कभी-कभी कुछ रोचक घटनाएं हो जाती हैं। चुनावों के दौरान मोदी ने टीवी समाचार चैनलों तथा अखबारों को धड़ाधड़ साक्षात्कार दिये। इन्हीं में से किसी में उनसे यह पूछ लिया गया कि उन्होंने अपने दस साल के कार्यकाल के दौरान कोई प्रेस कांफ्रेन्स क्यों नहीं की? इस पर उनका जवाब यह था कि उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि पत्रकार निष्पक्ष नहीं हैं। स्वाभाविक था कि जिन लोगों को वे साक्षात्कार दे रहे थे उन्हें वे निष्पक्ष पत्रकार मानते थे।
लेकिन विरोधी इन पत्रकारों को निष्पक्ष पत्रकार के बदले गोदी पत्रकार या गोदी मीडिया कहते हैं। कुछ लोग इन्हें दरबारी मीडिया भी कहते हैं। पिछले पांच-सात सालों में गोदी मीडिया शब्द काफी चलन में आ गया है और आम तौर पर मोदी सरकार समर्थक पत्रकारों, अखबारों और समाचार चैनलों को इसी नाम से संबोधित किया जाता है।
गोदी मीडिया शब्द के आविष्कार का श्रेय रवीश कुमार नामक पत्रकार को दिया जाता है जिन्होंने अंग्रेजी के ‘इंबेडेड जर्नलिज्म’ शब्द का यह रूपांतरण किया। स्वयं ‘इंबेडेड जर्नलिज्म’ शब्द का चलन बड़े पैमाने पर 1991 के इराक पर अमेरिकी हमले के समय आया। तब अमेरिकी और पश्चिमी पत्रकार अमेरिकी सेना के साथ चलते थे। कई बार तो पत्रकारों को टैंक में बैठे दिखाया गया। स्वाभाविक था कि ये पत्रकार अमेरिकी सेना और सरकार के हिसाब से ही अपनी खबर दिखाते। इंबेडेड शब्द का अर्थ है साथ में घुसा हुआ या घुसाया हुआ अथवा एक साथ किया हुआ।
इंबेडेड शब्द में जहां सहयोग या साथ का बोध होता है वहीं गोदी शब्द से पालतूपन का बोध होता है। इसीलिए गोदी मीडिया शब्द से यह ध्वनित होता है कि मीडिया किसी का पालतू बन गया है। आज जब गोदी मीडिया आम चलन में है तो वह इस अर्थ में कि वह मोदी सरकार का पालतू मीडिया बन गया है। इसीलिए इसमें यह भी निहित है कि मीडिया और मोदी सरकार के रिश्ते में मोदी सरकार ही प्रधान है। वही हावी है। मोदी सरकार ने लालच देकर या भय दिखाकर मीडिया को अपने नियंत्रण में कर लिया है।
आम तौर पर जब इसकी व्याख्या करने की कोशिश की जाती है तो बताया जाता है कि सरकार के पास विज्ञापन देने की जो भारी ताकत है उससे सरकार मीडिया पर नियंत्रण करती है। सरकार के हिसाब से चलने वालों को भारी विज्ञापन दिये जाते हैं। इसके उलट दूसरों का विज्ञापन रोक दिया जाता है। पैसे के लालच में मीडिया बिक जाता है।
इसी के साथ यह भी कहा जाता है कि जो पत्रकार या समाचार माध्यम सरकार के हिसाब से नहीं चलते सरकार उन्हें धमकाने के लिए कई तरीके इस्तेमाल करती है। जांच एजेन्सियों का इस्तेमाल, फर्जी मुकदमे, अवमानना के आरोप, इत्यादि इनमें से कुछ हैं।
इस तरह सरकार मीडिया पर नियंत्रण कर लेती है और उन्हें पालतू बना लेती है। इसके अलावा कुछ मीडिया संस्थान वैचारिक कारणों से मोदी सरकार के साथ हैं। इस तरह कुल मिलाकर गोदी मीडिया का निर्माण हो जाता है।
गोदी मीडिया, जिसे कुछ लोग मोदी मीडिया भी कहते हैं, की यह धारणा पूंजीवादी समाज में पूंजीवादी प्रचारतंत्र के वास्तविक चरित्र तथा खासकर आज के जमाने में पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी प्रचारतंत्र के वास्तविक संबंधों को नजरअंदाज कर देती है। यह छोटे-छोटे पूंजीवादी प्रचार संस्थानों तथा सरकार के साथ उनके संबंधों को ही ध्यान में रखती है। बड़ा एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग तथा पूंजीवादी प्रचारतंत्र के साथ उसका संबंध सिरे से गायब हो जाता है। इसी के साथ गायब हो जाता है बड़े एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग का सरकार के साथ संबंध।
सारी दुनिया की तरह भारत में भी आज बड़ा एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग समूची पूंजीवादी व्यवस्था पर हावी है। अर्थव्यवस्था पर तो उसका प्रभुत्व है ही, राज्य और सरकार पर भी उसका प्रभुत्व है। समूची राज्य व्यवस्था और सरकार उसी के हिसाब से उसी के हित में चलती है। आज कोई सरकार अपवाद स्वरूप ही बड़े पूंजीपति वर्ग के न चाहने के बावजूद अस्तित्व में आ सकती है। और ऐसी सरकार लम्बे समय तक नहीं टिकी रह सकती।
एक वर्ग के तौर पर बड़ा एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग राज्य सत्ता और सरकार पर हावी रहता है। सरकार को इसी के हिसाब से चलना होता है। इस अर्थ में बड़ा एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग ही असल में सरकार का मालिक है। लेकिन जो बात एक वर्ग के तौर पर बड़े पूंजीपति वर्ग के बारे में सच है वह अकेले-अकेले बड़े पूंजीपतियों के बारे में सच नहीं है। यानी कोई अकेला पूंजीपति सरकार का मालिक नहीं है। ज्यादा से ज्यादा मोदी-अडाणी जैसा विशेष रिश्ता हो सकता है जब दोनों ने एक-दूसरे को फायदा पहुंचाते हुए तरक्की की। इसीलिए ऐसा हो सकता है कि किसी अकेले पूंजीपति के खिलाफ सरकार कोई कार्रवाई करे। पर यह नहीं हो सकता कि सरकार अकेले-अकेले सभी या ज्यादातर पूंजीपतियों के खिलाफ कार्रवाई करे। तब वर्ग निशाने पर आ जायेगा और सरकार ऐसा नहीं कर सकती।
इस बड़े पूंजीपति वर्ग का, जो राज्य सत्ता और सरकार पर हावी है, पूंजीवादी प्रचारतंत्र के साथ क्या संबंध है? इस मामले में सबसे पहली बात तो यही है पूंजीवादी समाज का हिस्सा होने के कारण पूंजीवादी प्रचारतंत्र भी उसी आम गति का शिकार है। यदि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में एकाधिकार प्रमुख और निर्णायक प्रवृत्ति है तो यही बात पूंजीवादी प्रचारतंत्र के बारे में भी सच है। पूंजीवादी प्रचारतंत्र के बड़े संस्थान बड़े पूंजीवादी उद्यम हैं तथा उनमें भी एकाधिकारी प्रवृत्ति है यानी थोड़े से पूंजीवादी प्रचार संस्थानों का ही समूचे प्रचारतंत्र पर प्रभुत्व है। दर्जन भर अखबार समूह या दर्जन भर समाचार चैनल ही ज्यादातर हिस्से पर नियंत्रण रखते हैं। अब तो यह भी है कि अखबार-पत्रिका और टीवी एक ही संस्थान के अंग हो सकते हैं।
दूसरी बात यह है कि बड़े एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के घराने प्रचारतंत्र के संस्थानों के भी या तो सीधे मालिक हैं या फिर उनमें शेयरधारक। पुराने जमाने में टाटा-बिड़ला अखबार समूहों के मालिक हुआ करते थे। आज अंबानी-अडाणी समाचार चैनलों के मालिक हैं। इन बड़े पूंजीवादी घरानों के लिए इन प्रचार संस्थानों से होने वाला मुनाफा गौण चीज है। वे इन्हें सालों-साल घाटे में भी चला सकते हैं। उनके लिए इन प्रचार संस्थानों का दूसरा ही महत्व है। सत्ता के गलियारों में सांठ-गांठ से लेकर पूंजीवादी विचारों का प्रचार-प्रसार उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। स्वाभाविक है कि इन पूंजीपतियों के लिए सरकारी विज्ञापनों से होने वाली आय गौण महत्व की ही चीज है।
स्वयं बड़े पूंजीवादी संस्थान होने के चलते इन बड़े पूंजीवादी प्रचार संस्थानों में संपादकों से लेकर पत्रकारों तक की स्थिति किसी भी अन्य पूंजीवादी संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों से ज्यादा बेहतर नहीं होती। ये अपने पेशे के बारे में स्वयं चाहे जितने ऊंचे खयालात रखते हों पर अपने मालिकों की निगाह में महज वेतनभोगी कर्मचारी ही हैं, वह भी अस्थाई। उदारीकरण के दौर के पहले (तब भारत में निजी समाचार चैनल नहीं थे) तो तब भी अखबारों-पत्रिकाओं के संपादकों की कुछ हैसियत होती थी पर उदारीकरण के दौर में वह भी खत्म हो गई। अब संपादकों को सीधे मालिकों के निर्देश पर काम करना पड़ता है। पत्रकारों की हैसियत तो महज फैक्टरी के ठेका मजदूरों की ही है।
जैसे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बड़े एकाधिकारी घरानों के साथ-साथ छोटे-मध्यम पूंजीवादी उद्यम तथा कुटीर उद्योग भी होते हैं वैसे ही पूंजीवादी प्रचारतंत्र में भी बड़े प्रचार संस्थानों के साथ तमाम छोटे-छोटे संस्थान भी हैं। ये सरकारी या गैर-सरकारी विज्ञापनों तथा दलाली या वसूली पर निर्भर होते हैं। यहां संपादकों और पत्रकारों की स्थिति और दयनीय होती है।
एक पूंजीवादी उद्यम के तौर पर पूंजीवादी प्रचारतंत्र की इस स्थिति के मद्देनजर राज्य सत्ता और सरकार के साथ इसके संबंध के बारे में क्या निष्कर्ष निकलते हैं? कौन किसका मालिक हो सकता है? कौन किस पर हावी हो सकता है? कौन किसकी गोदी में बैठा हुआ है?
स्पष्ट है कि एक वर्ग के तौर पर बड़ा पूंजीपति वर्ग सरकार की गोद में नहीं बैठा हुआ है। इसके ठीक उलट सरकार उसकी गोद में बैठी हुई है। जैसा कि सभी वर्गीय समाजों में होता है, आज पूंजीवादी राज्य सत्ता पूंजीपति वर्ग के हितों की रक्षा कर रही है और पूंजीपति वर्ग में बड़ा एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग हावी है। लेकिन जहां तक वर्तमान सरकार का संबंध है उसे तो इस बड़े पूंजीपति वर्ग ने स्वयं ही वहां पहुंचाया है और वहां बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। ऐसा नहीं है कि मोदी स्वयं अपने दम पर केन्द्र सरकार में काबिज हो गये और बड़े पूंजीपति वर्ग ने उन्हें अंगीकार कर लिया। इसके बदले यह बड़ा पूंजीपति वर्ग ही था जिसने 2011-12 में मोदी को दिल्ली की गद्दी के लिए आगे बढ़ाया तथा फिर अपने पैसे व प्रचारतंत्र की मदद से उन्हें वहां काबिज कर दिया। इसके बाद से बड़ा पूंजीपति वर्ग हर संभव कोशिश करता रहा है कि वे सत्ता में बने रहें।
इसलिए बड़ा पूंजीपति वर्ग मोदी की गोद में नहीं बैठा। इसके ठीक उलट उसने मोदी को अपनी गोद में उठाया और फिर दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया। इसीलिए जब पूंजीवादी प्रचारतंत्र मोदी का समर्थन या प्रचार करता दिखता है तो इसलिए नहीं कि वह मोदी की गोद में बैठा हुआ है, बल्कि इसलिए कि मोदी बड़े पूंजीपति वर्ग की गोद में बैठे हुए हैं। प्रचारतंत्र के संपादक और पत्रकार तो अपने मालिकों के कर्मचारी मात्र हैं जो अपने मालिकों की इच्छानुसार मोदी के गुणगान में लगे हुए हैं। ये न तो दरबारी हैं और न ही चारण। बल्कि वे महज नौकर हैं जो अपने मालिकों के आदेश का पालन कर रहे हैं। पूंजीवादी प्रचारतंत्र के असल मालिकों तथा मोदी सरकार का यही वास्तविक संबंध है। यहां गोद में बैठने वाला मीडिया नहीं बल्कि मोदी है। यहां असल में मामला गोदी मीडिया या गोदी सेठ का नहीं बल्कि गोदी नेता और गोदी सरकार का है।
पूंजीवादी प्रचारतंत्र और मोदी सरकार के बीच इस वास्तविक संबंध के बावजूद कोई अकेला प्रचार संस्थान सरकार के निशाने पर आ सकता है। अडाणी द्वारा खरीदे जाने के पहले एन डी टी वी इसी तरह का संस्थान था हालांकि यह कहना होगा कि यह कोई बड़ा संस्थान नहीं था। जहां तक संपादकों-पत्रकारों का सवाल है वे रोजी-रोटी की खातिर वैसे ही अपने मालिकों की हुक्म-उदूली नहीं कर सकते, मोदी सरकार का कोप भाजन बनना तो बहुत दूर की बात है। दो-तीन दर्जन संपादक-पत्रकार ही हैं जिन्होंने ऐसा करने की हिम्मत जताई और आज वे सारे अपनी रोजी-रोटी के लिए यू-ट्यूब चैनलों पर निर्भर हैं।
उपरोक्त सब से स्पष्ट है कि गोदी मीडिया नामक बहु प्रचलित शब्द एक ‘मिसनाभर’ है यानी एक ऐसा नाम जो गलत अर्थ देता है। वह पूंजीवादी प्रचारतंत्र तथा मोदी सरकार के रिश्ते को ठीक उलटा कर देता है। वह मालिक को नौकर तथा नौकर को मालिक बना देता है।
लेकिन आज के पूंजीवादी प्रचारतंत्र के बारे में यह गलत धारणा यूं ही नहीं फैली है। इसकी जड़ में है पूंजीवादी प्रचारतंत्र के बारे में उदारवादी और वाम-उदारवादी दायरों में एक खास किस्म की सोच। यह सोच पूंजीवादी प्रचार संस्थानों के खास चरित्र तथा बड़े एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के साथ उसके संबंध को नजरअंदाज कर देती है। यह स्वयं बड़े पूंजीपति वर्ग के एकाधिकारी चरित्र तथा राज्य सत्ता और सरकार के साथ उसके संबंध को भी नजरअंदाज कर देती है। उसके बाद जो बच जाता है वह है छोटे-छोटे पूंजीवादी उद्यमों की हैसियत वाले पूंजीवादी प्रचार संस्थानों का संसार जिसे सरकार डरा-धमका या खरीद सकती है। इसमें संपादक और पत्रकार स्वतंत्र हैसियत वाले लोग होते हैं जिन्हें सरकार डरा-धमका या खरीद सकती है। ये कुल मिलाकर अत्यन्त कम हैसियत वाला संसार है जो सरकार की गोद में बैठ सकता है। और इन लोगों की नजर में वह मोदी या उनकी सरकार की गोदी में बैठ गया है।
इस सोच से गोदी मीडिया का जो समाधान निकलता है वह यह कि संपादकों-पत्रकारों को अपनी रीढ़ सीधी करनी चाहिए, सरकारी या निजी विज्ञापनों पर अपनी निर्भरता समाप्त करनी चाहिए, इत्यादि। यह एक ऐसी सदिच्छा है जो उसी तरह कभी फलीभूत नहीं हो सकती जिस तरह बड़े एकाधिकारी उद्यमों के सामने छोटे और कुटीर उद्यम नहीं टिक सकते।
तथाकथित गोदी मीडिया के खिलाफ संघर्ष असल में बड़े एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के खिलाफ संघर्ष का हिस्सा है। और यह संघर्ष आज सड़ी-गली पूंजीवादी व्यवस्था के ही खिलाफ है जो हिन्दू-फासीवादियों की मदद से अपनी रक्षा करना चाहती है। इस बारे में कोई भी अस्पष्टता खतरनाक है।
गोदी मीडिया या कुछ और?
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।