इस समय भारत की पूंजीवादी राजनीति रोचक मोड़ पर है। इसमें रोचक घटनाएं हो रही हैं। इनमें से एक है भाजपा द्वारा कांगे्रस पार्टी के पुराने नेताओं का अधिग्रहण। सरदार पटेल और मदनमोहन मालवीय से शुरू कर यह अब नरसिंह राव तक पहुंच गया है। मजे की बात यह है कि इसमें मनमोहन सिंह को भी लपेटने की कोशिश की जा रही है। <br />
अभी भाजपा की ओर से बयान आया है कि 1991 में जो नई आर्थिक नीति लागू की गयी थी वह कांग्रेस पार्टी नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरसिंह राव और वित्तमंत्री मनमोहन सिंह की नीति थी। भाजपा का आशय यह है कि कांग्रेस पार्टी इन नीतियों के विरोध में थी और <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">कांग्रेस</span> पार्टी के उपरोक्त दोनों नेताओं ने अपनी पार्टी के विरोध में जाकर इन नीतियों को लागू किया था। इनमें अनकहा आशय यह भी है कि भाजपा इन नीतियों के पक्ष में थी। <br />
भाजपा द्वारा निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का यह तरह का श्रेय लेने का तथा इस प्रक्रिया में मनमोहन सिंह और नरसिंहराव के अधिग्रहण का यह प्रयास मजेदार है। यह गौरतलब है कि मनमोहन सिंह ने इन बातों के खंडन पर चुप्पी साध रखी है। यह भी गौरतलब है कि निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की रजत जयंती पर <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">कांग्रेस</span> पार्टी ने कोई खास उत्सव नहीं मनाया है। उसने एक तरह से चुप्पी धारण कर रखी है। <br />
देश के बड़े पूंजीपति वर्ग की इन दोनों प्रमुख पार्टियों की इस स्थिति को देखते हुए इन नीतियों के लागू होने की पृष्ठभूमि पर कुछ चर्चा करना फायदेमंद होगा। <br />
‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर 1971 के चुनावों में अपने विरोधियों को पटरा करने वाली इंदिरा गांधी जब आपातकाल के बाद 1980 में दोबारा सत्ता में लौटी तो उनका सुर बदल चुका था। उन्होंने 1981 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से अपमानजनक शर्तों पर कर्ज लिया तथा विदेशी पूंजी और मालों के लिए देश के दरवाजे खोले। उनकी हत्या के बाद जब उनके सुपुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ‘इक्कीसवीं सदी’ के नाम पर इस दरवाजे को और चैड़ा कर दिया। भारत का उपभोक्ता बाजार विदेशी मालों से चमचमाने लगा। <br />
लेकिन यह सब अभी तक पुरानी नीतियों के फ्रेमवर्क के भीतर ही हो रहा था। पुरानी नीतियां, जिन्हें नेहरूवादी नीतियां कहा जाता था और जिसे आज पूंजीपति वर्ग कभी समाजवादी नीतियां तथा कभी लाइसेंस-परमिट या इंस्पेक्टर राज कहता है, देश में विदेशी पूंजी और माल के आगमन पर नियंत्रण रखती थीं। इसी तरह देश के भीतर भी पूंजी के काम-काज पर सरकारी नियंत्रण था। अभी तक इंदिरा गांधी या राजीव गांधी सरकार ने जो किया था वह महज इस नियंत्रण में केवल कुछ ढील थी। <br />
पर इस ढील से पूंजीपति वर्ग बहुत खुश था और उसकी भूख-प्यास बहुत बढ़ गयी थी। उसे लगने लगा था कि देश के दरवाजे विदेशी पूंजी और माल के लिए खोलकर वह और ज्यादा मुनाफा कमा सकता है। इसी तरह वह अब देश के भीतर भी अपने ऊपर लगे प्रतिबंध पर छटपटा रहा था। <br />
नई आर्थिक नीतियों की इस स्वर्ण जयंती पर बहुत सारे लोगों के संस्मरण प्रकाशित हो रहे हैं। ये वे लोग हैं जो तब इस या उस रूप में इस नीतिगत बदलाव से जुड़े हुए थे। इन सभी लोगों का कहना है कि तब नौकरशाही में इस बात पर आम सहमति थी कि पुरानी नीतियां छोड़कर नई आर्थिक नीतियां अपनाई जायें। यह 1990 में ही हो चुका था। भुगतान संतुलन के संकट से भी पहले की बात थी। यानी 1991 में जो भी सरकार बनती, नीतियों में बदलाव तय था। <br />
सबसे बड़ा परिवर्तन तो स्वयं मनमोहन सिंह का था। अभी कुछ समय पहले ही उन्होंने साउथ कमीशन के सेक्रेटरी के तौर पर पिछड़े पूंजीवादी देशों के आपसी सहयोग तथा साम्राज्यवादी देशों के सामने तनकर खड़े होने की बात कही थी। अब वित्तमंत्री का पद संभालते ही उन्होंने इसकी ठीक उल्टी दिशा में कदम बढ़ा लिये। यानी वे भी आम सहमति में शामिल हो गये। <br />
इस आम सहमति का यह मतलब नहीं था कि इन नीतियों को लेकर कोई सवाल नहीं थे। सवाल थे, खासकर इन नीतियों की गति को लेकर। शुरूआती दौर में पूंजीपति वर्ग का एक हिस्सा विदेशी पूंजी के मुकाबले देशी पूंजी को ‘लेबेल प्लेयिंग फील्ड’ देने की बात कर रहा था। उसका आशय यह था कि देश के भीतर विदेशी पूंजी को ज्यादा सुविधाएं मिल रही हैं। <br />
स्वयं कांगे्रस पार्टी के भीतर एक धड़ा नेहरूवादी नीतियों के पूर्णतया त्याग को लेकर बहुत सहज नहीं था। इसी तरह भाजपा की मातृसंस्था आर.एस.एस. भी स्वदेशी जागरण मंच जैसी चीजों से अपनी असहजता व्यक्त कर रही थी। लेकिन यह सब एक सीमित दायरे में ही था। इन सबकी असहजता समय के साथ काफूर हो गयी। <br />
आज निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की रजत जयंती पर यह सभी के लिए स्पष्ट है कि नीतियोें में यह परिवर्तन देश के पूंजीपति वर्ग की जरूरत थी और उसे इसका भरपूर लाभ भी मिला। उसकी पूंजी दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ी। देश में अरबपति कुकरमुत्ते की तरह पैदा होने लगे। <br />
पर पूंजीपति वर्ग के मुनाफे में बेतहाशा वृद्धि के अलावा यदि अन्य मापदंडों पर कसें तो इन नीतियों की रजत जयंती पर क्या तस्वीर उभरती है? देश की पूंजीवादी संरचना में क्या परिवर्तन हुए हैं? भारतीय पूंजीवाद की वैश्विक पूंजीवाद में क्या हैसियत है? देश की बहुलांश आबादी की स्थिति क्या है?<br />
शासक पूंजीपति वर्ग का दावा था कि नई नीतियों से देश का तेजी से विकास होगा और वह जल्दी ही विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो जायेगा। विदेशी पूंजी अपने साथ विकसित तकनीक लेकर आयेगी और देश के पिछड़ेपन को दूर कर देगी। <br />
एक <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">चौ</span>थाई सदी बाद क्या स्थिति है? उत्पादन के स्तर पर भारत अभी भी एक पिछड़ा देश बना हुआ है। यह अलग बात है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपा से नवीनतम उपभोक्ता सामान देश के बाजार में उपलब्ध है। उत्पादन के क्षेत्र में जो विदेशी पूंजी आई वह या तो यहां की कंपनियों को खरीदने के लिए या फिर दूसरे-तीसरे दर्जे की तकनीक से उत्पादन करने के लिए। ज्यादातर विदेशी पूंजी तो शेयर बाजार के लिए ही आई।<br />
आज भी भारत का पूंजीपति वर्ग यह दावा नहीं कर सकता कि आर्थिक मामलों में उसकी वैश्विक हैसियत में कोई सुधार हुआ है। सकल घरेलू उत्पाद विश्व व्यापार के मामले में भी उसकी स्थिति पहले की तरह दयनीय बनी हुई है, प्रति व्यक्ति आय का तो कहना ही क्या? आज भी भारत निम्नस्तरीय मालों का ही निर्यात करता है। भारत की हैसियत चीन जैसी भी नहीं है जिसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने निर्यात आधार के तौर पर इस्तेमाल किया है। <br />
वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति में कोई भी सुधार केवल पूंजीवादी प्रचार मात्र है जो मोदी सरकार के काल में कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। इस प्रचार को कुछ साम्राज्यवादी संस्थाएं भी हवा दे रही हैं जिससे निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को और आगे बढ़ाया जा सके, तथाकथित आर्थिक सुधार और आगे बढ़ाये जा सके। अन्यथा तो जैसा कि आगे बात की जायेगी, भारत आज भी दुनिया के सबसे निचले पायदानों पर है। <br />
देश के भीतर पूंजीवादी संरचना पर बात करें तो इन नीतियों ने इस संरचना में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं किया। ऐसा नहीं हुआ कि देश की आर्थिक संरचना विकसित पूंजीवादी देशों यानी साम्राज्यवादी देशों की तरह होने लगी। इन नीतियों ने आर्थिक स्तर पर पुराने सामंती संबंधों के बचे-खुचे अवशेषों को तेजी से खत्म किया। पैसे और माल को उसने हर जगह स्थापित किया। सबसे बढ़कर इसने बेहद भौंडे़ उपभोक्तावाद को, उपभोक्ता संस्कृति को बड़े पैमाने पर प्रसारित किया। पर इसके अनुरूप संरचनागत परिवर्तन नहीं हुआ। <br />
सबसे बड़ी चीज रही है देश की विशाल आबादी का अभी भी खेती पर निर्भर रहना, जबकि समूची अर्थव्यवस्था में खेती लगातार हाशिये पर चलती गयी है। इन नीतियों के काल में खेती को नजरंदाज किया गया। परिणाम यह हुआ कि खेती में वृद्धि दर तेजी से घट गयी। खेती संकटग्रस्त हो गयी। इस संकटग्रस्त खेती को छोड़कर कहीं और जा सकने की स्थिति नहीं बनी क्योंकि औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार वृद्धि बहुत धीमी रही। रही-सही कसर संकटग्रस्त खेती के मशीनीकरण ने पूरी कर दी है। खेती में श्रम शक्ति की जरूरत बहुत कम हो गयी है। आज स्थिति यह है कि खेती में लगे लोगों का एक बड़ा हिस्सा खेती छोड़कर बाहर निकलना चाहता है पर उसके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है। जहां संभावना दिखती है, लोग बड़े पैमाने पर पलायन करते हैं। पंजाब, गुजरात और केरल इसके उदाहरण है। <br />
खेती की संकटग्रस्तता व उद्योग के ठहराव की इस स्थिति में जो भी गति है वह सेवा क्षेत्र में है। वास्तव में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण के इन सालों में इसी क्षेत्र में प्रगति हुई है। इसी में वृद्धि दर के कारण समूची अर्थव्यवस्था तेज गति से विकास करती दीख रही है। <br />
स्वयं इस सेवा क्षेत्र में सबसे ज्यादा विकास किसका है। वह है व्यापार यानी खरीद-बेच का, रीयल स्टेट यानी जमीनों के कारोबार का तथा वित्त का। खेती और उद्योग में उत्पादन भले ही न बढ़ रहा हो पर खरीद-बेच और पैसे का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। हां, इस खरीद-बेच में शिक्षा और स्वास्थ्य के कारोबार को भी शामिल कर लिया जाना चाहिए जो इस बीच खूब विकसित हुआ है। मजदूर-मेहनतकश जनता मुफ्त या सस्ती स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था से जितनी वंचित हुई है, इन क्षेत्रों का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान बढ़ता गया है। <br />
इन सबका परिणाम यह हुआ है कि भारत की अर्थव्यवस्था विकसित देशों जैसी तो नहीं बनी पर अजीब तरह की विकृतियों से और ज्यादा मर गयी। देश में आय की असमानता के साथ संरचनात्मक असमानता और ज्यादा बढ़ गयी। अब देश में एक ही साथ अटिल्ला में रहने वाला अंबानी तथा रेल पटरी के किनारे झुग्गी वाले मजदूर दोनों हैं। यही नहीं एक और वे हैं जो विकसित पूंजीवादी देशों की जीवन शैली के मालिक हैं जो अक्सर देश-विदेश में आवाजाही करते रहते हैं, तो दूसरी ओर वे हैं जो जंगलों में या उसके किनारे कंद-मूल और झूम खेती वाली प्राकृतिक अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं। एक ही देश में रहते हुए भी दोनों के बीच हजारों सालों का फासला हो गया है। <br />
देश में आम जीवन स्तर की बात करें तो जहां पूंजीपति वर्ग तेजी से ऊपर गया है वहीं देश की मजदूर-मेहनतकश आबादी सापेक्षतः नीचे गयी है। ढेर सारे लोगों का जीवन स्तर तो निरपेक्ष स्तर पर नीचे गया है यानी वे अपने पहले के जीवन के मुकाबले ही खराब जीवन जी रहे हैं। आबादी का एक छोटा सा मध्यमवर्गीय हिस्सा ही हैं जो पूंजीपति वर्ग से कुछ जूठन पाकर बेहतर जीवन जी रहा है। <br />
जब पूंजीपति वर्ग की सरकार ने 1991 में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को लागू किया तो इन नीतियों के सामाजिक आधार के लिए उसने इसी मध्यम वर्ग को लक्ष्य बनाया। पूंजीपति वर्ग को उम्मीद थी कि इस मुखर वर्ग को अपने साथ कर वह व्यापक मजदूर-मेहनतकश आबादी को भ्रम में डाल सकता है। वह इस वर्ग की थोड़ी-बहुत तरक्की को इस रूप में पेश कर सकता है कि समय के साथ बाकी आबादी का भी जीवन बेहतर हो जायेगा जबकि वास्तव में उसे और खराब होना था। <br />
कहना होगा कि पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार इस मामले में किसी हद तक सफल रहे। इन नीतियों का जितना तीखा प्रतिरोध होना चाहिए था वह नहीं हो पाया। लेकिन समय के साथ इन नीतियों का चरित्र व्यापक जनता के लिए स्पष्ट होता गया जिसकी एक परिणति कांग्रेस पार्टी के धूल-धूसरित होने से हुई। <br />
पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार आज भी हरचंद कोशिश कर रहे हैं कि लोग यह मान लें कि इन नीतियों ने मजदूर-मेहनतकश जनता की आबादी के जीवन स्तर को उठाया है। आज भी वे दावा कर रहे हैं कि एक भारी आबादी इन नीतियों की वजह से भूखमरी से बाहर आई। उपभोक्ता सामानों के प्रचार की ओर इंगित कर वे बताते हैं कि कैसे खुशहाली की वजह से लोग इनका इस्तेमाल कर रहे हैं। <br />
लेकिन सच्चाई है कि उनकी हर कोशिश पर पानी फेर देती है। कुछ साल गुजरते नहीं कि सरकार को एक नई कमेटी बनानी पड़ती है जो यह बताये कि भुखमरी की रेखा के नीचे कितने लोग जी रहे हैं। अभी मोदी सरकार ने भुखमरी की रेखा को तय करने के लिए एक नई कमेटी गठित की है। सरकार आंकड़ों का खेल चाहे जो करे पर यह सच्चाई है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी आज भी पेट भर खाना नहीं खा पा रही है। एक बड़ी आबादी यदि पा भी रही है तो वह कुपोषण से मुक्त नहीं है। इन्हीं सबका परिणाम है कि दुनियाभर के देशों की सूची में जीवन स्तर के हिसाब से भारत हमेशा निचले पायदानों पर रहता है। आज भी मानव सूचकांक में सवा सौ से ज्यादा देश भारत से आगे हैं। इन देशों में कंगाल अफ्रीकी देश भी शामिल हैं। पर बेशर्म पूंजीपति वर्ग इस सच्चाई को नजरंदाज कर अपनी तरक्की केे गीत गाता रहता है। उसे गाना भी चाहिए क्योंकि उसकी तरक्की तो हो ही रही है। उसकी दौलत तो दिन-दूना, रात-चौगुना बढ़ रही है। <br />
निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण के इस चौथाई सदी का मूल्यांकन करते हुए एक अन्य कोण से भी बात की जानी चाहिए। यही वह काल भी है जब देश में मंडल और कमंडल की राजनीति चरम पर रही है। एक और शासक वर्ग सरकारी नौकरियों में कटौती करता गया है। दूसरी ओर वह लगातार कम होती जाती नौकरियों में आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में संघर्ष को हवा देता गया है। इससे उसने अपने खिलाफ एकजुट जनता के संघर्ष को न होने देने में सफलता पाई है। आज आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में जितना संघर्ष है उसका बीसवां हिस्सा भी बेरोजगारी के खिलाफ नहीं है। यह शासक पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत ज्यादा फायदेमंद है। <br />
इसके साथ ही देश में जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इस बीच हुआ है उसने भी मजदूर-मेहनतकश जनता की एकता तोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की हैं। संघी हिन्दू सांप्रदायिकता का सारा उभार इसी काल की परिघटना है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उभार का नेतृत्व करने वाली भाजपा इन नीतियों की सबसे उत्साही समर्थक रही है। उसने कांग्रेस पर अपनी नीतियों की चोरी करने का भी आरोप लगाया था। यह कोई संयोग नहीं है कि ऐसी पार्टी को सत्ता में बैठाने के लिए पूंजीपति वर्ग ने 2014 के चुनावों में पूरा जोर लगा दिया था। पूंजीपति वर्ग का हिन्दू साम्प्रदायिकता में भले ही विश्वास न हो पर धर्म के नाम पर देश की मजदूर-मेहनतकश जनता में जरूर विश्वास है।<br />
ऐसा नहीं है कि निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ कोई संघर्ष नहीं रहा है। पर जो भी संघर्ष रहा है, वह बिखरा रहा है। उसने इन नीतियों की रफ्तार तो थामी है, पर न तो रोक सकी है और न ही पलट सकी है। <br />
इन नीतियों के खिलाफ एक बड़ा प्रतिरोध संगठित मजदूर वर्ग की ओर से हुआ है, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के अभिजात मजदूर वर्ग से। इन नीतियों ने इस अभिजात मजदूर वर्ग के वेतन-भत्ते और संगठन पर सीधे हमला बोला। ऐसे में इस संगठित मजदूर वर्ग की ओर से प्रतिरोध स्वाभाविक था। किसी हद तक यह प्रतिरोध प्रभावी रहा। यह इस मायने में पहले से मौजूद अभिजात मजदूरों के वेतन-भत्ते में ज्यादा कटौती नहीं की जा सकी। इसी तरह सरकार चाहकर भी श्रम कानूनों में परिवर्तन नहीं कर सकी। <br />
पर सरकार ने इस प्रतिरोध से निपटने का तरीका निकाल लिया। सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र में नई स्थाई भर्तियां या तो बंद कर दी गयीं या फिर बेहद सीमित कर दीं। ज्यादातर नई भर्तियां संविदा या ठेके पर होने लगीं। इससे समय के साथ अभिजात मजदूरों की संख्या कम होने लगी और उनका प्रतिरोध निष्प्रभावी होने लगा।<br />
इसी प्रकार सरकार ने निजी क्षेत्र में श्रम कानूनों को लागू करवाना बंद करवा दिया। बड़े निजी संस्थानों में भी ज्यादातर मजदूर असंगठित क्षेत्र के मजदूर बन गये। सारे श्रम कानूनों के संरक्षण से वंचित। <br />
अभिजात मजदूर वर्ग और उसमें काबिज पतित नेतृत्व के कारण इन नीतियों के खिलाफ वह संघर्ष विकसित नहीं हो सका जो हो सकता था। आज भी मजदूर वर्ग का बड़ा हिस्सा, जो इन नीतियों से सबसे ज्यादा त्रस्त है, इसका विरोध करने के लिए उद्यत है। पर मजदूर आंदोलन में काबिज नेतृत्व इस विरोध को लगातार हतोत्साहित करता रहता है। यह नेतृत्व पूंजीवादी पार्टियों से संबंद्ध है और वह मजदूर वर्ग को पूंजीपतिवर्ग के खिलाफ खड़े होने देने से रोकने का हरचंद प्रयास करेगा। <br />
निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का विरोध किसानों की ओर से हुआ है। जहां धनी किसानों के एक हिस्से ने इन नीतियों में अपनी संभावना देखी वहीं ज्यादातर इससे आशंकित थे। वैश्विक बाजार ने उनके ऊपर दबाब बनाया भी। ऐसे में धनी किसानों ने मध्यम व छोटे किसानों को साथ लेकर बड़े पूंजीपति वर्ग से कुछ सौदेबाजी करने की कोशिश की। एक समय उन्होंने कई विरोध प्रदर्शन आयोजित किये। पर समय के साथ ये विरोध प्रदर्शन ठंडे पड़ते गये। धनी किसानों ने इन नीतियों के साथ खुद को समायोजित कर लिया। <br />
पर छोटे-मझोले किसानों के साथ ऐसा नहीं हो सका। इन नीतियों की उस पर तीखी मार पड़ी। आज यह सबसे ज्यादा तीखे ढंग से इन किसानों की आत्महत्याओं में अभिव्यक्त हो रही है। <br />
इन नीतियों ने देश की आदिवासी आबादी को भी बुरी तरह से प्रभावित किया, खासकर मध्य भारत के खनिज सम्पदा वाले क्षेत्रों में। खनिज सम्पदा और जंगल-नदी की बेतहाशा लूट और दोहन के लिए पूंजीपति वर्ग ने जो कदम बढ़ाये उन्होंने इस आदिवासी आबादी के जीवन को संकट में डाल दिया। इस संकट ने उसको गांधीवादी से लेकर माओवादी संघर्ष तक की ओर धकेला। यह संघर्ष बहुत तीखा साबित हुआ और भारत सरकार उससे पार नहीं पा सकी है। <br />
दुर्भाग्यवश नयी नीतियों के खिलाफ चलने वाले ये सारे प्रतिरोध संघर्ष एक नहीं हो सके। वे एक सूत्र में नहीं गुंथ सके। यदि ऐसा होता तो इन नीतियों को काफी कुछ समेटा जा सकता था। <br />
अब जो स्थितियां बन चुकी हैं उनमें इन नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध संघर्ष से आगे जाकर इन नीतियों को पलटने की मांग प्रमुख हो चुकी है। लेकिन साथ ही यह भी है कि वैश्विक पूंजीवाद के इस दौर में इन नीतियों को सहज ही नहीं पलटा जा सकता। ग्रीस वगैरह का उदाहरण स्पष्ट तौर पर दिखाता है कि इसके लिए सीधे पूंजीपति वर्ग का शासन ही पलटना जरूरी है। वैश्वीकृत पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग के रहते उसके दायरे में इन नीतियों से मुक्ति की गुंजाइश नहीं है। अब हर हाल में मजदूर वर्ग की क्रांति ही एजेण्डे पर है। <br />
आज नहीं तो कल मजदूर वर्ग सचेत तौर पर इस एजेण्डे को अपना एजेण्डा बनायेगा।
निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की रजत जयंती
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।