पूंजीपतियों का न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि से विरोध

    पिछले दिनों भारत में सरकारी व निजी कम्पनियों में ठेकाकरण तेजी से बढ़ा है। एक अनुमान के मुताबिक भारत के निजी क्षेत्र में 30 प्रतिशत उद्योगों में 32 प्रतिशत श्रमिक ठेके पर कार्यरत हैं। इन ठेके पर रखे मजदूरों को जहां निजी क्षेत्र में न्यूनतम मजदूरी तक नहीं दी जाती वहीं सरकारी उद्योगों में सालों काम करने के बाद महज न्यूनतम मजदूरी पर ही गुजारा करना पड़ता है।<br />
    न्यूनतम मजदूरी की दरें भी भारत में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं, ये 3500 से लेकर 9000रु.तक हैं। ऐसे में बेहद कम वेतन पर श्रमिकों का गुजारा असम्भव होता जा रहा है। परिणामतः लम्बे समय से पूरे देश में न्यूनतम मजदूरी बढ़ाये जाने की मांग संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की प्रमुख मांग बन गयी है। मजदूरों के दबाव में व्यवस्थापरस्त ट्रेड यूनियन सेण्टर भी न्यूनतम मजदूरी 15,000रु. करे जाने की मांग उठाते रहे हैं। <br />
    इस मांग के दबाव में पिछले दिनों जैसे ही सरकार ने न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर दस हजार रु. करने की बात पर चर्चा शुरू की वैसे ही देश के पूंजीपतियों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया। उद्योगों के प्रतिनिधियों का कहना था कि दस हजार रु. न्यूनतम मजदूरी करने से बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म हो जायेंगे और भारत औद्योगिक विकास की राह से भटक जायेगा। न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि से इनके अनुसार भारत का श्रम बाजार महंगा हो जायेगा और परिणामतः निर्यात होने वाले उत्पाद महंगे होकर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कम प्रतिस्पर्धी रह जायेंगे।<br />
    मैट्रिक्स क्लोदिंग लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर ने सरकार से इस नोटिफिकेशन पर पुनर्विचार की मांग की। अलग-अलग राज्यों की न्यूनतम मजदूरी अलग-अलग होने को जायज ठहराते हुए उद्योगों के मालिकों के अनुसार मजदूरी जीवन निर्वाह के साधनों की कीमतों व मांग व आपूर्ति पर निर्भर होनी चाहिए।<br />
    डाबर के वरिष्ठ डायरेक्टर सुधाकर का कहना था कि 10,000 रु. मजदूरी होने पर कम्पनी का प्रति मजदूर खर्च 15,990 रु. हो जायेगा, क्योंकि कम्पनी को पी.एफ., बोनस व अन्य सुविधायें देनी पड़ती हैं। भारतीय उद्योगों के संघ (CII) ने इस मुद्दे पर श्रम मंत्रालय से एक बैठक बुलाने की मांग की। सी.आई.आई. के एक सदस्य के अनुसार मजदूरी बढ़ने से कम्पनियां रोजगार घटा आटोमेशन की ओर बढ़ेंगी। इसलिए मजदूरी नहीं बढ़ाई जानी चाहिए।<br />
    देश के पूंजीपतियों के ऐसे स्वर मजदूरों को कहीं से भी धोखे में नहीं डाल सकते। मजदूर अपने रोज के जीवन से जानते हैं कि कारखानों में उनको दी जाने वाली मजदूरी उत्पाद की कीमत का नाम मात्र हिस्सा होता है। इसलिए अगर उनकी मजदूरी बढ़ेगी तो उत्पाद की कीमत नहीं बढ़ेगी। हां, मालिकों का मुनाफा जरूर थोड़ा कम हो जायेगा। देश के विकास से लेकर आटोमेशन तक के सारे तर्क लफ्फाजी भरे हैं। दरअसल मजदूरों के शोषण से होने वाले मुनाफे में कोई कटौती नहीं चाहते हैं इसीलिए वे इतना हल्ला काट रहे हैं।<br />
    कम्पनी के अरबों-खरबों के मुनाफों के आगे मजदूरों के दो वक्त के भरपेट भोजन लायक तक न्यूनतम वेतन न होने को कोई भी नाइंसाफी का दर्जा देगा। पर हमारे देश के पूंजीपतियों को इसमें कोई अन्याय नहीं दिखता। <br />
    वास्तविकता यह है कि असंगठित क्षेत्र के साथ ढेरों संगठित क्षेत्र के निजी संस्थानों में पूंजीपति न्यूनतम मजदूरी तक देने को तैयार नहीं है। वे मजदूरों से 4-5 हजार रु. में 12-12 घण्टे काम करवा रहे  हैं। सरकार व श्रम विभाग तक इस सब पर आंख मूंदे बैठी है या फिर पूंजीपतियों के साथ खड़ी है। फिर भी जरूरी है कि न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि की मांग उठायी जाए। और हर जगह इसे लागू कराने के लिए संघर्ष किया जाये।

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

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इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी। 

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

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