकर को घटाकर 10 से पांच प्रतिशत कर दिया। हालांकि इस परिवर्तन का लाभ सभी करदाताओं को मिलना था। (पचास लाख रुपये की सीमा तक, उसके बाद कुछ अधिभार लगना था)। पर इसे गरीबों के पक्ष में घोषित कर दिया गया। इसे वर्ग युद्ध तक कहा गया। हकीकत यह है कि देश में कुल केवल सात प्रतिशत आबादी ही ढाई लाख रुपये सालाना से ज्यादा कमाती है। बाकी 93 प्रतिशत लोग तो इससे नीचे है। यही देश के गरीब लोग हैं जिनमें से करीब आधे लोग तो जरूर ही भूखमरी के शिकार हैं। <br />
भारत में आयकर और सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात दुनिया में सबसे कम में से है। बजट घाटे को तीन प्रतिशत रखने का एक कारण यह भी है कि इससे करों में कटौती के साथ जनराहत खर्च में कटौती में मदद मिलेगी। कम आयकर का कारण पूंजीपति वर्ग के चाकर यह बताते हैं कि देश का कर आधार काफी कम है यानी बहुत थोड़े ही लोग कर देते हैं। इसके लिए यह नुस्खा सुझाया जाता है कि खेती पर भी कर लगाया जाये तथा अन्य तरीकों से लोगों को कर के दायरे में लाया जाये। इसके साथ ही करों की ऊंची दर कम की जायें। कम आयकर दर और ज्यादा कर आधार से ज्यादा आयकर इकट्ठा होगा। यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है कि यह बड़े पूंजीपति वर्ग का एक नुस्खा है जो आयकर को नीचे की ओर खिसकाना चाहता है। <br />
सच्चाई यह है कि देश के अमीर अपनी कर देनदारी का एक बहुत थोड़ा हिस्सा देते हैं। नोटबंदी के समय से ही यह मोदी और मोदी सरकार सबसे ज्यादा चीख-चीख कर कह रहे हैं। आयकर की चोरी वे नहीं कर सकते जो भुखमरी में जी रहे हैं या जिनकी आय सालाना ढाई लाख रुपये से कम है। इनकी संख्या 93 प्रतिशत है। आयकर की चोरी वे भी नहीं कर सकते जो नौकरी करते हैं (कम से कम अपनी तनख्वाह पर)। स्वभावतः ही कर चोरी पूंजीपति वर्ग करता है चाहे वह बड़ा हो या छोटा। और सरकार ने स्वयं इसके लिए कानून में छेद छोड़ रखे हैं। खाता-बही वालों और वकीलों की एक पूरी जमात इस काम में जुटी हुई है। बाकी कर चोरी के कानूनी तरीके हैं ही। <br />
बात यह नहीं है कि सरकार कर चोरी को रोक नहीं सकती। बात यह है कि पूंजीपति वर्ग की सरकार यह करना नहीं चाहती। यदि वह करना चाहती तो वह अपनी ओर से हर साल कर माफी नहीं करती जो सारे जन राहत खर्चों से ज्यादा हैं। यदि कर चोरी को रोका नहीं जा सकता तो कम से कम दिखने वाला कर वसूला तो जा सकता है।<br />
उदारीकरण के दौर में सरकारों ने स्वयं ही कर चोरी के हजारों प्रावधान किये हैं। ‘आफशोर बैंकिंग’, ‘डबल टेक्सेशन अवायडेशन ट्रिटी’, ‘पार्टिसिपेटरी नोट’ इत्यादि इनमें से कुछ हैं। इन्हीं की मार्फत अंबानी-अदाणी नाम मात्र का कर देकर बच निकलते हैं। <br />
ऐसे में तीन लाख रुपये से ऊपर के सारे लेन-देन को नकद की सीमा से बाहर करने से कुछ हासिल नहीं होगा। इससे कुछ छोटी मुर्गियों को ही परेशानी होगी। बड़ा पूंजीपति वर्ग तो वैसे भी नकदी में लेन देन नहीं करता जबकि सबसे ज्यादा कर चोरी वही करता है। कैशलैस का यह नया नुस्खा सबसे ज्यादा भाजपा के परंपरागत समर्थकों को ही परेशान करेगा। <br />
उदारीकरण के दौर की शुरूआत से ही बजट केवल सरकार के आय-व्यय का हिसाब से आगे बढ़कर आर्थिक नीतियों की घोषणा वाला दस्तावेज भी बन गया है। यह बजट भी इसका अपवाद नहीं है। <br />
इस बजट में अरुण जेटली ने घोषणा की है कि अब विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड खत्म कर दिया जायेगा। इसका आशय यह नहीं है कि अब देश में विदेशी निवेश को प्रोत्साहन नहीं दिया जायेगा। इसका आशय यह है कि अब विदेशी <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">पूंजी</span> के देश <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">में</span> आने पर किसी तरह की रुकावट नहीं होगी। अब उसे स्वयं ही अनुमति मिल जायेगी। इसके साथ ही देश में विदेशी पूंजी के मामले में एक चरण पूरा होता है। अब किसी क्षेत्र में विदेशी पूंजी की सीमा ही कोई नियंत्रक चीज होगी। <br />
बजट में वित्तमंत्री ने घोषित किया कि तेल क्षेत्र की पांच सार्वजनिक कंपनियों को एक कंपनी में विलय किया जायेगा और इसके शेयरों की स्ट्रेटजिक सेल की जायेगी यानी निजीकरण की ओर बढ़ा जायेगा। ये कंपनियां है ONGC, IOL, BPCL, HPCL, GAIL। इस साल विनिवेश का लक्ष्य करीब एक लाख करोड़ का रखा गया है। यदि सरकार वाकई अपनी घोषणा पर अमल कर डालती है तो यह सार्वजनिक क्षेत्र के मामले में एक गुणात्मक कदम होगा क्योंकि ये कंपनियां तेल-गैस यानी ऊर्जा के अति महत्वपूर्ण क्षेत्र से संबंध रखती हैं। अमेरिकी साम्राज्यवादी दुनियाभर में आधी मारकाट तेल और गैस के लिए ही कर रहे हैं।<br />
इसी की तरह एक महत्वपूर्ण घोषणा जेटली ने श्रम कानूनों के मामले में भी की। उन्होंने कहा कि अभी विद्यमान सारे श्रम कानूनों को निरस्त कर उन्हें चार कोड में ढालने की जो योजना है उसमें से दो को यानी मजदूरी और यूनियनों-श्रम विवादों से संबंधित कोड को इस बजट सत्र में पास करा दिया जायेगा। यदि सरकार ऐसा कर पाने में कामयाब होती है तो यह भी एक बड़ा कदम होगा। तब पूंजीपति वर्ग श्रम कानूनों के अंकुश से पूर्णतया आजाद हो जायेगा।<br />
बजट में प्रस्तावित ये तीनों ऐसे नीतिगत कदम हैं जो देशी-विदेशी पूंजी की लूट को और भी ज्यादा बेलगाम करते हैं, खासकर अंतिम वाला। तब यह सारा कुछ कानूनी हो जायेगा जो आज पूंजीपति वर्ग गैर कानूनी तौर पर कर रहा है। <br />
अंत में रेल बजट। सरकार ने रेल बजट को आम बजट में ही शामिल कर इसे ऐतिहासिक घोषित कर दिया। संघियों के इतिहास के मामले में इससे बेहतर की उम्मीद नहीं की जा सकती। हकीकत यह है कि रेलवे का अवरचनागत ढांचा एकदम जर्जर हो चुका है। एक के बाद एक रेल दुर्घटना इसी की अभिव्यक्ति है। इस पर विशेष ध्यान देने के बदले संघी सरकार का जोर हर तरीके से इसमें निजीकरण को बढ़ावा देने पर ही है। इससे रेलवे की हालत और खराब होगी।<br />
कुल मिलाकर यही है संघी मोदी सरकार का चैथा बजट। यह हर तरीके से अंबानी-अदानी का बजट ही है।