म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन में फिलिस्तीन कहां?

म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन, 2024 फरवरी के तीसरे सप्ताह में सम्पन्न हुआ। कहने के लिए तो यह सुरक्षा सम्मेलन था और इसमें बार-बार ‘‘शांति’’ और ‘‘सहयोग’’ की दुहाई दी जा रही थी। लेकिन यह सम्मेलन युद्धों को और ज्यादा विस्तारित करने पर मुख्यतया केन्द्रित था। इत्तेफाक से यह सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा था जब यूक्रेन के अविदीव्का शहर से यूक्रेनी सेना में भगदड़ मच गयी थी और यूक्रेनी सैनिक वहां पर अपने भारी हथियार और गोला बारूद छोड़ कर जान बचाते हुए भाग रहे थे। रूसी सेना का अविदीव्का शहर में कब्जा हो गया था। यह बात सर्वविदित है कि 24 फरवरी को यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के दो वर्ष पूरे हो गये थे। यूक्रेन को अमरीकी साम्राज्यवादियों और उसके नाटो सहयागियों ने रूस के विरुद्ध लड़ने हेतु व्यापक पैमाने पर आधुनिक हथियारों से और आर्थिक तौर पर मदद की हुई है। अमरीकी साम्राज्यवादियों और नाटो के देशों ने अभी भी रूस को युद्ध के मैदान में पराजित करने की बातें दुहराईं और यूक्रेन को हर तरह से मदद देने का वायदा किया। 
    
लेकिन इस बार अमरीकी साम्राज्यवादियों और उसके नाटो सहयोगियों में निराशा ज्यादा व्याप्त थी। जबकि पिछले सुरक्षा सम्मेलन के दौरान वे रूस के विखण्डन करने और पुतिन के विरुद्ध रूस में विद्रोह कराने के सपने देख रहे थे और लगातार इस बात पर जोर दे रहे थे कि यूक्रेन से रूसी सेना को पीछे खदेड़ देंगे। इस वर्ष उनमें निराशा व्याप्त थी। यही कारण था कि इस वर्ष की रिपोर्ट का शीर्षक ‘‘हार हार’’ (स्ववेमए स्ववेम) था। इस वर्ष के सम्मेलन में यह बात बार-बार उभर कर आ रही थी कि रूस को यूक्रेन युद्ध में सैनिक तौर पर पराजित कर पाना यदि असम्भव नहीं तो मुश्किल दीखता है। अमरीकी साम्राज्यवादियों के सरगना ने तो यहां तक कह दिया कि सिर्फ अविदीव्का में नहीं बल्कि और कई शहरों व इलाकों में रूसी सेना कब्जा कर लेगी। 
    
इस वर्ष के म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में पुतिन के विरोधी नेता नाब्लेनी की जेल में हुई मृत्यु को पुतिन द्वारा करायी गयी हत्या के बतौर बहुत जोर-शोर से प्रचारित किया गया। रूसी राष्ट्रपति पुतिन को इसके लिए जिम्मेदार बताते हुए उनके विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में हत्या का मुकदमा चलाने की बात की गयी। इस सम्मेलन में नाब्लेनी की पत्नी विशेष तौर पर आकर्षण का केन्द्र बनायी गयी। उसने पुतिन के विरुद्ध उसके पति की हत्या कराने का आरोप लगाया और यह घोषणा की कि वह अपने पति के राजनीतिक कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए काम करेगी। 
    
हो सकता है कि पुतिन की सत्ता नाब्लेनी की हत्या कराने के लिए जिम्मेदार हो। पुतिन रूस के भीतर युद्धोन्माद भड़काने और अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने में किसी भी पूंजीवादी देश के तानाशाहों से अलग नहीं है। लेकिन अमरीकी साम्राज्यवादी और उसके नाटो सहयोगियों का दोमुंहापन उस समय और ज्यादा उजागर हो जाता है जब वे गाजापट्टी में इजरायली यहूदी नस्लवादी सरकार द्वारा तीस हजार के करीब फिलिस्तीनियों का नरसंहार करने और व्यापक पैमाने पर विनाश करने के प्रश्न पर इजरायल को आत्मरक्षा के हक के नाम पर मौन या खुला समर्थन करते हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी इसे नरसंहार भी नहीं कहते। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इजरायल द्वारा गाजापट्टी में किये जा रहे नरसंहार को रोकने सम्बन्धी प्रस्ताव पर वे वीटो लगा देते हैं। इस वर्ष के म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में दूसरा चर्चा का महत्वपूर्ण विषय इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष को लेकर पश्चिमी एशिया से सम्बन्धित था। इसमें भी इजरायल की सुरक्षा पर और हमास द्वारा उनके बंधकों की रिहाई को केन्द्र में रखकर ज्यादा चर्चा की गयी। पिछले 75 वर्षों से इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों को जबरन उजाड़कर यहूदी बस्तियों को बसाने और फिलिस्तीनियों को अलग-अलग बंतुस्तानों में कैद रखने की कोई चर्चा नहीं की गयी। यदि 7 अक्टूबर की घटना के लिए हमास को जिम्मेदार ठहराया जाता है तो इस बात की चर्चा नहीं हुई कि आखिर हमास या अन्य संगठन 7 अक्टूबर को हमला करने के लिए क्यों विवश हुए? क्या फिलिस्तीनी आबादी को अपनी आजादी हासिल करने के लिए अपने उत्पीड़कों के विरुद्ध हथियार उठाने का अधिकार नहीं है? अमरीकी साम्राज्यवादी 7 अक्टूबर की घटना को आतंकवादी घटना कहते हैं, लेकिन उसके पहले इजरायली यहूदी नस्लवादी सत्ता द्वारा यहूदी बस्तियों को जबरन बसाने की कार्रवाई के बारे में कुछ नहीं बोलते। यह उनका घोर दोमुंहापन है। 
    
म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन, 2024 की रिपोर्ट में यही रुख अपनाया गया है। यह रिपोर्ट हमास द्वारा इजरायल पर 7 अक्टूबर को किये गये हमले को आतंकवादी हमला कहती है लेकिन 7 अक्टूबर से पहले 1948 से लगातार फिलिस्तीनी आबादी को उजाड़कर उनके घरों व खेतों पर जबरन यहूदी बस्तियों को बसाने के सवाल पर चुप्पी साधे हुए है। 
    
म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में पश्चिम एशिया की शांति और सुरक्षा के लिए मुख्य खतरा ईरान को बताया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक ईरान अपने समर्थित हथियारबंद गुटों- लेबनान में हिजबुल्लाह, यमन में हौथी, फिलिस्तीन में हमास व अन्य प्रतिरोध करने वाले समूह तथा इराक और सीरिया में हथियारबंद समूह के जरिये पश्चिम एशिया में शांति व सुरक्षा के लिए खतरा बनता है। रिपोर्ट ईरान के नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था, मानव अधिकारों और जनतंत्र के विरुद्ध होने का दावा करती है। 
    
अमरीकी साम्राज्यवादियों और उनके म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन के आयोजनकर्ताओं के लिए नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था का असली अर्थ यह है कि दुनिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों के वर्चस्व को स्वीकार किया गया। वे ही नियम तय करते हैं और दुनिया भर के देशों को अपने द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार चलने को मजबूर करते हैं। लेकिन अब उनकी पहले की तरह नहीं चल रही है, उनके बनाये नियमों के विरुद्ध लोग खड़े हो रहे हैं। इसलिए वे ऐसे खड़े होने वाले अड़ियल शासकों के विरुद्ध सत्तापलट कराते हैं। उन्हें नियम आधारित विश्व व्यवस्था के विरुद्ध घोषित करके यह किया जाता है। अमरीकी साम्राज्यवादी जनतंत्र और मानव अधिकारों की बात करते हैं लेकिन सबसे ज्यादा जनतंत्र विरोधियों और हत्यारों के साथ उनकी सांठगांठ रहती है। मानवाधिकारों की हत्या सबसे अधिक अमरीकी साम्राज्यवादी ही दुनिया भर में करते रहे हैं। 
    
अमरीकी साम्राज्यवादी और दुनिया भर के शोषक जनतंत्र, मानव अधिकारों का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के हिसाब से करते रहे हैं। कभी इसकी दुहाई देकर इनकी हत्या करते रहे हैं तो कभी चुपचाप। 
    
म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन की रिपोर्ट में सुरक्षा के खतरे के अन्य बिन्दुओं में एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन के आक्रामक रवैय्ये को बताया गया है। इसी प्रकार अफ्रीका के साहेल के इलाके में सैनिक तख्तापलटों को बताया गया है। 
    
एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों की भूमिका को, इस क्षेत्र के विभिन्न देशों में अमरीकी फौजी अड्डों की मौजूदगी को एक स्थायित्व लाने वाली ताकत के बतौर प्रकारान्तर से बताया गया है। 
    
यह एक हद तक सही भी है। यदि यथास्थिति बनी रहती है, दुनिया के किसी भी क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों के वर्चस्व को चुनौती नहीं मिलती तो ‘‘शांति’’ और ‘‘सुरक्षा’’ के लिए कोई खतरा नहीं होगा। लेकिन ऐसा सम्भव नहीं है। अमरीकी साम्राज्यवादियों की आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक ताकत पहले जैसी नहीं रही है। दुनिया भर में अन्य ताकतें बढ़ी हैं। वे अमरीकी साम्राज्यवादियों की धुन में न नाचने वालों को भी ताकत दे रही हैं। जैसे-जैसे अमरीकी साम्राज्यवादियों की आर्थिक ताकत वर्चस्वकारी नहीं रहती गयी है वैसे-वैसे उसे आर्थिक व राजनैतिक चुनौती मिलती गयी है। इस चुनौती को वह सैनिक ताकत के जरिए कुचलने की कोशिश करता रहा है। तब अशांति आती है, सुरक्षा के लिए खतरा पैदा होता है और अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था दरकने-टूटने की ओर जाने लगती है। 
    
आज पश्चिम एशिया में और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में यही हो रहा है। पश्चिम एशिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इजरायली गुर्गा पाला पोसा। उसे इस क्षेत्र की सबसे आधुनिक हथियारों से लैस शक्ति बना दिया। इसके साथ ही इस क्षेत्र की ताकतों के साथ अमरीकी साम्राज्यवादियों ने सांठगांठ के रिश्ते रखे। इन शासकों के स्वार्थों को एक हद तक रियायत देकर वहां की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था में अपना दखल बढ़ाया। यह मौटे तौर पर अभी तक चलता रहा है। हालांकि समय-समय पर इसका भी विरोध होता रहा है। लेकिन अब लम्बे समय के अंतराल के बाद फिलिस्तीनी प्रतिरोध उठ खड़ा हुआ है। उसके समर्थन में अलग-अलग देशों में प्रतिरोध संगठन खड़े हुए हैं। इन सबके साथ ईरान की हुकूमत अपने कारणों से अमेरिकी साम्राज्यवादियों के विरोध में व फिलिस्तीन के समर्थन में है। इस फिलिस्तीनी प्रतिरोध संघर्ष ने समूचे पश्चिम एशिया के समीकरणों में बदलाव की प्रक्रिया तेज कर दी है। 
    
अभी तक जिस फिलिस्तीनी समस्या को पश्चिमी एशिया की ताकतें और वैश्विक ताकतें नजरअंदाज कर रही थीं, बस समय-समय पर उसकी चर्चा भर करके रह जाती थीं, वह आज पश्चिमी एशिया की प्रमुख समस्या के बतौर खड़ी हो गयी है। इस समस्या को हल किये बगैर इस क्षेत्र की अन्य समस्याओं को हल करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। 
    
यह सभी क्षेत्रीय ताकतों को समझ में आने लगा है। लेकिन इजरायल की यहूदी नस्लवादी सत्ता और उसके आका अमरीकी साम्राज्यवादी अभी भी हमास और अन्य प्रतिरोध संगठनों का सफाया करना चाहते हैं। हालांकि अब यह उनकी भी समझ में आने लगा है कि हमास और अन्य प्रतिरोध संगठनों का सफाया करना सम्भव नहीं प्रतीत होता। 
    
दुनिया भर में अमरीकी साम्राज्यवादी इजरायल द्वारा गाजापट्टी में किये जाने वाले नरसंहार के मामले में अलगाव में पड़़ते जा रहे हैं। खुद अपने देश के भीतर जो बाइडेन का विरोध हो रहा है। इस चुनावी वर्ष में फिलिस्तीनियों के इस नरसंहार से अपने राजनीतिक नुकसान को देखकर अमरीकी साम्राज्यवादी किसी न किसी रूप में इजरायल और फिलिस्तीनियों के बीच युद्ध विराम कराना चाहते हैं। लेकिन इस वार्ता में एक युद्धरत पार्टी हमास व प्रतिरोध संगठन प्रत्यक्ष भागीदार नहीं हैं। 
    
अभी भी अमरीकी साम्राज्यवादी और इजरायली यहूदी नस्लवादी हुकूमत समझौते में यह चाहती हैं कि गाजापट्टी और पश्चिमी किनारे में हमास सत्ता में न रहे। इसके अतिरिक्त फिलिस्तीनी राज्य की अपनी कोई सेना न हो। वह इजरायली सेना के नियंत्रण में रहे। ऐसा फिलिस्तीनी राज्य जिसकी अपनी कोई संप्रभुता न हो, एक गुलाम राज्य होगा जिसे कोई भी फिलिस्तीनी नागरिक स्वीकार नहीं करेगा। 
    
म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन ऐसे ही इजरायल की छत्रछाया में बेहद कमजोर फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना के लिए जनमत बनाने के संघर्ष में अमरीकी साम्राज्यवादियों का हथियार बना हुआ है। 
    
चीनी प्रतिनिधि ने इस सम्मेलन में फिलिस्तीनियों द्वारा अपनी आजादी के लिए हथियारबंद संघर्ष चलाने को जायज कहा है।

(इस सम्मेलन में रूस और ईरान को नहीं बुलाया गया)

म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन

म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन 1963 में जर्मनी के म्यूनिख में शुरू हुआ। तब से हर वर्ष यह सम्मेलन म्यूनिख में आयोजित होता रहा है। इस सम्मेलन में शुरूआत से ही पश्चिमी साम्राज्यवादियों का वर्चस्व रहा है और शीत युद्ध के दौर में यह जर्मनी, अमेरिका व अन्य नाटो देशों के नेताओं की सालाना मुलाकातों का मंच बना रहा। इसमें आपसी सुरक्षा विवादों पर चर्चाओं के साथ शीत युद्ध में पश्चिमी साम्राज्यवादियों के पक्ष को मजबूत बनाने व सोवियत संघ को कमजोर करने के प्रयास होते रहे। हालांकि सम्मेलन अपना लक्ष्य दुनिया को विश्व युद्ध की ओर बढ़ने से रोकना व बातचीत से टकराव रोकना बताता रहा। इस सम्मेलन की स्थापना हिटलर की हत्या के षड्यंत्र के प्रयास में भागीदार रहे पूर्व जर्मन सैनिक इवाल्ड वॉन क्लिस्ट द्वारा की गयी थी। 
    
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों व रूस के नेता भी सम्मेलन में बुलाये जाने लगे। बाद में भारत, ब्राजील, ईरान, चीन जैसे देश भी सम्मेलन के भागीदार बनाये जाने लगे। इस तरह यह मंच यद्यपि अधिक अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करता गया पर इसका मूल स्वर पश्चिमी साम्राज्यवादियों के पक्ष का ही बना रहा। इसमें विभिन्न देशों के नेता, मंत्री, संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि, गैर सरकारी संगठनों, उद्योग, मीडिया, नागरिक समाज के प्रतिनिधि शामिल होते हैं। विभिन्न देशों की सरकारी-गैर सरकारी संस्थायें, कंपनियां इसको प्रायोजित करने में मदद करती हैं। वर्ष 2024 के सम्मेलन में रूस और ईरान को नहीं बुलाया गया। 

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

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