यूनानी दार्शनिक प्लेटो, जिन्हें हिन्दी में अफलातून के नाम से भी जाना जाता है, ने अपनी प्रसिद्ध किताब रिपब्लिक (गणतंत्र) में एक मिथक की बात की है जिसे शासक वर्ग द्वारा जनता में प्रचारित किया जाता है। प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य में सभी लागों को तीन श्रेणियों में बांट दिया था। शासक, सैनिक और उत्पादक। प्लेटो के अनुसार पहला सोना था, दूसरा चांदी और तीसरा लोहा। प्लेटो इन तीनों की तुलना मानव शरीर के दिमाग, पुरूषार्थ (बल) और उदर या पेट से करता है। उत्पादकों यानी कृषि-उद्योग में काम करने वाले सबसे नीचे थे। सैनिक उनसे ऊपर थे जिनका काम राज्य की रक्षा करना था। सबसे ऊपर थे शासक जिनका काम शासन करना था। ये थोड़े से लोग होने थे और पूरी कुशलता और चालाकी से साथ अपने में थोड़े से लोगों को भर्ती करना था। उत्पादकों को शासन में कोई अधिकार नहीं थे। <br />
प्लेटो के सामने यह समस्या थी कि यह आदर्श राज्य स्थाई कैसे हो? खासकर उत्पादक कैसे अपनी नियति को चुपचाप स्वीकार कर कार्य करते रहें। इसके लिए प्लेटो ने यह सुझाव दिया कि शासकों को एक मिथक गढ़ना चाहिए और उसे समाज में स्थापित करना चाहिए। इस मिथक में विस्तार से बताया जाना था कि तीन वर्गों की कैसे सोने, चांदी और लोहे से उत्पति हुई। प्लेटो का विचार था कि लम्बे प्रयास से यह मिथक समाज में स्थापित हो जायेगा और उत्पादक इसे स्वीकार कर चुपचाप पीढ़ी दर पीढ़ी काम करते रहेंगे। प्लेटो का आदर्श राज्य पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित रहेगा। <br />
हालांकि प्लेटो का आदर्श राज्य कहीं स्थापित नहीं हो पाया (जब वह यूनान के एक नगर में वहां के राजा के बुलाने पर गया जहां उसे लगता था कि अपने आदर्शों को आजमाने का मौका मिलेगा तो वहां से उसे जान बचाकर भागना पड़ा) पर दुनियाभर के शासकों ने उससे एक सीख जरूर ली। वह यह थी कि अपने शासन को दीर्घजीवी बनाने के लिए, जनता से शासकों को सुरक्षित करने के लिए कोई न कोई मिथक गढ़ा जाये और उसे जनता में प्रचारित किया जाये। इसी के तहत राजाओं ने स्वयं को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि घोषित कर दिया था। नेपाली राजा स्वयं को विष्णु का अवतार कहता था। <br />
पूंजीपति वर्ग तक आते-आते जमाना काफी बदल गया था और धार्मिक पोगापंथ का सहारा लेना उस हद तक संभव नहीं रह गया था, इसलिए पूंजीपति वर्ग ने उस तरह के मिथक नहीं गढ़े। पर मिथकों के बिना उसका भी काम नहीं चल सकता था। इसलिए उसने धर्मनिरपेक्ष मिथक गढ़े। खासकर हर देश ने अपने राष्ट्र निर्माताओं के बारे में मिथक गढ़े और उन्हें प्रचारित किया। संयुक्त राज्य अमेरिका में वाशिंगटन, जैफरसन और लिंकन के बारे में ऐसे मिथक हैं तो भारत में महात्मा गांधी के बारे में। <br />
भारत का पूंजीपति वर्ग गांधी के अलावा भी अन्य मिथकों को प्रचारित करता रहा है। अब जब उसका शासन अच्छे-खासे संकट से गुजर रहा है तो उसके लिए जरूरी हो जाता है कि पुराने मिथकों को सुदृढ़ करे और नये मिथक भी गढ़े। मिथकों की जरूरत समग्र शासक वर्ग के साथ-साथ उसके अलग-अलग धड़ों की भी हो सकती हैं। ऐसे में इन धड़ों के या इनका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों में अपने विशिष्ट मिथक भी हो जाते हैं। <br />
इस समय भारत के संविधान के बारे में और उसके निर्माता के तौर पर भीमराव अंबेडकर के बारे में ऐसे ही मिथक गढ़े और प्रचारित किये जा रहे हैं। इसके लिए बीते नवंबर में संविधान दिवस के तौर पर बाकायदा एक अनुष्ठान ही सम्पन्न किया गया जब संसद का एक विशेष सत्र बुलाकर अंबेडकर और संविधान के बारे में चर्चा की गयी। <br />
शासक वर्गों द्वारा प्रचारित मिथकों के असली निहितार्थ को देखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि भारतीय शासकों द्वारा भारतीय संविधान के बारे में फैलाये जा रहे मिथक की छान-बीन की जाये और उत्पादकों यानी मजदूरों-मेहनतकशों के साथ उसके वास्तविक संबंधों को उदघाटित किया जाये। <br />
पहले अंबेडकर के मिथक पर चर्चा कर लेना ही फायदेमंद होगा। <br />
भारत की पूंजीवादी राजनीति आज इतनी बिखरी हुई है कि इसमें थोड़े से वोटों का भी महत्व बहुत बढ़ जाता है। ऐसे में इन वोटों को पाने के लिए हर संभव हथकंडे अपनाये जाते हैं। ठीक अभी बात करें तो इस समय धुर दक्षिणपंथी भाजपा और अपने को वामपंथी कहने वाली भाकपा दोनों अंबेडकर के समर्थकों को लुभाने के लिए अंबेडकर का जाप कर रहे हैं। जहां पहले ने अंबेडकर द्वारा ब्राह्मणीय हिन्दू धर्म की कटु आलोचना तथा अंत में इसका परित्याग भुला दिया तो दूसरे ने अपनी वर्गीय राजनीति से अंतिम नाता तोड़ने की घोषणा कर दी। चुनावी वैतरणी को पार करने में अब उसे अंबेडकर की जातिवादी नैया ज्यादा कारगर दीख रही है। <br />
जैसे-जैसे देश की दलित जातियों में दलित चेतना का उभार होता गया है वैसे-वैसे उनमें अंबेडकर की लोकप्रियता बढ़ती गयी। दलित जातियों के लोग कांग्रेस या अन्य पार्टियों को छोड़कर बसपा या अन्य पार्टियों की ओर गये हैं। धीमे-धीमे स्थिति यह बनी है कि दलित चेतना सम्पन्न लोगों में अंबेडकर ने किसी आराध्य देवता की स्थिति हासिल कर ली है। अंबेडकर की कोई भी आलोचना चाहे वह कितनी भी सहानुभूति से की गयी हो, इनमें पूर्णतया अस्वीकार्य है। स्थिति वहां पहुंच गयी जहां अरूंधती राय जैसी लेखिका भी अंबेडकर की बुतपरस्ती में शामिल हो गयी। उन्होंने यह काम महात्मा गांधी की पर्याप्त आलोचना करके और उनके मुकाबले अंबेडकर को रखकर सम्पन्न किया। <br />
दलित जातियों में जब अंबेडकर को यह देवत्व हासिल हो गया तो फिर सभी पूंजीवादी पार्टियों की मजबूरी हो गयी कि दलित <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">जातियों</span> का वोट हासिल करने के लिए अंबेडकर की बुतपरस्ती में अपना सुर मिलाएं। वे भी अंबेडकर के नाम का जाप करें। इसके लिए अंबेडकर और स्वयं के, दोनों के इतिहास को भूल जायें। <br />
दलित बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों ने अंबेडकर की मूर्ति पूजा में लम्बे समय से यह प्रचारित किया है कि भारत का संविधान अंबेडकर ने बनाया है इसीलिए अंबेडकर की हर मूर्ति में उनके हाथ में संविधान की पुस्तक दिखाई देती है। चूंकि अंबेडकर संविधान के निर्माता हैं इसलिए अंबेडकर की मूर्ति पूजा में भारत का संविधान भी किसी हद तक देवपुस्तक का दर्जा हासिल कर लेता है। एक अनकहा देवत्व इसमें समाहित हो जाता है। <br />
दलित जातियों में अंबेडकर और संविधान की इस प्रतिष्ठा का पूंजीवादी पार्टियां अपने व्यक्तिगत और व्यवस्था दोनों के हितों में इस्तेमाल करती हैं। जहां अंबेडकर का जाप कर वे दलितों के वोट हासिल करने का प्रयास करती हैं वहीं उनके जरिये संविधान को मिली प्रतिष्ठा को वे दलित जातियों के लोगों को संविधान में बांधे रखने में इस्तेमाल करती हैं। संविधान में बंधने का मतलब भारत की पूंजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा की गारंटी क्योंकि भारतीय संविधान कुछ और नहीं बल्कि भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था को चलाने वाली संहिता है। इस तरह अंबेडकर की मूर्ति पूजा से दोनों उद्देश्य हासिल हो जाते हैं। <br />
अंबेडकर के बारे में शासकों द्वारा प्रचारित मिथक के बरक्स सच्चाई क्या है? क्या वे वाकई भारत के संविधान के निर्माता हैं? स्वयं भारत के संविधान की सच्चाई क्या है?<br />
अंबेडकर न तो भारत के संविधान के निर्माता हैं और न ही संविधान को लिखने वाले। यदि भारत का संविधान का श्रेय किसी को तकनीकी आधार पर दिया जाना चाहिए तो वह भारत की संविधान सभा थी। संविधान पर बहस कर उसे पास करने का काम संविधान सभा ने किया। तो फिर अंबेडकर क्या थे? संभवतः वे संविधान सभा के अध्यक्ष थे, नहीं। वे यह भी नहीं थे। संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद थे जो भारत के पहले राष्ट्रपति बने। <br />
तब फिर अंबेडकर वास्तव में क्या थे? अंबेडकर संविधान का मसौदा तैयार करने वाली मसौदा समिति के अध्यक्ष थे। इस समिति में कई अन्य सदस्य भी थे। इसके अलावा मसौदा तैयार करते समय कई अन्य समितियां या आयोग भी बनाये जाते थे जो मसौदा बनाने में अपना योगदान करते थे। मसौदा समिति द्वारा तैयार मसौदे पर बहस कर संविधान सभा उसे पास करती थी। <br />
मसौदा समिति का अध्यक्ष होने का यह मतलब भी नहीं था कि अंबेडकर ने समिति के सामने पेश करने के लिए संविधान का एक मसौदा लिखकर पेश किया जिसे समिति ने अंतिम रूप दिया। असल में संविधान का शुरूआती मसौदा एक अन्य व्यक्ति ने तैयार किया था। ये थे बेनेगल नरसिंह राव जिन्हें संविधान सभा का संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया गया था। इन्होंने ही विभिन्न समितियों और अन्य देशों के संविधानों का अध्ययन कर एक शुरूआती मसौदा तैयार किया था जिस पर बातचीत कर मसौदा समिति ने मसौदा को अंतिम रूप दिया। इस तरह यदि किसी एक व्यक्ति को भारत का संविधान का निर्माता घोषित करना हो तो ये नरसिंह राव ही हो सकते हैं जिनका आज कोई नाम नहीं जानता। <br />
लेकिन असल में ये सब तकनीकी बातें हैं। भारत के संविधान को न तो नरसिंह राव ने बनाया न अंबेडकर ने और न ही राजेंद्र प्रसाद ने। असल में इसे बनाने का श्रेय स्वयं अंग्रेजों को ही दिया जाना चाहिए। ऐसा दो वजहों से। <br />
जिस संविधान सभा ने भारत के संविधान को बनाया वह भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। वह सार्विक मताधिकार द्वारा उस तरह नहीं चुनी गयी जैसे अभी हाल में नेपाल की संविधान सभा चुनी गयी थी। उसे उन प्रादेशिक विधान सभाओं द्वारा चुना गया था जिसके सदस्य स्वयं महज जनता के सातवें हिस्से के वोट से चुने गये थे। इन विधान सभाओं को अंग्रेजों ने अपने शासन के हिस्से के तौर पर स्थापित कर रखा था। इस तरह संविधान सभा अंग्रेजों की शासन व्यवस्था का ही एक उत्पाद थी। <br />
दूसरे यह कि जो संविधान बनाया गया वह भी वास्तव में अंग्रेजों द्वारा 1935 में लागू इंडिया एक्ट का ही संशोधित रूप था। संविधान का वास्तविक आधार वास्तव में यह इंडिया एक्ट ही है जिसमें विभिन्न देशों के संविधान से कुछ चीजें लेकर संशोधित कर दिया गया है। इसी पैबंदसाजी के कारण ही भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है- शब्दों में। इसके बावजूद इसमें निरंतर संशोधन होते रहते हैं जिनकी संख्या अब सौ के ऊपर जा चुकी है। <br />
इसलिए भारत के संविधान में ब्रिटिश नियमों-कानूनों की उसी तरह निरंतरता है जिस तरह भारत के शासनतंत्र और शासन प्रणाली <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">में</span> ब्रिटिशकालीन निरंतरता है। इसी का यह भी परिणाम है कि भारतीय दंड संहिता सहित देश के तमाम फौजदारी और दीवानी कानून <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों</span> के जमाने में बने हुए हैं। <br />
इसका मतलब यह नहीं है कि भारत का अभी भी प्रकारांतर से <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों</span> का या अन्य साम्राज्यवादियों का शासन चल रहा है जैसा कि कुछ क्रांतिकारी सोचते हैं। इसका वास्तविक मतलब कुछ और है। <br />
<span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों</span> ने भारत में अपना शासनतंत्र कायम किया था वह उनके साम्राज्यवादी शोषण के लिए था। पर उनका साम्राज्यवादी शोषण कोई पुराने जमाने के सामंती तरीके का नहीं था। वह पूंजीवादी तरीके का था और उसने इंग्लैण्ड के पूंजीवादी विकास में भारी मदद भी की। हां, यह स्पष्ट है कि अंग्रेजों का उद्देश्य भारत में पूंजीवाद लाना नहीं था। इसीलिए उन्होंने यहां सामंती तत्वों को न केवल समाप्त नहीं किया बल्कि उन्हें अपने शासन-शोषण का आधार भी बनाया। <br />
दूसरी ओर <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों</span> के इस शासन के तहत जो पूंजीवादी विकास हुआ और उससे जो पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग पैदा हुआ, उसका चरित्र भी क्रांतिकारी नहीं था। वह पर्याप्त मात्रा में समझौतापरस्त था और अंग्रेजियत में ढला हुआ था। इसकी अक्सर सामंती जमीन थी और सामंतों-जमीदारों से इसके रिश्ते थे। <br />
इन्हीं वजहों से और जिस रूप में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आजादी के आंदोलन का विकास हुआ उसके कारण जब <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों</span> के देश से विदा होने का समय आया तो भारत के पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदों को इस बात की जरा भी परेशानी नहीं महसूस हुई कि वे अंग्रेजों के शासनतंत्र को जस का तस अपना लें, उनके कानूनों से देश चलायें और इस सबके लिए जो संविधान बनायें वह इंडिया एक्ट, 1935 का ही विस्तार हो। <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों</span> की तरह उन्हें भी न तो सामंती तत्वों से सांठ-गांठ में परेशानी थी और न ही देश की मजदूर-मेहनतकश जनता के दमन से। यह याद रखना होगा कि तेलंगाना-तेभागा का दमन ठीक संविधान निर्माण के काल में ही किया गया और तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध भी इस समय में लगाया गया। इस सबमें ‘प्रगतिशील’ नेहरू और ‘प्रतिक्रियावादी’ राजेन्द्र प्रसाद व पटेल सब साथ थे। <br />
और इनके साथ ही अंबेडकर भी थे। बल्कि एक मायने में तो अंबेडकर का अतीत और भी दिक्कततलब था। <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">कांग्रेस</span> के सारे नेता तो आजादी की लड़ाई में थे भले ही कितने समझौतापरस्त और प्रतिक्रियावादी रहे हों पर अंबेडकर तो कभी भी आजादी की लड़ाई में नहीं थे। यही नहीं, वे तो <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों </span>के साथ थे। वे अंग्रेजों के साथ मिलकर दलितों का उत्थान करना चाहते थे। इसके लिए वे <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों </span>के मंत्रिमंडल तक का हिस्सा बन गये। <br />
लेकिन जब <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों</span> के जाने के बाद संविधान निर्माण का सवाल आया तो न केवल अंबेडकर इसमें शामिल हो गये बल्कि कांग्रेसी नेताओं ने ही उन्हें शामिल कर लिया। अंबेडकर पहले मुस्लिम लीग के सहयोग से संविधान सभा में पहुंचे थे। पर जब भारत विभाजन के बाद अंबेडकर को निर्वाचित करने वाली विधान सभा पाकिस्तान का हिस्सा बन गयी तो अंबेडकर संविधान सभा के सदस्य नहीं रह गये। ऐसे में कांग्रेस ने उन्हें संविधान सभा में चुनवाया। यहीं नहीं, उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। <br />
आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस पार्टी और इस पार्टी का हमेशा विरोध करने वाले तथा <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">अंग्रेजों</span> के साथ चलने वाले अंबेडकर का संविधान निर्माण में यह सहयोग यह दिखाता है कि दोनों एक ही जमीन पर थे। दोनों का मूलतः एक ही चरित्र था। <br />
और यह चरित्र था भारत के पूंजीपति वर्ग का चरित्र। साम्राज्यवाद-सामंतवाद से समझौतापरस्ती इस चरित्र की विशेषता थी। साथ ही मजदूर-मेहनतकश जनता के जनवादी अधिकारों को एकदम संकुचित दायरे में बांधे रखना भी इसकी विशेषता थी। इस गैर-क्रांतिकारी और लिजलिजे पूंजीपति वर्ग को भय था कि मजदूर-मेहनतकश कभी भी इसकी सत्ता को उखाड़ फेंक सकते हैं। इसीलिए पहले दिन से ही उनका दमन करना जरूरी था। वह सिलसिला आज तक जारी है। इसीलिए भारत का पूंजीवादी संविधान हद दर्जे का गैर-जनवादी और निरंकुश है- जनता के जनवादी अधिकारों के संदर्भ में।<br />
पर भारत के पूंजीपति वर्ग ने तब से ही अपने संविधान को सारी जनता के संविधान के रूप में पेश किया है। खासकर देश के सबसे ज्यादा शोषित-उत्पीडि़त लोगों यानी दलित जातियों के लोगों के सामने तो उसने अंबेडकर के नाम का भी इस्तेमाल किया है। पहले अंबेडकर की देवमूर्ति स्थापित की गयी और फिर इसके द्वारा पूंजीपतियों के शोषण-शासन वाले संविधान को दलितों-उत्पीडि़तों का संविधान बताया जाता रहा है। इसमें <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">पूंजी</span>पति वर्ग किसी हद तक कामयाब भी रहा है। <br />
पर आज <span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;">पूंजी</span>पति वर्ग और उसकी पार्टियों द्वारा भारतीय संविधान के बारे में फैलाये जा रहे इन मिथकों से यह भी पता चलता है कि पूंजीपति वर्ग छटपटाहट से भरा हुआ है। उसे भय सता रहा है कि मजदूर-मेहनतकश जनता अपनी जिंदगी के भीषण कष्टों से पूंजीवादी निजाम की असलियत तक पहुंच रही है। यह इस निजाम के लिए सबसे ज्यादा खतरे की बात है। <br />
आज जरूरत इसी की है कि मजदूर-मेहनतकश जनता के इस सहजबोध को स्वर दिया जाये और पूंजीवादी निजाम को चलाने वाली किताब यानी भारत के संविधान के असली चरित्र को उसके सामने खोल कर रखा जाये।
भारत का संविधान: मिथक और यथार्थ
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।