सितम्बर माह में तीन दिन तक नई दिल्ली के विज्ञान भवन में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के प्रमुख मोहन भागवत के भाषण और सवाल-जवाब, यह बताने को पर्याप्त हैं कि फासीवादी संगठन कैसे अपना रूप बदलने में माहिर होते हैं। वे इस बात में माहिर होते हैं कि कैसे धोखा दिया जाये। कैसे बातें छुपायी जायें। और कैसे अवसर की प्रतीक्षा की जाये। <br />
कोई कह सकता है कि आज का संघ वही नहीं है जो हेडगेवार और गोलवलकर के समय था। ऊपरी तौर पर देखने पर यह बात सही है। संघ की ड्रेस में कुछ बदलाव हो गये। नागपुर में भगवे की जगह तिरंगा लहराने लगा। कुछ ऐसी ही और बातें। कोई और कह सकता है कि मोहन भागवत ने आरक्षण, समलैंगिकता आदि में ही संघ के विचार नहीं बदले बल्कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि वह भारतीय संविधान को मानते हैं। <br />
विज्ञान भवन में कही गयी बातों की तुलना कोई मोहन भागवत के कुछ समय पूर्व के बयान से करें तो क्या पायेगा। मोहन भागवत ने कहा था कि संघ के लिए एकमात्र हिन्दू राष्ट्र का विचार अपरिवर्तनीय है बाकी सब कुछ परिवर्तनीय है। इस बात का क्या अर्थ है। इस बात का यह अर्थ है कि संघ का यह मूल व असीम सिद्धान्त है। यही उसका लक्ष्य है। और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वह कोई भी रणनीति, रणकौशल अपना सकता है। कुछ भी कर सकता और कुछ भी कह सकता है। एक ही सांस में सच और झूठ बोल सकता है। वह आधुनिक भी बन सकता है, ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ भी बन सकता है पर अपने मध्ययुगीन कूपमंडूकता से भरे हिन्दू राष्ट्र के सिद्धान्त को नहीं त्याग सकता है।<br />
यदि किसी को और संदेह हो तो वह कुछ समय पहले की बातों को याद कर सकता है जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी संघ के कार्यक्रम में जाकर उन्हें संवैधानिक देशभक्ति-राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ा रहे थे। तो उस वक्त मोहन भागवत ने दम्भपूर्ण घोषणा की थी कि ‘संघ संघ रहेगा और प्रणव दा प्रणव दा रहेंगे’। यानी संघ न बदला था न बदलेगा। <br />
इसी संदर्भ में विनायक दामोदर सावरकर को जिन्हें संघी भाजपा वीर मानते हैं (ऐसे वीर थे जिन्होंने कालेपानी की सजा पाने के बाद अंग्रेजों से माफी मांगी और वायदा किया कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कोई काम नहीं करेंगे और जीवन के अंत तक अपने वायदे पर कायम रहे।) के विचारों को याद रख लेने की जरूरत है। उन्होंने कहा था कि उनका लक्ष्य है ‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण’। क्या संघ यही सब कुछ नहीं करना चाहता है। जब संघ के लठैत सड़कों पर करतब दिखाते फिरते हैं और संघ प्रमुख कहते हैं कि वे तीन दिन में सेना खड़ी कर सकते हैं जबकि भारतीय सेना को छः माह लग जायेंगे’ तो इसका क्या अर्थ है। संघ एक शुद्ध हिन्दू फासिस्ट संगठन है। इसके अलावा इसकी कोई और व्याख्या न अतीत में हो सकती थी और न भविष्य में हो सकेगी। <br />
यह हिन्दू फासिस्ट संगठन यदि अपने रूप-रंग में परिवर्तन कर रहा है तो यह इसकी मजबूरी है। यदि आरक्षण, समलैंगिकता इत्यादि मामलों में अपनी बातें बदल रहा है तो इसकी घबराहट है। वह मजबूर है कि वह अपने फासीवादी जहर को भारत के आम जन के गले में उतारने के लिए उस पर कुछ शक्कर का लेप लगाये। बोले कि वह अंतर्जातीय विवाह का समर्थक है। वह आरक्षण का समर्थक है। वह महिलाओं की बराबरी, आजादी का समर्थक है। <br />
संघ की मजबूरी यह है कि भारत एक विशाल देश है जहां कई धर्मों को मानने वालों की विशाल आबादी है। मुस्लिम आबादी हमारे यहां कई देशां की आबादी से ज्यादा है और यहां तक कि इण्डोनेशिया के बाद सबसे ज्यादा है। यही बात ईसाई, सिक्ख आदि पर भी है कि उनकी संख्या करोड़ों में है। यहां हजारों किस्म के रीति-रिवाज, मान्यतायें, खान-पान की आदतें, वेशभूषा व भाषाएं-बोलियां हैं। एक ऐसा देश है जहां कोई राष्ट्र नहीं बल्कि कई-कई राष्ट्रीयताएं हैं। एक बहुराष्ट्रीय देश का एक राष्ट्र में बदलना असम्भव है। <br />
संघ की मजबूरी यह है कि वह जिन हिन्दुओं को एकजुट करना चाहता है वे जातियों-उपजातियों में बंटे हैं। उनका कोई एक देवता, एक पुस्तक, एक आचार-संहिता आदि नहीं है। धार्मिक परम्पराओं में इतना अंतर है कि कोई गाय पूजता है तो कोई गाय खाता है। ऐसे में ‘हिन्दुओं एक हो’ का नारा एक ऐसे देश में नकली दुश्मनों को लगातार खड़े करने और नकली मुद्दों को उठा-उठा कर उन्मादी शोर पैदा करने को उसे मजबूर करता है। जैसे ‘मुस्लिमों की संख्या बढ़ रही है’, ‘वे चार शादियां करते हैं’ ‘लव जिहाद’ ‘ईसाई धर्मांतरण करा रहे हैं’, आदि-आदि नकली उन्मादी मुद्दे ही उसके हिन्दुओं को एकजुट करने के हथियार हैं। एक हथियार के भौंथरे होते ही वह नया हथियार गढ़ने लगता है। अपने फासीवादी हिन्दू राष्ट्र के मंसूबों को परवान चढ़ाने के लिए वह हथियार गढ़ने में अपना सारा बौद्धिक बल लगा देता है। इसके बौद्धिक प्रमुख, इसके बौद्धिक शिविर आदि सब इसीलिए होते हैं। संघ की शिक्षा है हिन्दू राष्ट्र के सिद्धान्त पर अडिग रहे और बाकी सब में गिरगिट की तरह जैसी परिस्थिति देखो वैसा रंग अपनी त्वचा का बना लो। गिरगिट की तरह रंग बदलना, संघ की अपने जन्म से लेकर मोहन भागवत तक की कार्यशैली में शामिल है। मोहन भागवत ने सरेआम विज्ञान भवन में रंग बदला और कुछ बौद्धिक जन इस झांसे में आ गये। लगे आवाज लगाने संघ बदल रहा है। <br />
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में संघ प्रमुख भारत के मजदूरों, किसानों, दलितों-आदिवासियों, स्त्रियों, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के लोगों को वैसे ही धोखा नहीं दे सकते हैं जैसा एक सदी पूर्व जर्मनी में हिटलर व इटली में मुसोलिनी ने अपनी जनता को राष्ट्र व राज्य के नाम पर दिया था। तब से दुनिया में बहुत कुछ घट चुका है। भारत के शोषित-उत्पीड़ित इतने नादान नहीं है कि कोई उन्हें फासीवादी हिन्दू राष्ट्र का झुनझुना पकड़वायेगा और वे उसे पकड़कर जोर-शोर से बजाने लगेंगे। थोड़ी देर को तो कोई भी भ्रम में पड़ सकता है, छलावे में आ सकता है। इसका इस्तेमाल कर संघ फासीवादी निजाम तक भी पहुंच सकता है। पर आखिर में जिन्दगी की सच्चाई, जरूरत, आशा, विश्वास, भाई-चारा अपना रंग दिखाता है। सच सच होता है और झूठ झूठ। संघ कितनी ही कोशिश करे, किसने रंग-रूप धरे, कितने ही संगठन-संस्थाएं बनाये, कितनी ही अपनी जुबान को मीठी और समावेशी बनाये, वह भारत में लम्बे समय तक कामयाब नहीं हो सकता है। हिन्दू राष्ट्र का इनका मंसूबा धरे का धरा रह जायेगा। हिटलर-मुसोलिनी की तरह मेहनतकश जनता इन्हें भी धूल चटायेगी।
बहुरुपिये के नये रूप धरने की असफल कोशिश
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।