इतिहास में नाम दर्ज कराने की ख्वाहिशें

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आजकल इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने की बहुत सारे लोगों की ख्वाहिशें प्रबल हो उठी हैं। बहुत साल नहीं हुए जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि इतिहास उनका अलग ढंग से मूल्यांकन करेगा। अब वर्तमान मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने कहा है कि उन्हें इस बात की जिज्ञासा है कि इतिहास उन्हें किस नजर से देखेगा। देश के प्रधानमंत्री तो आश्वस्त हैं ही कि वे युग पुरुष हैं जो हिन्दुओं को बारह सौ साल की गुलामी से मुक्त कराने के लिए अवतरित हुए हैं। हाल में तो उन्होंने और आगे जाकर खुद को अजैविक घोषित कर दिया। 
    
उपरोक्त लोगों के अलावा आज अनगिनत महानुभाव हैं जो चाहते हैं कि इतिहास में उनका नाम दर्ज हो। स्वभावतः ही वे एक महान शख्सियत के तौर पर इतिहास में दर्ज होना चाहते हैं। बदनाम व्यक्ति के तौर पर कौन अपना नाम दर्ज कराना चाहेगा?
    
वैसे यह अजीबोगरीब परिघटना है। जमाना जितना ओछा होता जा रहा है उतना ही खुद को महान समझने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि खुद को महान समझने की प्रवृत्ति इसीलिए बढ़ रही है कि जमाना ओछा होता जा रहा है। 
    
महान ऐतिहासिक व्यक्ति महान ऐतिहासिक परिवर्तनों के साथ ही पैदा होते हैं। वे ऐतिहासिक परिवर्तनों में होने वाले घात-प्रतिघात के उत्पाद होते हैं। उन परिवर्तनों के दौरान उन परिवर्तनों में सहायक प्रतिभाओं को आगे आने का मौका मिलता है। प्रतिभाएं फलती-फूलती हैं और उन प्रतिभाओं के धनी व्यक्ति छलक कर इतिहास की सतह पर आ जाते हैं जो बाद में ऐतिहासिक व्यक्ति के तौर पर याद किये जाते हैं। 
    
इसका मतलब यह भी है कि जब महान ऐतिहासिक परिवर्तन न हो रहे हों तब महान ऐतिहासिक व्यक्ति भी पैदा नहीं हो सकते। ऐतिहासिक ठहराव की अवस्था में व्यक्तित्व भी ठहराव का शिकार हो जाते हैं। वे कुएं या तलैया के मेढ़क बन जाते हैं। मुहावरे के अनुसार वे कूपमंडूक होते हैं। लेकिन ठीक इसीलिए कि वे कूपमंडूक हैं वे खुद को महान समझ सकते हैं। यह तब और होता है जब वे ऐतिहासिक दृष्टि से शून्य होते हैं या उनकी ऐतिहासिक दृष्टि अत्यन्त संकीर्ण होती है। 
    
पूंजीपति वर्ग के साथ हमेशा ही रहा है कि उसकी ऐतिहासिक दृष्टि अत्यन्त संकीर्ण रही है। और आज जब वह अपने ऐतिहासिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है तब तो यह दृष्टि लगभग गायब ही हो गई है। 
    
रही हिन्दू फासीवादियों की बात तो वे पैदाइशी अतीतजीवी हैं। वे सड़ी-गली मध्यकालीन संस्कृति को उतनी ही पतित पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति से मिलाने के हामी हैं। वर्तमान युग पुरुष खुद को फकीर घोषित करता है और अपना नाम कढ़ा हुआ लखटकिया सूट पहनता है। 
    
ये सारे लोग महानता-महानता का खेल खेल सकते हैं। दुर्भाग्यवश उनके बीच होड़ इतनी ज्यादा है कि वे एक-दूसरे को महानता का तमगा नहीं दे सकते। बल्कि कईयों को तो खुद को महान साबित करने का यही रास्ता दीखता है कि वे दूसरों को (अतीत व वर्तमान दोनों) पददलित करें।
    
वैसे राज्य नियंत्रण के इस जमाने में एक काम किया जा सकता है। सरकार कोई ‘ऐतिहासिक व्यक्ति मंत्रालय’ बना सकती है। समय-समय पर वह मंत्रालय लोगों को ऐतिहासिक व्यक्ति घोषित करता रहेगा जैसे आजकल भारत रत्न घोषित किया जाता है। नरेन्द्र मोदी तो अजैविक हो ही गये हैं तो शुरूआत अमित शाह और योगी आदित्यनाथ से की जा सकती है। न्यायाधीशों में रंजन गोगोई सबसे उपयुक्त उम्मीदवार होंगे। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश को भी सूची में रखा जा सकता है। हां, बेचारे विपक्षी जरूर छूट जायेंगे। लेकिन वे इसकी भरपाई कभी सत्ता में आने पर कर सकते हैं। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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