अडाणी के आगे नतमस्तक संसद

बीते 9-10 वर्षों में मोदी सरकार ने कम से कम 7 बार संसद में इस बात का वायदा किया कि वह अडाणी ग्रुप के घोटालों की जांच कर रही है पर हर बार जनता का ध्यान हटते ही उसने जांच को समाप्त कर देने का प्रयास किया। रिपोर्टर्स कलेक्टिव की एक रिपोर्ट के मुताबिक अडाणी समूह की कारगुजारियों पर पर्दा डालने को मोदी सरकार हमेशा तत्पर रही है। 
    
रिपोर्ट के मुताबिक करीब 10 वर्ष पूर्व केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के अधीन राजस्व खुफिया निदेशालय ने कोयला आयात धोखाधड़ी की जांच शुरू की थी। तब अडाणी-अंबानी, जिंदल समेत 40 कोयला आयातकों पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने भारतीय बिजली संयत्रों के लिए इंडोनेशिया से आयातित कोयले की लागत बढ़ाकर भारी मुनाफा कमाया था। कोयले की इस दिखावटी बढ़ी लागत का बोझ बिजली उपभोक्ताओं को बिजली की बढ़ी दरों के रूप में उठाना पड़ा था। 
    
2015-16 के दौरान इस मसले पर 6 बार संसद में सवाल उठाये गये तब हर बार सरकार  एक ही जवाब देती रही कि जांच की जा रही है। यहां तक कि संसद में सरकार के आश्वासनों की स्थिति की देख-रेख करने वाली आश्वासन समितियों को भी बारम्बार मांग के बावजूद सरकार ने जांच के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। अक्टूबर 16 में मामले के शांत पड़ने पर सरकार ने आश्वासन समिति से कहा कि चूंकि विदेशी जांच में जांच एजेंसियों की सीमायें हैं व यह जांच एक काफी समय लेने वाली प्रक्रिया है अतः इस आश्वासन को वापस ले जांच बंद कर दी जाये। हालांकि तब आश्वासन समिति ने जांच बंद करने की सरकार की मांग रद्द कर दी थी। 
    
इस जांच की हकीकत यह रही कि सरकार ने न केवल बीच में ही मनमाने तरीके से जांच अधिकारी बदल दिये थे बल्कि भारतीय स्टेट बैंक सरीखे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ने भी जांच में सहयोग से इंकार कर दिया था। यानी सरकार खुद ही जांच को पटरी से उतारने को प्रयासरत थी। 
    
अक्टूबर 17 में लोकसभा की आश्वासन समिति ने कोयला मंत्रालय से जब उक्त जांच का विवरण मांगा तब मंत्रालय ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा कि राजस्व खुफिया निदेशालय की जांच जारी है व मामले से उसका कोई लेना देना नहीं है। मार्च, 2018 में केन्द्रीय विद्युत मंत्रालय ने राज्य सभा की आश्वासन समिति से उक्त आश्वासन व जांच छोड़ने का अनुरोध किया पर समिति ने यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया। पर सरकार जांच न करने की मंशा पर अड़ी रही और उसने जांच का कोई विवरण संसद को नहीं दिया। 2021 में आश्वासन समिति ने उक्त जांच जल्द पूरी करने की सरकार से मांग की। पर इसके बाद आश्वासन समिति ने यू टर्न लेते हुए सरकार के आश्वासन व जांच छोड़ने की मांग को स्वीकार कर लिया। इस तरह कोयला घोटाले की जांच करने में संसद असफल रही।
    
हिंडनबर्ग रिसर्च द्वारा जब अडाणी समूह पर ‘कारपोरेट इतिहास की सबसे बड़ी धोखाधड़ी’ और स्टाक में हेर-फेर का आरोप लगाया गया तो 19 जुलाई 2021 को तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा ने इससे जुड़ा एक सवाल वित्त मंत्रालय से पूछा था। मोइत्रा ने अडाणी समूह के विदेशी निवेशकों के असली मालिक के बारे में व अडाणी समूह के ‘संदिग्ध लेन-देन’ की जांच व संबंध में सवाल पूछे थे। तब वित्त मंत्रालय ने जवाब दिया था कि सेबी अडाणी समूह की कुछ कंपनियों की जांच कर रही है। मंत्रालय ने तब जांच का कुछ भी और ब्यौरा संसद को नहीं दिया। 13 जनवरी 23 को सरकार ने इस जांच को भी रद्द करने की मांग की थी क्योंकि जांच में विदेशी संस्थायें शामिल थीं। लेकिन तभी हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट सामने आयी जिसमें आरोप लगाया गया था कि अडाणी समूह ने अपने विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के जरिये शेयरों में हेर फेर कर उनकी कीमतें बढ़़ा दी हैं। एक बार फिर अडाणी समूह के खिलाफ जांच की मांग ने जोर पकड़ा पर सरकार अडाणी समूह के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। 
    
महुआ मोइत्रा के सवाल पूछने के 2 वर्ष बाद लोकसभा आश्वासन समिति ने उक्त आश्वासन वापस ले सेबी की जांच से पल्ला झाड़ लिया। इसके कुछ समय बाद महुआ मोइत्रा पर अडाणी के प्रतिद्वंद्वी व्यवसायी से रिश्वत ले प्रश्न पूछने का आरोप लगा उन्हें लोकसभा से निष्कासित कर दिया गया। हिंडनबर्ग रिसर्च को भी सरकार ने नोटिस भेज दिया।
    
इस तरह अडाणी समूह की हेराफेरियों की जांच की निगरानी करने में भारत की सर्वोच्च संस्था संसद असफल रही। सेबी या फिर राजस्व खुफिया निदेशालय की जांच से बरी होना अडाणी समूह के लिए कोई खास मुश्किल नहीं होगा। 
    
एक पूंजीपति की हेराफेरी के आगे नतमस्तक सरकार से कुछ भी उगलवा पाने में असफल रही संसद आज की संसदीय लोकतंत्र की वास्तविकता बयां कर देती है। यह वास्तविकता यही है कि बड़े एकाधिकारी पूंजीपति ही देश के असली  सर्वेसर्वा हैं। सरकारें उनके आगे नतमस्तक हैं और संसद उन पर कार्यवाही करने की शक्ति खो चुकी है। कोई सांसद अगर फिर भी कार्यवाही की मांग करेगा तो वह महुआ मोइत्रा सरीखे हश्र को प्राप्त होगा। 

आलेख

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को

/philistini-pratirodha-sangharsh-ek-saal-baada

7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक

/bhaarat-men-punjipati-aur-varn-vyavasthaa

अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।