आंकड़ों की एक और बाजीगरी

भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़ों की विश्वसनीयता पर पिछले कुछ समय से सवाल उठने शुरू हो गये हैं। आज सरकार अलग-अलग तरह के हेर-फेर के जरिए अपने मनमाफिक आंकड़े जुटाने में लगी रहती है। ऐसा ही कुछ अभी जारी पी एल एफ एस (2021-22) के आंकड़ों के साथ हुआ है। हर वर्ष जारी होने वाले ये आंकड़े देश में रोजगार की स्थिति का विवरण देते हैं।

2020-21 के पी एल एफ एस के आंकड़ों द्वारा सरकार अपनी पीठ कुछ इस तरह थपथपा रही है कि देश में महिलाओं का कामगार आबादी में प्रतिशत बढ़ रहा है। पी एल एफ एस के आंकड़े दिखाते हैं कि महिलाओं की श्रम बल (लेबर फोर्स) में हिस्सेदारी 2017-18 के 17.5 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 24.8 प्रतिशत हो गयी है। भारत में महिलाओं की रोजगार में हिस्सेदारी दुनिया में सबसे निचले स्तर पर रही है। ऐसे में ये आंकड़े वास्तव में देश के भीतर घटित हो रहे किसी सामाजिक आर्थिक बदलाव के संकेतक हो सकते थे।

लेकिन आंकड़ों की बारीकी से जांच करें तो पता चलता है कि ग्रामीण महिलाओं की लेबर फोर्स में हिस्सेदारी 2017-18 के 18.2 प्रतिशत से बढ़कर 2020-21 में 27.7 प्रतिशत और 2021-22 में 27.2 प्रतिशत हो गयी है। इस बदलाव में ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक गतिविधियों में आए किसी परिवर्तन की उतनी भूमिका नहीं है जितनी कि सर्वे में इस्तेमाल की जा रही परिभाषाओं में परिवर्तन की। महिलाएं ईंधन आदि के लिए जलावन आदि इकट्ठा करने का जो काम करती हैं उसे पहले घरेलू काम का हिस्सा माना जाता था और इस काम या इस तरह के अन्य काम करने पर उन्हें लेबर फोर्स में नहीं गिना जाता था। अब यह कह कर कि वे इस तरह के काम के जरिए घर के व्यय को कम करती हैं, उन्हें लेबर फोर्स में शामिल करने के लिए परिभाषाओं में बदलाव किया गया है। इस तरह से परिभाषा में कुछ फेरबदल कर महिलाओं की लेबर फोर्स में भागीदारी में भारी उछाल का आंकड़ा हासिल कर लिया गया है। अब न तो महिलाओं को दमघोंटू घरेलू काम से आजाद कराने की जरूरत है और न ही अर्थव्यवस्था के रोजगार विहीन होने की समस्या पर बात करने की जरूरत है।

लेबर फोर्स में भागीदारी संबंधी परिभाषाओं में फेरबदल के दो और असर इन आंकड़ों पर दिखाई दे रहे हैं। रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी 2018-19 के 42.5 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 45.5 प्रतिशत हो गयी है। मैन्युफैक्चरिंग का रोजगार में हिस्सा 2018-19 के 12.1 प्रतिशत से गिरकर 2021-22 में 11.6 प्रतिशत हो गया है। अब ये ऐसे आंकड़े हैं जिस पर सरकार अपनी पीठ नहीं थपथपा सकती। इसलिए इन पर चुप्पी मारना सरकार के लिए सबसे सुरक्षित है। ऐसे ही रोजगार में नौकरी का अनुपात घटा है और स्वरोजगार का अनुपात बढ़ा है। यह सभी परिभाषा के एक फेरबदल के अनचाहे गणितीय परिणाम हैं। किसी हद तक भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट भी इसके लिए जिम्मेदार है।

भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी महामारी पूर्व के स्तर को हासिल नहीं कर पाई है। महामारी से पहले भी अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं थी। ऐसे में ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का नारा लगाने वाली सरकार के पास आंकड़ों की बाजीगरी के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को