नरभक्षियों का मांसाहार पर विलाप

संविधान हत्या दिवस

मोदी सरकार ने 25 जून को हर वर्ष ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने का निर्णय लिया है। 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू किया था। इस आपातकाल के दौरान नागरिकों के समस्त जनवादी व नागरिक अधिकार छीन लिये गये थे। लाखों बेकसूर नागरिकों को जेलों में ठूंस दिया गया था। प्रधानमंत्री मोदी ने आपातकाल को भारतीय इतिहास का काला दौर करार देते हुए कहा कि यह आपातकाल से उत्पीड़ित हर व्यक्ति को श्रद्धांजलि देने का दिन होगा। गृहमंत्री अमित शाह ने इस दिवस को मनाये जाने की घोषणा की और कहा कि उन लाखों लोगों के संघर्ष का सम्मान करने के उद््देश्य से यह निर्णय लिया गया है जिन्होंने आपातकाल की असह्य यातनाओं को सहते हुए लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए संघर्ष किया।
    
‘संविधान हत्या दिवस’ की घोषणा अगर कोई ऐसी सरकार करती जो जनवादी अधिकारों व नागरिक अधिकारों की रक्षा व विस्तार कर रही होती तो निश्चय ही यह स्वागत योग्य कदम होता। पर अफसोस की बात है कि ऐसा नहीं है। ‘संविधान हत्या दिवस’ की घोषणा ऐसी फासीवादी सरकार कर रही है जिसने बीते 10 वर्षों में हर दिन संविधान और जनवादी-नागरिक अधिकारों को कुचलने का काम किया है। ऐसी सरकार जिसका लक्ष्य ही यह है कि वह संविधान को बदलकर, समस्त जनवादी अधिकारों को छीन फासीवादी हिन्दू राष्ट्र कायम करेगी। ऐसी तानाशाही सरकार द्वारा आपातकाल पर विलाप कुछ कुछ वैसा ही है जैसे कोई नरभक्षियों का समूह अतीत में मांसाहारी लोगों द्वारा किये अत्याचारों पर विलाप करे। 
    
मोदी सरकार को न तो संविधान प्रदत्त जनवादी अधिकारों से कोई लेना-देना है और न ही उसे नागरिकों के जनवादी-नागरिक अधिकारों की कोई चिन्ता है। उसका बीते 10 वर्षों का शासन सभी अधिकारों को कुचलने का रहा है। तब फिर ‘संविधान हत्या दिवस’ के जरिये वह क्या हासिल करना चाहती है? दरअसल हालिया लोकसभा चुनाव में मिली शिकस्त से तिलमिलायी यह सरकार इस दिवस के जरिये विपक्षी पार्टी कांग्रेस को उसके अतीत के कारनामों के लिए घेरना चाहती है। वह यह दिखाने का पाखण्ड करना चाहती है कि उसे तो लोकतंत्र की बड़ी चिंता है पर कांग्रेसी लोकतंत्र व संविधान को कुचलने वाले रहे हैं।
    
बीते चुनाव में विपक्षी इंडिया गठबंधन ने हाथ में संविधान की किताब पकड़कर मोदी-शाह की भाजपा को पूर्ण बहुमत से दूर कर दिया था। अब इस दिवस की घोषणा कर हर दिन संविधान को लात लगाती सरकार खुद को संविधान का पुजारी साबित करने का पाखण्ड कर रही है। 
    
मोदी सरकार की इस घोषणा पर सपा मुखिया अखिलेश यादव ने मोदी सरकार के कुकर्मों से पैदा हुए 15 दिवसों की याद दिलाते हुए कहा कि सरकार इनकी घोषणा कब करेगी? अखिलेश यादव ने 30 जनवरी को ‘बापू हत्या दिवस’ व ‘लोकतंत्र हत्या दिवस’ मनाने की मांग करने के साथ मणिपुर में महिलाओं के मान-अपमान हत्या दिवस, हाथरस की बेटी हत्या दिवस, लखीमपुर में किसान हत्या दिवस, तीन काले कानूनों से कृषि हत्या दिवस, पेपर लीक, बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, नोटबंदी-जीएसटी, पुरानी पेंशन के खात्मे आदि पर दिवस मनाने की मांग करते हुए मोदी सरकार को उसके कुकर्मों की याद दिलायी। 
    
वहीं कांग्रेस ने सरकार को घेरते हुए इस घोषणा को हेडलाइन बनाने का प्रयास घोषित कर दिया। कांग्रेस ने कहा कि संविधान की जगह मुनस्मृति को स्थापित करने को उत्सुक लोग ‘संविधान हत्या दिवस’ घोषित कर रहे हैं। 
    

जहां तक देश की मजदूर-मेहनतकश जनता का सवाल है तो इस पूंजीवादी संविधान के सहारे बीते 75 वर्षों में उसका हर दिन हर क्षण क्रूर निर्मम शोषण-उत्पीड़न होता रहा है। 1975 में इंदिरा के आपातकाल ने उससे नाम मात्र के जनवादी अधिकार भी छीन लिये थे। और बीते 10 वर्षों में कायम मोदी सरकार के काले कारनामे देश को निर्मम फासीवादी तानाशाही की ओर ले जाकर मजदूरों-मेहनतकशों के शोषण-उत्पीड़न को बढ़ाने के वर्ष रहे हैं। आज उसके बचे-खुचे जनवादी अधिकारों को सबसे बड़ा खतरा फासीवादी सरकार से है। बीते 10 वर्षों से कायम हुए अघोषित आपातकाल का दंश हर शोषित उत्पीड़ित समुदाय झेल रहा है। 
    
ऐसे में मजदूर-मेहनतकश जनता को पूंजीवादी संविधान के पुजारी कांग्रेसी और ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाते फासीवादियों दोनों से खतरा है। दोनों ही उसकी लूट-शोषण को बढ़ाने वाले रहे हैं। मजदूर-मेहनतकश इन दोनों से पल्ला छुड़ाकर अपनी स्वतंत्र क्रांतिकारी पहलकदमी लेकर ही अपनी बढ़ती लूट का मुकाबला कर सकते हैं।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।