और अब उत्तरकाशी में बवाल

/aur-ab-uttarkaashi-men-bavaal

उत्तराखंड हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला में तब्दील हो चुका है। ताजा मामला उत्तरकाशी का है जहां संयुक्त सनातन धर्म रक्षक संघ नामक हिंदूवादी संगठन द्वारा 24 अक्टूबर को एक जनाक्रोश रैली निकाली गई, जिसमें देवभूमि रक्षा अभियान और श्री राम सेना जैसे हिंदूवादी संगठन भी शामिल रहे। गौरतलब है कि यह जनाक्रोश रैली भयंकर रूप ले चुकी बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे पर न होकर एक मस्जिद को ढहाने की मांग को लेकर थी।
    
इस दौरान जान-बूझ कर तय रूट का उल्लंघन कर रैली को मस्जिद की तरफ से ले जाने की कोशिश की गई। जब पुलिस ने इन्हें ऐसा करने से रोका तो पुलिस पर भारी पथराव किया गया। जवाब में पुलिस ने भी हल्का लाठीचार्ज किया और भीड़ को तितर-बितर कर दिया। इस पथराव में 7-8 पुलिसकर्मी घायल हुये हैं और जिसमें से 2 गंभीर रूप से घायल हैं। भीड़ में शामिल लोगों में भी कुछ लोग घायल हैं।
    
पुलिस ने 200 लोगों समेत 8 लोगों पर नामजद मुकदमा दर्ज किया है; घटना के दो दिन बीत जाने पर नामजद लोगों में से तीन को गिरफ्तार कर शांति भंग की आशंका में 7 दिनों के लिये न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। ये तीनों संयुक्त सनातन धर्म रक्षक संघ के कार्यकर्ता हैं। प्रशासन द्वारा क्षेत्र में बी एन एस की धारा 163 लगा दी गई है जिसके तहत 5 या अधिक लोग एक स्थान पर एकत्र नहीं हो सकते हैं। इसके बावजूद हिंदूवादी संगठनों ने 4 नवम्बर को महापंचायत आयोजित करने की घोषणा की है।
    
निश्चित ही, यदि यहां पुलिसकर्मियों पर पथराव करने वाले मुसलमान होते तो पुलिस ने घर-घर जाकर दबिश दी होती और अभी तक कई मुस्लिम नौजवान रासुका के तहत जेल में ठूंस दिये गये होते; मीडिया इन ‘पत्थरबाजों’ का कश्मीर कनेक्शन खोज इन्हें देशद्रोही घोषित कर चुका होता। लेकिन, यहां पत्थरबाज चूंकि हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता हैं, इसीलिए पुलिस-प्रशासन का रुख इनके प्रति बेहद नर्म है।
    
संयुक्त सनातन धर्म रक्षक संघ कह रहा है कि यह मस्जिद सरकारी जमीन पर बना अवैध निर्माण है इसलिये इसे ढहा देना चाहिये। ऐसे में पहला सवाल तो यही खड़ा होता है कि क्या देश में सभी मंदिरों का निर्माण कानून सम्मत और वैध तरीके से हुआ है? हर कोई जानता है कि नहीं। तो क्या ऐसे मंदिरों को तोड़कर हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत किया जाना चाहिये? जाहिर सी बात है कि नहीं। तो फिर मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को क्यों आहत किया जाना चाहिये? और हिंदूवादी संगठनों को यह अधिकार भला किसने दिया?
    
दूसरी बात, प्रशासन 21 अक्टूबर को ही स्पष्ट कर चुका था कि यह मस्जिद सरकारी नहीं बल्कि निजी जमीन पर बनी हुई है और पूरी तरह से वैध है। इसके बावजूद 24 अक्टूबर को हिंदूवादी संगठनों द्वारा रैली निकालकर माहौल खराब किया जाता है। यदि प्रशासन द्वारा इन्हें तय रूट का उल्लंघन करने से रोका नहीं जाता तो निश्चित ही ये लोग मस्जिद को नुकसान पहुंचाते और उसकी बेअदबी करते, जैसा कि ये देश में जगह-जगह कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के बहराइच में की गई इनकी इस तरह की करतूत इसका एकदम ताजा उदाहरण है।
    
आज संघी फासीवादी उत्तराखण्ड को अपनी नई प्रयोगशाला बनाने में कानून को सरेआम तोड़ने से भी नहीं हिचक रहे हैं। हाल ही में चमोली जिले के खानसार कस्बे में 15 मुस्लिम परिवारों को कस्बा छोड़ने का एक व्यापारी मंडल ने फरमान सुना दिया था। लव जिहाद का हव्वा खड़ा कर ये देहरादून से लेकर हल्द्वानी तक तांडव रच रहे हैं। तांडव रचने में इन्हें राज्य के मुखिया से लेकर पुलिस-प्रशासन की ओर से खुली छूट दी जा रही है। 
    
दरअसल केंद्र और राज्य की सत्ता पर काबिज हिंदू फासीवादी ताकतें जानती हैं कि जब तक ये हिंदू-मुसलमान के ध्रुवीकरण में सफल हैं तभी तक ही ये सत्ता में भी हैं। विगत लोकसभा चुनाव में उत्तर भारतीय राज्यों में नफरत की इनकी राजनीति के बरक्स बेरोजगारी व महंगाई एवं संविधान व लोकतंत्र खत्म करने की इनकी कोशिशें एक हद तक मुद्दा बनीं, परिणामस्वरूप भाजपा साधारण बहुमत भी नहीं हासिल कर सकी और 240 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद से ये अधिक योजनाबद्धता के साथ ध्रुवीकरण की अपनी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं। फिलहाल इनके निशाने पर महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव एवं उत्तराखंड के स्थानीय निकाय चुनाव हैं। मजदूर-मेहनतकश जनता, छात्रों-नौजवानों और महिलाओं को आर एस एस-भाजपा और इनके द्वारा खड़े किये गये तमाम हिंदूवादी संगठनों के असल चरित्र को समझना होगा और इन्हें पीछे धकेलना होगा।

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।