राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरगना मोहन भागवत ने आरक्षण पर अपना नकाब हटा लिया। खुलेआम आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा की वकालत करके उन्होंने दिखा दिया कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सिर्फ सवर्ण मानसिकता से संचालित और ओतप्रोत है। केवल संघ ही नहीं शिवसेना जैसे दक्षिणपंथी गिरोह भी संघ सरगना की हां में हां मिला रहे हैं। यह पुनः एक उदाहरण है कि संघ हिन्दू ब्राह्मणवादी व्यवस्था का ही प्रशंसक है और उसको स्थापित करना चाहता है। <br />
उसका दलितों में खिचड़ी भोज और आदिवासियों में काम उसकी इस हिन्दू ब्राह्मणवादी सोच और मानसिकता को छिपा नहीं सकता। सच तो यही है कि वे जातिवादी व्यवस्था को खत्म नहीं करना चाहते वरन् उसे मजबूत बनाये रखना चाहते हैं। वे ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था के हिसाब से इस देश की सामाजिक संरचना को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं, जो पूंजीवादी विकास और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध होेने वाले सामाजिक आंदोलनों व सामाजिक संघर्षों के परिणामस्वरूप कमजोर हुयी है। <br />
संघ यूं ही प्रतिक्रियावादी संगठन नहीं है। वह केवल धार्मिक मामलों में ही इतिहास को पीछे ले जाना नहीं चाहता वरन् जाति और वर्ण के मामले में भी समाज को पीछे ले जाना चाहता है। संघ का ‘रामराज्य’ धार्मिक अल्पसंख्यकों व शूद्र और अस्पृश्य जातियों की गुलामी पर आधारित है। संघ की राजनीतिक पार्टी भाजपा भी ऐसा ही ‘रामराज्य’ लाना चाहती है परन्तु ‘वोट की राजनीति’ और ‘पूंजीवादी जनवाद’ उसके मार्ग में विभिन्न रुकावटों में से एक है। इसलिए भाजपा को जब तब मुखौटा लगाना पड़ता है अन्यथा ‘भागवत कथा’ और ‘मोदी कथा’ में कोई फर्क नहीं है। <br />
संघ परिवार (मय उसके सभी आनुषांगिक संगठनों के) में उच्च पदों पर बैठे ज्यादातर लोग सवर्ण व उच्च जातियों से ही आते हैं। भाजपा के बिहार में हाल में ही घोषित प्रत्याशियों में सबसे बड़ी संख्या सवर्ण प्रत्याशियों की है। यह सब यही बताता है कि पूरी संघी जमात का सामाजिक आधार मूलतः सवर्ण जातियां हैं। पिछड़े, दलित व आदिवासी यदि संघी मंडली में हैं भी तो इसलिए कि चुनावी राजनीति में वोट की मजबूरी भाजपा जैसे आनुषांगिक संगठनों को इसके लिए बाध्य करती है या फिर इसके कारण कि वे अपने धर्म को त्याग कर अन्य धर्म न अपना लें। उन्हें ऐसा करने के लिए इसलिए भी मजबूर होना पड़ा कि पिछड़े व दलित समुदाय के उभार ने विभिन्न क्षेत्रों में इन जातियों को प्रभावशाली भी बनाया। ऐसे में संघी गिरोह को अपना फैलाव करने के लिए इन जातियों में काम करना पड़ा। <br />
यह बात सच है कि आरक्षण की व्यवस्था ने पिछड़ों व दलितों को सामाजिक रूप से उठाने में मदद की है। पूंजीवादी व्यवस्था में इन समूहों के लोगों ने अवसरों का लाभ भी उठाया। इसका परिणाम यह हुआ कि पिछड़ी व दलित जातियों में विभेदीकरण हुआ। कुछ लोग सामाजिक रूप से ऊपर उठ गये परन्तु बाकी लोग वही जलालत भरी दरिद्रता में रहने को अभिशप्त हैं। पूंजीवादी व्यवस्था ने दूसरी ओर सवर्ण जातियों में भी वर्ग विभेदीकरण को जन्म दिया। सवर्णों का बहुत बड़ा हिस्सा वर्णच्युत होकर मजदूरों की पांतों में आ गया। रुग्ण पूंजीवादी व्यवस्था में अवसरों की कमी के चलते आरक्षण टकराव का विषय बन गया। सवर्णों को अपना हक छिनता हुआ लग रहा है और पिछड़े व दलित आरक्षण को अपना अधिकार मानते हैं। <br />
पिछड़े व दलितों की सामाजिक स्थिति के जिस उन्नयन के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी उसने एक हद तक परिणाम भी दिये। परन्तु गांवों व पिछड़े इलाकों और यहां तक कि राज्य सत्ता के विभिन्न अंगों तक में इन जातियों के साथ सामाजिक भेदभाव आज भी जारी है। ऐसे में आरक्षण की समीक्षा के नाम पर आरक्षण खत्म करने की यह साजिश है। भाजपा के सत्ताशीन होने के बाद संघ परिवार हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करके अपने मनमुताबिक सामाजिक संरचना का पुनर्गठन करने की कोशिशें कर रहा हैै। संघ परिवार व अन्य दक्षिणपंथी संगठनों की ऐसी साजिशें समाज में पिछड़ों व दलितों को उसी नर्क में बनाये रखने का षडयंत्र है। <br />
बिना भारतीय समाज के यथार्थ को बदले ‘भागवत कथा’ आरक्षण को खत्म नहीं कर सकती है। ऐसे वक्तव्य संघी गिरोह की मंशा को जरूर बताते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आरक्षण की व्यवस्था अनन्तकाल तक नहीं चल सकती। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि समाज से उन कारणों को खत्म किया जाये जिसके कारण आरक्षण का अधिकार शूद्रों व अस्प्रश्य जातियों को दिया गया था। अन्यथा की स्थिति में इन संगठनों के मंसूबों का कड़ा प्रतिकार होना ही है।<br />
गरीब सवर्णों को भी शिक्षा, रोजगार मिलना चाहिए। शिक्षा और रोजगार पाना उनका अधिकार है। परन्तु सवर्ण जातियों के इन गरीब हिस्सों का यह अधिकार किसने छीना है? दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों ने या फिर पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति अटूट श्रृद्धा रखने वाली मोदी व उनकी जैसी पूर्ववर्ती सरकारों ने। यह पूंजीवादी व्यवस्था ही है और जिस पर संघी गिरोह का पूरा भरोसा है, जिस के कारण शिक्षा व रोजगार के अवसरों की इतनी कमी है। संघी मण्डली(जो एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों व साम्राज्यवादी अमेरिका गिरोह का सच्चा सेवक है) को यह दिखाई नहीं देता कि उसका प्यादा जिन आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ा रहा है उससे किसानों की बहुत बड़ी तादाद और मध्य वर्ग भी अपनी रोजी रोटी से हाथ धो रहा है। निजीकरण के समर्थक इस संघी मण्डली के कारण ही आज गरीब सवर्ण न तो महंगी शिक्षा ले पा रहे हैं और न ही चिकित्सीय सेवायें। संघी गिरोह को गरीब सवर्णों से ज्यादा अडाणियों, अम्बानियों और अपने अमेरिकी आकाओं व इस्राइली मित्रों की चिंता है। <br />
संघी गिरोह अपनी तादाद बढ़ाने के लिए ऐसी बकवास करते हैं अन्यथा उन्हें न तो धर्म से मतलब है और न ही जाति से। वे तो धर्म और जाति की राजनीति करते हैं और ऐसा करके एकाधिकारी घरानों व साम्राज्यवादियों की सेवा करते हैं। यहां तक कि उन्हें देश से भी मतलब नहीं है। इन शब्दों का इस्तेमाल वे अपने मंसूबों को छिपाने के लिए करते हैं क्योंकि उन्हें अपने वास्तविक रूप में आने में डर लगता है। संघी मण्डली में लफ्फाजी झूठ, विरोधाभासी बातें करने के माहिर उस्ताद हैं। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से बेलगाम हो गये हैं।
आरक्षण पर ‘भागवत’ कथा
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।