आजकल जब किसी मोदी समर्थक से पूछा जाता है कि मोदी के विकास के वादों का क्या हुआ तो वह देश भर में बनी नयी सड़कों की ओर ईशारा करता है और कहता है कि देखो विकास तो हो रहा है। देश भर में हो रही सड़कों के निर्माण से कई मोदी विरोधी भी प्रभावित होते हैं और अनिच्छा से कहते हैं कि कुछ तो हो रहा है।
विकास का यह मापदंड अजीब है पर आम लोगों के लिए यह मापदंड है। और विकास का यह मापदंड आज से नहीं है। मोदी के दिल्ली की गद्दी पर बैठने से पहले भी, यहां तक कि कांग्रेस के जमाने में भी विकास का यह मापदंड हुआ करता था। जब किसी गांव में पक्की सड़क बन जाती थी तो लोगों को लगता था कि विकास अब उस गांव तक भी पहुंच गया है।
विकास के इस मापदंड की बात करते समय लोग बस इतना भूल जाते हैं कि इस मापदंड पर देश में विकास अंग्रेजों के जमाने से हो रहा है। यह अंग्रेज ही थे जिन्होंने विकास की शुरूवात भारत में की क्योंकि देश में पक्की सड़कों का निर्माण उन्होंने ही शुरू किया। उसके पहले देश की सारी सड़कें कच्ची थीं और बारिश के मौसम में कीचड़ और पानी के गड्ढों से इतनी भर जाती थीं कि उन पर पैदल चलना भी मुश्किल हो जाता था।
इतिहासकारों के लिए यह आज भी रहस्य है कि भारत में पक्की सड़कों का निर्माण क्यों नहीं हुआ? अशोक के जमाने से ही जिस ग्रैण्ड ट्रंक रोड का जिक्र मिलता है उसे भी अशोक या बाद में शेरशाह सूरी अथवा अकबर ने पक्का क्यों नहीं करवाया? इन तीनों शासकों द्वारा इस सड़क की मरम्मत कराने का जिक्र मिलता है पर उनके द्वारा इसे पक्का कराने का नहीं, इसके भी पहले जिन उत्तरापथ और दक्षिणापथ का जिक्र मिलता है (गौतम बुद्ध के जमाने से) वे भी कच्ची ही थीं। इसीलिए बौद्ध भिक्षु बारिश के चार महीने किसी एक जगह बिताते थे जबकि बाकी सारे साल वे घूमते रहते थे।
बहरहाल, यह भारतीय इतिहास का सच है कि देश में इधर से उधर काफी यातायात के बावजूद अंग्रेजों के आने से पहले यहां पक्की सड़कें नहीं थीं। उन्होंने ही यहां पक्की सड़कें बनवानी शुरू कीं- पहले ईंट-पत्थर की और फिर डामर की। 1850 के बाद में उन्होंने देश में रेल बिछाने का काम भी शुरू किया। इसलिए यदि देश में पक्की सड़कों के निर्माण को विकास का मापदंड माना जाये तो भारत में विकास अंग्रेजों ने शुरू किया। और 1947 में जब अंग्रेज यहां से गये तब तक उन्होंने काफी विकास कर दिया था।
इसी तरह आजादी के बाद की कांग्रेसी सरकारों ने भी काफी विकास किया। राष्ट्रीय राजमार्ग, प्रादेशिक राजमार्ग से लेकर जिला सड़क और ग्राम सड़क तक का सारा नेटवर्क कांग्रेसी सरकारों के राज में ही खड़ा हुआ। देश के उत्तर-पश्चिमी, पश्चिमी तथा दक्षिणी हिस्सों में सन् 2000 से पहले ही सड़कों की अच्छी व्यवस्था कायम हो गई थी। इस मामले में खस्ताहालत देश के उत्तरी हिस्से में ही थी। ऐसे में आज मोदी और उनके समर्थक जो दिन-रात कहते रहते हैं कि कांग्रेसी राज में कोई विकास नहीं हुआ, स्वयं उन्हीं के मापदंड पर गलत साबित हो जाता है।
‘देश में साठ सालों में कोई विकास नहीं हुआ’ की धुन में मोदी और उनके समर्थक वाजपेयी सरकार के काल को भी समेट लेते हैं। मोदी का कद ऊंचा उठाने के लिए नेहरू, इंदिरा और राजीव ही नहीं, संघ परिवार के ‘मुखौटा’ प्रधानमंत्री वाजपेयी का कद नीचा करना जरूरी हो जाता है। हकीकत यह है कि देश में स्वर्ण चतुर्भुज योजना की शुरूवात वाजपेयी द्वारा की गई। इसके तहत देश के चारों कोनों को एक नयी सड़क से जोड़ना था। इसी के साथ इन्हें राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा करके (दो के बदले चार लेन) उनसे जोड़ना था। प्रादेशिक राजमार्गों को भी चौड़ा करना था। इस तरह वाजपेयी ने बहुत विकास किया बल्कि विकास का एक नया चरण भी शुरू किया। मोदी उसी की बची-खुची चीजों को आगे बढ़ा रहे हैं और विकास की वाहवाही लूट रहे हैं।
इस संक्षिप्त से ऐतिहासिक सर्वेक्षण से स्पष्ट है कि विकास के सड़क वाले मापदंड से आज कोई खास विकास नहीं हो पा रहा है। पिछले दो सौ सालों से यह विकास हो रहा है और आगे भी होता जायेगा। इसकी सीधी सी वजह यह है कि इस विकास का संबंध पूंजीवाद के विकास से है। पूंजीवाद में राज्य सत्ता पर चाहे जो काबिज हो (राजा, तानाशाह या राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री) उसे सड़क का या ज्यादा व्यापक तौर पर बात करें तो यातायात के साधनों का विकास करना ही पड़ेगा। इसके बिना पूंजीवाद का विकास नहीं हो सकता।
पूंजीवाद के पहले जो सामंती व्यवस्था थी उसमें अर्थव्यवस्था स्थानीय किस्म की होती थी। उसमें जो चीजें पैदा होती थीं वे ज्यादातर स्थानीय स्तर पर ही खप जाती थीं। केवल थोड़ी सी चीजें ही व्यापार के लिए बाहर जाती थीं। यह किसी देश के भीतर के लिए सच था और देश के बाहर के लिए भी।
भारत की बात करें तो भारत के गांव ज्यादातर आत्मनिर्भर थे। केवल नमक, लोहा इत्यादि थोड़ी सी चीजें ही बाहर से गांव में आती थीं। गांव से बाहर भी थोड़ा सा अनाज, कपड़ा इत्यादि जाता था। कुछ व्यापारी ले जाते थे- स्थानीय हाट-बाजार से और बाकी राजा के कारिंदे - कर के रूप में। भारत का विदेशों से व्यापार हड़प्पा की सभ्यता के जमाने से ही था- पश्चिम एशिया और भूमध्य सागरीय देशों से। पर यह सीमित स्तर का ही था। इसमें बड़ा उछाल व्यापारिक पूंजीवाद के जमाने से आना शुरू हुआ जब यूरोपीय व्यापारिक कंपनियां भारत में आईं।
पूंजीवाद ने सामंती अर्थव्यवस्था की इस स्थानीयता को तोड़ा। इसने एक देश के भीतर आर्थिक एकीकरण किया यानी देश के विभिन्न हिस्सों को आर्थिक तौर पर आपस में जोड़ दिया। इसी के साथ इसने दुनिया के विभिन्न हिस्सों को भी आपस में आर्थिक तौर पर जोड़ा। समय के साथ यह दोनों एकीकरण -बाहरी और भीतरी दोनों- ज्यादा व्यापक और सघन होता गया। इसमें यातायात के साधनों का विकास प्रमुख चीज थी। (बाद में दूर संचार के साधनों- टेलीग्राफ, टेलीफोन, इंटरनेट इत्यादि के विकास का भी)।
पूंजीवाद के विकास के शुरूआती दिनों में यानी व्यापारिक पूंजीवाद के जमाने में (पन्द्रहवीं-सत्रहवीं सदी) यातायात के साधन पुराने ही थे। पानी के जहाज पुरानी किस्म के थे और जमीन पर चलने वाली घोड़ा-गाड़ी या बैलगाड़ी थी। पर जब अठारहवीं सदी में भाप के इंजन यातायात के साधनों में इस्तेमाल होने लगे तब से स्थिति तेजी से बदल गई। भाप के इंजन वाले पानी के जहाज तथा रेलगाड़़ी अस्तित्व में आ गये। इससे यातायात की गति और ढुलाई की मात्रा दोनों बढ़ गये। अब बहुत कम समय में भारी मात्रा में लोग और सामान इधर से उधर आ जा सकते थे।
उन्नीसवीं सदी के अंत में जब मोटर-गाड़ियां बनने लगीं तब यातायात में और तेजी आई। यूरोप में डामर वाली पक्की सड़कें अठारहवीं सदी से ही बनने लगी थीं। अब उनके निर्माण में और तेजी आई। बीसवीं सदी की शुरूआत तक यूरोप-अमेरिका में यातयात के क्षेत्र में क्रांति सम्पन्न हो चुकी थी हालांकि भारत जैसे देशों में इनकी एक तरह से शुरूआत ही थी। यूरोप-अमेरिका में यातायात के क्षेत्र में विकास का अगला चरण बीसवीं सदी के दूसरे दशक में हवाई जहाज के आगमन के साथ हुआ। पानी के जहाज, मोटरगाड़ियां व रेल तथा हवाई जहाज आज भी यातायात के तीन प्रमुख स्रोत हैं। जहां पहला देशों के बीच तथा दूसरे देशों के भीतर यातायात का साधन है वहीं तीसरा देश के भीतर और बाहर दोनों। आज इन तीनों के मामले में ही भारी विकास हो गया है।
जैसा कि पहले कहा गया है यातायात के साधनों के विकास के बिना पूंजीवाद का विकास नहीं हो सकता था। पूंजीवाद में चीजें स्वयं उपभोग करने के लिए नहीं बल्कि बेचने के लिए पैदा की जाती हैं। और यह बात हर चीज पर लागू होती है। हर चीज माल बन जाती है। यहां तक कि श्रमिक की काम करने की क्षमता या श्रम शक्ति भी माल बन जाती है। मालों की खरीद-बेच के लिए क्रमशः दायरे का विस्तार होता चला जाता है। मजदूर पहले आस-पास काम करता है, फिर दूर-दराज जाता है और अंततः देश के बाहर भी चला जाता है। इसी तरह चीजें पहले आस-पास बेची जाती हैं, फिर दूर-दराज और अंततः देश के बाहर। माल बनाने के लिए जो कच्चा माल चाहिए होता है वह पहले आस-पास से खरीदा जाता है, फिर दूर-दराज से और अंततः देश के बाहर से। बाद में जब उत्पादन में मशीनों का इस्तेमाल शुरू हो जाता है तो मशीनों की खरीद-बेच के मामले में यही होता है।
यातायात के लगातार विकास के बिना यह सब नहीं हो सकता। अन्यथा बाजार स्थानीय बना रहेगा और केवल थोड़़ी मात्रा में ही खरीद-बेच संभव हो पायेगी। ठीक इसी कारण से पूंजीवाद का विकास भी नहीं हो पायेगा क्योंकि पूंजीवाद सार्विक खरीद-बेच और बाजार की मांग करता है।
यातायात के साधनों का विकास पूंजीवाद के विकास के लिए जरूरी है। पर यह भारी पैसे या पूंजी की मांग करता है। इसीलिए इतिहास में अक्सर ही यह सरकारों द्वारा किया जाता है। पुराने सामंती जमाने या उससे भी पहले सड़कें बनवाने और उनके रख रखाव का काम राजा या अन्य शासक करते थे और बदले में कर वसूलते थे। पूंजीवादी जमाने में यह सरकारी या गैर-सरकारी अथवा सार्वजनिक व निजी दोनों तरीकों से होता रहा है। सड़कों-रेलों का निर्माण दोनों तरीकों से होता रहा हालांकि अक्सर ही अंत में सरकारें इनको अपने हाथ में लेकर संचालित करती रहीं। इसके मुकाबले पानी के जहाज या हवाई जहाज ज्यादातर निजी रहे। हां, हवाई अड्डा व हवाई पट्टी सरकारी या निजी दोनों रहे।
भारत में अंग्रेजों के जमाने से ही सड़कें, रेल और हवाई अड्डे सरकारी रहे। सरकारें ही इन्हें बनवाती रहीं और रखरखाव करती रहीं। रेलगाड़ियां सरकारी रहीं जबकि ज्यादातर मोटर गाड़ियां निजी। निजीकरण के दौर से पहले हवाई जहाज भी सरकारी रहे। अब उदारीकरण-निजीकरण के तहत सरकार इन सभी का निजीकरण कर रही है- किसी का कम तो किसी का ज्यादा। सड़कें पीपीपी के तहत बन रही हैं। हवाई अड्डे निजी क्षेत्र को सौंपे जा रहे हैं तथा बंदरगाह भी। एअर इंडिया का निजीकरण किया जा चुका है। रेलवे क्षेत्र में क्रमशः निजीकरण की ओर बढ़ा जा रहा है।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि यातायात के साधनों का विकास पूंजीवाद के विकास का सामान्य हिस्सा है बल्कि यह उसकी शर्त है। अब सवाल उठता है कि इस विकास से किसे फायदा होता है? इसका सीधा सा उत्तर है कि इसका फायदा वही उठाते हैं जो आम तौर पर पूंजीवाद में सारे विकास का फायदा उठाते हैं यानी पूंजीपति। जब गांव का एक भूमिहीन या छोटा किसान मजदूरी करने के लिए सौ-दो सौ किमी दूर या हजार-दो हजार किमी दूर अथवा समुद्र पार के देश में चला जाता है तो ऊपरी तौर पर लगता है कि यातायात के साधन उसकी मदद कर रहे हैं। वह उनके कारण कहीं जाकर काम करने तथा इस तरह अपना और अपने परिवार का पेट पालने में सक्षम हो जाता है। इसलिए उसे यातायात के साधनों का शुक्रिया अदा करना चाहिए। पूंजीपति वर्ग इसे इसी रूप में पेश करता है।
पर यहां यह सवाल पैदा होता है कि गांव के भूमिहीन या छोटे किसान को इसकी जरूरत पड़ती ही क्यों है? वह पहले की तरह गांव में ही अपना पेट पालने में अब सफल क्यों नहीं हो पाता? क्यों वह गांव से पलायन करने के लिए मजबूर होता है? इसलिए कि पूंजीवाद के उसी विकास ने गांव में उसके रोजगार के साधन या अवसर उससे छीन लिए हैं। गांव में जो विकास पहुंचा उसने वहां गरीबों को उनकी जीविका से वंचित कर दिया। गांव के इस विकास में यातायात के साधनों की भी भूमिका थी।
इस तरह विकास का परिणाम यह हुआ कि भूमिहीन या छोटा-मझोला किसान अब मजदूर बन गया। और चूंकि गांवों में बहुत ज्यादा मजदूरों को काम मिलने की गुंजाइश नहीं होती इसलिए उसे मजबूरन गांव से बाहर निकलना पड़ता है। उसे परदेशी बनना पड़ता है- कभी अकेले तो कभी सपरिवार। भारत में सौ साल पहले इस परिघटना की अभिव्यक्ति बहुत दर्दनाक लोकगीतों में हुई।
कोई कह सकता है कि इसी विकास के कारण गांवों तक बहुत सारी वे चीजें पहुंची जो पहले वहां नहीं थीं। इसी तरह शहरों में भी मजदूरों और गरीबों को बहुत सारी चीजें उपभोग के लिए मिलीं। आजकल लोग अक्सर ही मजदूरों के हाथ में स्मार्ट फोन दिखाकर इसे साबित करते हैं।
यह सच है कि पूंजीवाद के विकास के साथ पूरे समाज का स्तर ऊंचा उठा है। नयी-नयी चीजें उपभोग के दायरे में आई हैं और आगे भी आयेंगी। आज सारे लोग कपड़ा पहन सकते हैं और गेहूं-चावल खा सकते हैं (भले ही सरकारी राशन से)। पचास साल पहले तक भारत में यह नहीं था।
पर उपभोग से मिलने वाली संतुष्टि कोई निरपेक्ष चीज नहीं है। वह सापेक्षिक चीज है। समय के साथ कुछ चीजें अनिवार्य जरूरत बन जाती हैं। जैसे आजकल स्मार्ट फोन ऐसी जरूरत बन गया है जिसके बिना मजदूर भी काम नहीं पा सकता। उपभोग की संतुष्टि इससे तय होती है बाकी लोगों के मुकाबले व्यक्ति विशेष की उपभोग की क्या अवस्था है। एक्सप्रेस वे के किनारे बसे गरीब लोग उस पर गर्व नहीं करेंगे बल्कि कुढ़ेंगे। अपने सर पर से गुजरने वाले हवाई जहाज से किसी भी गरीब को विकास का एहसास नहीं होता। उलटे उसे वंचना का अहसास होता है। चार लेन वाली चमचमाती सड़क पर ठुंसी हुयी निजी बस में चलते एक गरीब व्यक्ति को सरपट भागी जा रही कारों को देखकर भारी कुढ़न होती है। इन सड़कों पर जब बेरोजगार मजदूर घर लौटता है तो जरा भी ध्यान नहीं देता कि सड़क कितनी चमचमा रही है।
इनके ठीक विपरीत जो लोग पूंजीवाद के विकास का फायदा उठाते हैं, उनकी बात और है। इसमें पूंजीपति ही नहीं, उच्च मध्यम वर्गीय लोग भी आते हैं। जब ये लोग नयी बनी चौड़ी सड़कों पर अपनी एसी कार में तेज गति से चलते हैं तो विकास को अपने भीतर महसूस करते हैं। जब छोटे-मझोले व्यवसायियों का सामान आसानी से इधर से उधर पहुंच जाता है उन्हें भी विकास का एहसास होता है। जरूरत पड़ने पर फटाफट टिकट बुक करा कर हवाई जहाज में उड़ जाने वाले को हवाई क्षेत्र के निजीकरण का फायदा ही फायदा दिखाई देगा भले ही इसकी ज्यादातर कीमत सरकार उन लोगों से वसूले जो कभी हवाई यात्रा नहीं करेंगे।
पूंजीवाद में हमेशा से यही होता रहा है। इसमें विकास का सारा लाभ चंद लोग (मुश्किल से दस प्रतिशत और अक्सर ही पांच प्रतिशत से कम) उठाते रहे हैं। धन-सम्पदा की सारी बढ़ोत्तरी उन्हीं की जेबों में जाती रही है। ज्यादातर लोग उनके मुकाबले और गरीब होते रहे हैं। आज भी यही हो रहा है।
सड़कें बन रही हैं। विकास हो रहा है। पर यह विकास इन्हीं सड़कों से चलकर चंद लोगों की जेबों में कैद हो रहा है। असल सवाल यही है कि विकास को सबके विकास में कैसे तब्दील किया जाये?