उच्चतम न्यायालय की सात सदस्यों की संविधान पीठ ने अपने बहुमत (6-1) से यह फैसला दिया कि 'राज्य अनुसूचित जाति (एससी) व अनुसूचित जनजाति (एसटी) के भीतर एक तार्किक व्यवस्था के तहत आरक्षण को उप-वर्गीकृत कर सकते हैं। इस फैसले को लेकर खूब हंगामा मचा हुआ है।
इस फैसले का खास अर्थ यह है कि उच्चतम न्यायालय अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को एक समांग समूह (कैटेगरी) के रूप में नहीं देखता है। उच्चतम न्यायालय का यह फैसला अपने पूर्व में दिए गए फैसलों के उलट है। 2004 में उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह फैसला दिया था कि सरकारें आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को उप-वर्गीकृत (सब-कैटगरी) नहीं कर सकती हैं। 2020 में यह मामला जब फिर उठा तो उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर विचार करने के लिए एक बड़ी पीठ मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में बना दी थी। यह फैसला उसी पीठ का है।
उच्चतम न्यायालय की 7 सदस्यीय पीठ के बहुमत के फैसले ने समाज में एक घमासान छेड़ दिया है। कोई इस फैसले का स्वागत कर रहा है तो कोई खुलेआम विरोध कर रहा है। 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' को कई नेता अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के बीच फूट डालने की साजिश के तौर पर देख रहे हैं। तो कुछ नेता इसे अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के भीतर अप्रत्यक्ष तौर पर कुछ जातियों को 'क्रीमी लेयर' के तहत लाकर उन्हें आरक्षण के बड़े लाभ से वंचित करने के रूप में देख रहे हैं। कुछ के हिसाब से अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के अति पिछड़ों को इस उप-वर्गीकरण से लाभ होगा।
'आरक्षण के भीतर आरक्षण' आरक्षण के सिद्धांत की स्वाभाविक, तार्किक व कानूनी परिणती है। उच्चतम न्यायालय ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने में दशकों लगा दिए हैं। जबकि तर्क के अनुसार और कानूनी नुक्तेबाजी यही कहती है कि यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था। उच्चतम न्यायालय तर्क और कानून व समाज की स्थिति को देखते हुए और आगे जाता तो उसे 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' और उसके भी भीतर आरक्षण की व्यवस्था महिलाओं के लिए करनी चाहिए थी। क्योंकि यह एक सामान्य सी बात है कि महिलाएं हर समुदाय, हर जाति, हर जनजाति में बहुत-बहुत पिछड़ी हैं। शिक्षा व सरकारी नौकरियों में वे अपनी ही जाति, जनजाति व समुदाय के मामले में काफी पिछड़ी हुई हैं। 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' और उसके भी भीतर आरक्षण ही उच्चतम न्यायालय के इस फैसले की तार्किक व कानूनी परिणती होनी चाहिए थी। उच्चतम न्यायालय को ऐसा करने से किसने और किस चीज ने रोका? वैसे कई राज्यों में जातिगत आधार पर नहीं तो महिला होने के आधार पर क्षेतिज आरक्षण की व्यवस्था है। जाहिर है ऐसी स्थिति में लाभ सवर्ण जातियां ही अधिक उठा सकती हैं।
'आरक्षण के भीतर आरक्षण' का मूल विरोध उन नेताओं की ओर से मुखर रूप से आया है जो अपने आप को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का समग्र तौर पर नेता मानते हैं। इन नेताओं में चिराग पासवान, रामदास अठावले जैसे सत्ताधारी नेता हैं तो प्रमुख दलित राजनेता मायावती भी हैं। वे इस फैसले को 'फूट डालो और राज करो' की श्रेणी में रखते हैं। इन नेताओं के सामने मुख्य समस्या अपने वोट बैंक के, इस फैसले के कारण छितर जाने की है।
इस फैसले से उन जातिगत आधार वाले नेताओं को भी कुछ समस्या है जो मानते हैं कि इस बंटवारे से अब तक जो लाभ आगे बढ़े हुए उनकी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लोगों को मिल रहा है वह कम हो जाएगा। और वे वंचित रह जाएंगे। उनका वर्चस्व टूट जाएगा और नेतृत्व सीमित हो जाएगा।
इसी तरह से इस वक्त आमतौर पर चुप लगाकर बैठी भाजपा इसमें अपना खास कुछ फायदे (अलग-अलग राज्यों में) और अपनी हिंदू फासीवादी परियोजना के आम नुकसान के रूप में देख रही है। 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' के लिए समाज में विभिन्न जातियों के संघर्ष छिड़ने से उसकी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को झटका लगेगा। इंडिया गठबंधन इस फैसले को अपने लिए एक अवसर के रूप में देख रहा है।
आरक्षण के संदर्भ में सामाजिक हकीकत यही है कि पिछले तीन दशकों से जारी 'उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण' की नीतियों ने इसके लाभ से आरक्षित जातियों-जनजातियों को अप्रत्यक्ष ढंग से वंचित कर दिया है। सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र में लंबे समय से छंटनी जारी है और काम को ठेके में देने की प्रथा जोर-शोर से जारी है। स्थाई काम के स्थान पर अस्थायी, संविदा ठेके पर काम की प्रथा है। और केंद्र व राज्य सरकार के कई विभागों में ग्रुप डी की नौकरियां खत्म कर दी गई हैं। केंद्र व राज्य सरकारें विभिन्न न्यायालयों द्वारा स्थाई नौकरी या न्यूनतम वेतन से संबंधित फैसलों को लागू ही नहीं करते हैं। ऐसे में 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' से रोजगार की मौजूदा स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आने वाला है।
केंद्र व राज्य सरकारों का रवैया है कि स्थाई रोजगार मत दो और जहां कहीं भी भर्ती करो वहां नौकरी अल्पकालिक हो, संविदा या ठेके पर हो; का नतीजा यही निकल रहा है कि आरक्षण बेमानी हो गया है।
आज आरक्षण या 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' तब कुछ अर्थ रख सकता है जब शासक वर्ग की 'उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण' की नीति खत्म हो और सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र में छंटनी की कार्रवाई बंद हो और बड़े पैमाने पर नियुक्तियां हों। निजी क्षेत्र, सेना में भी आरक्षण लागू हो।
शिक्षा के क्षेत्र में भी निजीकरण की प्रक्रिया खत्म हो। निजी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों आदि सभी का सरकारीकरण हो।
साथ ही आरक्षण या 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' तब कुछ कारगर हो सकता है जब देश के भीतर व्यापक व सटीक जाति गणना हो। जाति गणना के साथ आर्थिक स्थिति का सटीक मूल्यांकन हो। तदनुरूप नीतियों का निर्माण हो।
भारतीय समाज में लंबे समय से आरक्षण ने एक सकारात्मक योगदान दिया है। सवर्ण जातियों के शिक्षा व नौकरियों में वर्चस्व को तोड़ने में एक हद तक सार्थक भूमिका निभाई। यह भूमिका नई आर्थिक नीतियों के साथ सीमित से सीमित होती चली गई है। अब आरक्षण पहले की तरह भूमिका निभाने के स्थान पर राजनैतिक हथकंडा और राजनैतिक कैरियर बनाने के लिए आतुर चतुर राजनेताओं का हथियार बन गया है। शासक वर्ग की पार्टियों के लिए यह अपने वोट बैंक को बनाने और एकजुट रखने का जरिया बन गया है। भारत की संसद में बैठी लगभग सारी पार्टियां नई आर्थिक नीतियों का समर्थन करती रही हैं।
आरक्षण के जरिये शासक वर्ग ने अपने आधार का विस्तार किया है और उन जातियों-उप जातियों में एक छोटे से हिस्से को अपने वर्ग में शामिल किया और एक मध्य वर्ग को तैयार किया। 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' इसी प्रक्रिया को आज के संदर्भ में थोड़ा सा विस्तार और दे देगा। हकीकत में आरक्षण इस विस्तार के साथ करोड़ों लोगों को झूठी आशा में बांधता है कि उनके बीच से भी कोई भी आरक्षण का लाभ पाकर अफसर बन सकता है। अच्छी सरकारी नौकरी व अच्छी शिक्षा पा सकता है। इसका एक परिणाम यह निकलता है कि विभिन्न जातियों के मजदूर-मेहनतकश अपनी-अपनी जाति के खोल में चिपटे रहते हैं। जाति-समाज की राजनीति व गोलबंदी में फंसे रहते हैं। और उससे भी बुरी बात यह है कि वे धूर्त, महत्वाकांक्षी पूंजीवादी राजनेताओं के पिछलग्गू व अनुचर बने रहते हैं। 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' इस चुनावी राजनैतिक प्रक्रिया को और आगे अपनी अंतिम सीमा तक ले जाएगा।
आज कोई एक राजनेता अपनी जाति विशेष का ठेकेदार बन जाता है और इस आधार पर वह विभिन्न स्थापित बड़ी पार्टियों से सौदेबाजी करने की हैसियत प्राप्त कर लेता है। और उन्हें ठीक ही मजबूर करता है कि सत्ता में उन्हें भी भागीदारी दें। पिछले दो दशक में यह प्रक्रिया तेज हुई है अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ों में विभिन्न उपजातियों के नेता उभरे हैं और वे कुशलतापूर्वक अपनी चाहत पूरी कर ले रहे हैं। 'आरक्षण के भीतर आरक्षण' इस प्रक्रिया को आगे ले जाएगा। इसमें वही जातियां कामयाब होंगी जिनका संख्या बल चुनावी राजनीति के हिसाब से कुछ महत्व रखेगा अन्यथा अन्यों के लिए इस जाति-राजनीति का कुछ खास अर्थ नहीं होगा। वे अपनी पिछड़ी व अपेक्षा की अवस्था में ही पड़े रहेंगे।
भारत के मजदूर-किसानों व अन्य मेहनतकशों के हित यह मांग कर रहे हैं कि हम वर्तमान पूंजी व्यवस्था और उसके संचालकों से चार कदम आगे की सोचें। इनके विचारधारात्मक-राजनीतिक सोच को एक किनारे रखकर बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, महंगी व आंखों में पर्दा डालने वाली वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के असली कारणों को तलाशें। यह तलाश स्वाभाविक रूप से हमें इस निष्कर्ष पर ले जाएगी कि यह पूंजीवादी व्यवस्था ही है जो हमारी समस्याओं के मूल कारणों में है। यदि इस व्यवस्था के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था कायम की जाए तो हमारी सभी बुनियादी समस्याओं का समाधान हो सकता है। और फिर आरक्षण जैसे प्रावधानों की आवश्यकता नहीं होगी। समाजवादी समाज हर व्यक्ति की शिक्षा की नि:शुल्क व्यवस्था कर सकता है। हर व्यक्ति जहां तक शिक्षित होना चाहे वहां तक शिक्षा पा सकता है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो ज्ञान को उत्पादन, विज्ञान व समाजवादी सिद्धांतों से जोड़े।
और रोजगार के संदर्भ में नीति हो सकती है कि 'हर व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार काम दिया और काम के अनुसार वेतन दिया जाए'।
शिक्षा, रोजगार में जाति, नस्ल, लिंग, राष्ट्रीयता किसी भी आधार पर भेदभाव न किया जाए। उन सब के उत्थान के लिए विशेष प्रयास और उपाय समाजवादी समाज को करने होंगे जो ऐतिहासिक रूप से पिछड़े रहे हैं। इसके तहत समाजवादी राज्य को अपने संसाधनों के इस्तेमाल में विशेष ध्यान देना व सावधानी बरतनी होगी। क्योंकि समाजवादी व्यवस्था में शासक स्वयं मजदूर और मेहनतकश किसान होंगे अतः वहां पूंजीवादी व्यवस्था की तरह झूठी-खोखली भरमाने वाली नीतियां और तौर-तरीके नहीं होंगे। उन्हें अपनी मुक्ति की योजना स्वयं ही बनानी और लागू करनी होगी।
जहां तक जाति व्यवस्था के उन्मूलन का सवाल है वह वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था और खासकर उसकी राजनैतिक प्रणाली व सामंती मूल्यों को पालने वाली सामाजिक संस्कृति के कारण नहीं हो सकती है। जाति व्यवस्था का सामाजिक, वैचारिक व राजनैतिक व कुछ आर्थिक आधार पूंजीवादी समाज में बना ही रहता है। एक रूप में यह बार-बार पुनर्जीवन पाता रहता है। समाजवादी समाज एक ऐसी सामाजिक स्थिति तैयार करेगा जहां जाति अतीत की वस्तु बन जाएगी। जातिगत भेदभाव व उत्पीड़न का सामूल नाश हो जाएगा।