पिछले दिनों स्वामीनाथन एस. अंकलेसेरिया अय्यर के एक विचारोत्तजक लेख (‘इण्डियन नेशनेलिज्म एण्ड हिस्टोरिकल फैंटसी आफ ए गोल्डन हिन्दू पीरियड’) ने काफी सुर्खियां बटोरीं। लेख में काफी तर्कपूर्ण ढंग और आंकड़ों के जरिये यह साबित किया गया था कि भारत कभी भी अतीत में ‘‘सोने की चिड़िया’’ नहीं रहा है। और ऐसा समय कभी नहीं रहा जब भारत में दूध की नदियां बहती हों। और ‘‘हिन्दू काल’’ का हाल ‘‘मुस्लिम काल’’ अथवा ‘‘ब्रिटिश काल’’ (‘‘ईसाई काल’’) से बहुत बेहतर नहीं रहा है। भारत के इतिहास में जो कुछ बेहतर है (प्रति व्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा, जन्म-मृत्यु दर, साक्षरता अन्य मापदण्डों के अनुसार) वह भारत की आजादी के बाद ही शुरू हुआ है। स्वामीनाथन क्योंकि एक पूंजीवादी विद्वान व नई आर्थिक नीतियों के पैरोकार हैं अतः वे भारत के विकास के नये युग का आगाज नब्बे के दशक से देखते हैं।
भारत के इतिहास का ‘‘हिन्दू काल’’, ‘‘मुस्लिम काल’’ और ‘‘ब्रिटिश काल’’ के अनुसार बंटवारा वैज्ञानिक व सामाजिक विकास की दृष्टि से गलत है और साथ ही शरारत से भरा व तुच्छ समूहों के राजनैतिक हितों को साधने वाला है। स्वामीनाथन भारत के इतिहास के साम्प्रदायिक बंटवारे पर तो सवाल नहीं खड़ा करते हैं परन्तु वे अंगस मेड्डीसन के दीवाने भाजपा-संघ के प्रवक्ताओं की पोल इस आधार पर खोलते हैं कि असल में उसने कहा क्या था। अंगस मेड्डीसन के अध्ययन को आधार बनाकर ही वे संघ-भाजपा-मोदी के हिन्दू गौरव काल की पोल खोलते हैं। स्वामीनाथन का लेख ‘‘मियां की जूती मियां के सर’’ का अच्छा उदाहरण है। इस कहावत का अच्छा उदाहरण होने के बावजूद स्वामीनाथन एक तरह से भारत के इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या को स्वीकार कर लेते हैं।
भारत के इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या की शुरूवात औपनिवेशिक काल में ही शुरू हुयी और इसे हिन्दू, मुस्लिम व अन्य साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों और धूर्त विद्वानों ने हाथों-हाथ लपक लिया। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857-1859) के बाद ही भारत के इतिहास को धार्मिक-साम्प्रदायिक आधार पर बांटा जाने लगा। और एक काल की दूसरे काल के सापेक्ष तुलना करके अपने काल को श्रेष्ठ तथा दूसरे काल में अपने को पीड़ित के बतौर पेश किया जाने लगा। मोदी, भाजपा, संघ जब भारत की हजार या बारह सौ बरस की गुलामी की चर्चा करते हैं तो इसके पीछे इतिहास की यही धार्मिक-साम्प्रदायिक व्याख्या ही होती है। और आगे इसका मकसद ‘‘हिन्दू काल’’ के कथित गौरव की वापसी होती है।
क्या भारत के इतिहास को हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई आदि आधार पर बांटा और समझा जा सकता है? इसके साथ ही यह भी सवाल है वे लोग कौन हैं जो इतिहास की ऐसी ऊट पटांग व मनमानी व्याख्या करते हैं और उनके इसके पीछे क्या हित छुपे हुए हैं?
भारत के इतिहास को धार्मिक आधार पर बांट कर देखना असल में इतिहास को समग्र रूप में, वैज्ञानिक व ठोस आधार पर देखने के स्थान पर शासक वर्ग के धर्म के आधार पर देखना है। यह नजरिया एकतरफा व केवल कुछ तथ्यों को संज्ञान में लेकर मनमानी या मनचाही व्याख्या करता है।
भारत के संदर्भ में धार्मिक आधार पर व्याख्या की एक बड़ी समस्या यह भी है कि यह केवल और केवल दिल्ली को केन्द्र में रखकर उस पर कब्जा करने वाले सामंती राजाओं के आधार पर इतिहास पर धार्मिक काल का मुलम्मा चढ़ा देता है। भारत का इतिहास सिर्फ दिल्ली पर शासन करने वालों का इतिहास नहीं है। आज का भारत का राजनैतिक मानचित्र जैसा है वह ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से पहले एक राजनैतिक इकाई के रूप में कभी नहीं रहा। और इस रूप में देखा जाए तो दिल्ली में कब्जा करने वालों का प्रभाव बहुत से ऐसे क्षेत्रों में कभी नहीं रहा है जो आज भारत के हिस्से हैं। उत्तर-पूर्व भारत का अधिकांश हिस्सा औपनिवेशिक काल से पहले एकदम अछूता रहा और लाख कोशिशों के बावजूद देश के कई जनजातीय इलाकों में अंग्रेज अपना प्रभाव व कब्जा बना नहीं पाये। और जो बात ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के लिए सच है वह उससे कहीं-कहीं ज्यादा भारत के विशाल क्षेत्र में कब्जा करने वाले मौर्य वंश, गुप्त वंश अथवा मुगलों के लिए भी सच है। ये सभी राजा-महाराजा अपने-अपने दौर में बगावतों से गुजरते रहे। आपस में लड़ते रहे। ‘‘महान अशोक’’ या ‘‘महान अकबर’’ के जीवन का एक बड़ा हिस्सा अपने राज में बगावतों को दबाने अथवा पड़ोसी सामंती राजाओं से लड़ने में गुजरा है। मजे की बात यह है कि इन्हीं राजाओं के इतिहास को भारत के इतिहास अथवा किसी प्रांत के इतिहास के रूप में पेश कर दिया जाता है।
यह भी सच है कि तथाकथित ‘‘हिन्दू काल’’ अथवा ‘‘मुस्लिम काल’’ में ऐसा कभी नहीं रहा कि अन्य धर्मों को मानने वाले राजाओं का शासन न रहा हो।’’ ‘‘हिन्दू काल’’ के नाम पर ‘‘बौद्ध धर्म’’ को आधार बनाकर शासन करने वाले राजाओं को भी लपेट लिया जाता है। जबकि एक जमाने में हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म के राजाओं के बीच ही भीषण संघर्ष नहीं हुए बल्कि हिन्दू धर्म के विभिन्न पंथों और सम्प्रदाय को मानने वाले राजाओं ने भी एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध छेड़ा हुआ था। ‘‘हिन्दू काल’’ में भी अन्य धर्मों के राजा राज्य करते थे और ‘‘मुस्लिम काल’’ में भी अन्य धर्मों के राजाओं का विभिन्न क्षेत्रों में राज चलता था। सिक्ख धर्म का सैन्यीकरण तो मुगलों के खिलाफ लड़ने के दौरान ही हुआ।
फिर भारत का इतिहास सिर्फ राजाओं का इतिहास नहीं है। राजाओं के खिलाफ लड़ने वाली मेहनतकश जनता का अपना ही इतिहास रहा है। कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक भारत के इतिहास में किसान, दस्तकारों, मजदूरों, जनजातियों के अनेकोनेक संघर्ष हुए हैं। भारत में लम्बे समय तक इतिहास लेखन की परम्परा न होने और सिर्फ व सिर्फ राजाओं की झूठी-सच्ची कहानियों को गाने वाले भाण्डों के कारण भारत की मेहनतकश-शोषित-उत्पीड़ित जनता के संघर्षों का इतिहास ढंग से कभी प्रकाश में न आ सका। यह समस्या अतीत के संदर्भ में ही नहीं बल्कि भारत की आजादी की लड़ाई में मजदूरों, किसानों, जनजातियों के संघर्ष के संदर्भ में भी है। भारत का इतिहास सिर्फ राजाओं, दिल्ली में राज करने वालों का ही इतिहास नहीं है बल्कि वह किसानों-मजदूरों-दस्तकारों आदि शोषित-उत्पीड़ित मेहनतकशों के जीवन, उनके संघर्ष, उनकी संस्कृति, उनकी अपनी परम्पराओं का भी इतिहास है।
भारत के शोषित-उत्पीड़ित जन भारत के इतिहास और विरासत को किस रूप में लें? क्या उस इतिहास को स्वीकार लें जिसके प्रवक्ता शासक वर्ग का एक हिस्सा या दूसरा हिस्सा प्रस्तुत करते रहे हैं। ‘‘हिन्दू काल’’, ‘‘मुस्लिम काल’’, ‘‘ईसाई काल’’ के इतिहास की धारणा भारत के शोषित-उत्पीड़ित जनों की गुलामी पर पर्दा डाल देती है। उनके शोषण-उत्पीड़न को छुपा देती है। उनके संघर्षों को इतिहास में कोई स्थान नहीं देती है। अकारण ही नहीं है कि ‘‘हिन्दू काल’’ का गौरव-गान गाने वाले कभी भी इस बात की चर्चा नहीं करते हैं कि किस तरह का व्यवहार भारत की शूद्र कहीं जाने वाली मेहनतकश जातियों तथा स्त्रियों के साथ अतीत में होता रहा है। और यह आज भी ‘‘महान मोदी’’ के ‘‘हिन्दू गौरव काल’’ में जारी है। और इस बात की कोई संभावना नहीं है कि इनके ‘‘एक हजार साल’’ की राज करने की मंशा भारत में शोषित-उत्पीड़ित जनों को कोई राहत देगी बल्कि उलटे ये भारत को हिन्दू फासीवादी काली गुलामी की अंधी सुरंग में धकेल देंगे। इनका राज भारत के मजदूरों-मेहनतकशों, उत्पीड़ित जाति-जनजातियों, स्त्रियों-धार्मिक अल्पसंख्यकों आदि सभी के लिए काली गुलामी ले कर आयेगा।
ऐसे में, भारत के मजदूरों-मेहनतकशों, शोषित-उत्पीड़ितों के समक्ष बार-बार यह कार्यभार उपस्थित होता है कि वे इतिहास की झूठी व्याख्या को नकार दें। अतीत में किन्हीं के लिए भारत रहा होगा ‘‘सोने की चिड़िया’’ पर असल में भारत के मेहनतकशों के लिए भारत का इतिहास गुलामी दर गुलामी, संघर्ष दर संघर्ष का इतिहास है।
भारत का इतिहास सवाल दर सवाल
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।