भारतीय अर्थव्यवस्था की गति और नियति

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आजकल भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर की काफी चर्चा है। चर्चा की तात्कालिक वजह जुलाई-सितंबर 2024 की तिमाही में वृद्धि दर का महज 5.4 प्रतिशत तक सिमट जाना है। सरकार ने इसे एक बार की घटना करार दिया है यानी आगे ऐसा नहीं होगा और अर्थव्यवस्था 2024-25 में कुल 6.5-7 प्रतिशत की दर से विकास करेगी। लेकिन सरकार के आलोचक इससे सहमत नहीं हैं और वह अर्थव्यवस्था में विकास की रफ्तार के धीमी पड़ने की बात कर रहे हैं। 
    
भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तात्कालिक घटत-बढ़त से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है इसकी दूरगामी प्रवृत्ति। केवल इस प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही तात्कालिक घटत-बढ़त को सही तरह से समझा जा सकता है। और इस बिंदु पर सरकार तो जाना चाहती है नहीं, सरकार के आलोचक भी नहीं जाना चाहते। इसमें से कुछ अज्ञानता वश ऐसा करते हैं तो कुछ जानबूझकर। 
    
भारतीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर की दूरगामी प्रवृत्ति की बात करें तो आजादी के बाद के 3 दशकों में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर करीब साढे़ तीन प्रतिशत सालाना रही। इसे एक अर्थशास्त्री के.एन. राज ने थोड़ा मजाक और थोड़ा व्यंग्य में ‘हिंदू विकास दर’ का नाम दिया था। इसमें परिवर्तन 1980 के दशक में आया जब इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी सरकार ने उदारीकरण-वैश्वीकरण की ओर कदम उठाए। इस दशक में वृद्धि दर करीब साढ़े पांच प्रतिशत रही। वृद्धि दर में यह बढ़त मूलतः सेवा क्षेत्र में वृद्धि दर में बढ़त से हुई। फिर जब 1990 के दशक में मनमोहन सिंह-नरसिम्हा राव सरकार ने नई आर्थिक नीतियां लागू कीं तो यह वृद्धि दर करीब 6 प्रतिशत हो गई। यह बढ़त भी मूलतः सेवा क्षेत्र में बढ़त के बल पर हुई। सेवा क्षेत्र में भी व्यापार और वित्त के क्षेत्र बढ़त के प्रमुख स्रोत थे। 
    
यहां यह रेखांकित करना होगा कि दो दशकों की यह सारी बढ़त सेवा क्षेत्र के बल पर हो रही थी। 1990 के दशक में तो कृषि में वृद्धि दर कुछ कम ही हुई क्योंकि इस क्षेत्र में सरकारी निवेश और प्रोत्साहन घट गया था। औद्योगिक क्षेत्र में भी वृद्धि दर लगभग पहले जैसी रही। इसके ऊपर यह बात थी कि सेवा क्षेत्र में तेज वृद्धि दर के बावजूद वहां रोजगार उसी दर से नहीं बढ़ रहे थे। उद्योग में रोजगार लगभग स्थिर था। कृषि का हिस्सा सकल घरेलू उत्पाद में लगातार कम होते जाने के बावजूद उस पर निर्भर आबादी उसी अनुपात में कम नहीं हो रही थी। इससे शहर और देहात में फर्क बढ़ता जा रहा था। 
    
इस तरह 1980-90 के दशक में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में जो तेजी आई वह हवाई तेजी थी। कृषि और उद्योग का आधार लगभग जस का तस बना हुआ था। उद्योग में कोई छलांग 2000 के दशक में आई। यही दशक अभी तक सबसे तेज वृद्धि दर का भी दशक रहा है। 2003-4 से सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर करीब 8 प्रतिशत होने लगी। पूरे दशक के लिए यह करीब 7.5 प्रतिशत रही। इस वृद्धि दर से भारत का पूंजीपति वर्ग बेतहाशा खुश हो गया क्योंकि यह वृद्धि दर न केवल सेवा क्षेत्र के और तेजी से बढ़ने बल्कि उद्योग के भी तेज गति से बढ़ने से हुई थी। भारत के अब जल्दी ही चीन को पछाड़ देने की बात होने लगी। देशी-विदेशी कलम घसीट बताने लगे कि भारत चीन से कब आगे निकल जाएगा और कब संयुक्त राज्य अमेरिका से। 
    
पर यह खुशी ज्यादा दिन तक नहीं टिकी। 2010 की शुरुआत से ही संकट आने शुरू हो गए कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर की रफ्तार धीमी पड़ रही है। 2008-9 के विश्व आर्थिक संकट के झटके से भारत सरकार भारी सरकारी निवेश और प्रोत्साहन से भारतीय अर्थव्यवस्था को किसी हद तक बचाने में कामयाब रही थी पर अब जो हो रहा था उसका कोई सीधा स्पष्टीकरण नहीं था। अर्थव्यवस्था लगातार सुस्त पड़ती जा रही थी और सरकार कुछ कर पाने में अक्षम हो रही थी। भारत के बड़े पूंजीपति वर्ग ने ‘पालिसी परालिसिस’ (नीतिगत लकवा) का शोर मचाना शुरू कर दिया। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपाइयों ने सरकार को घेरा और ‘गुजरात माडल’ का पूंजीपतियों के सामने एक आकर्षक प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का वास्तविक मतलब यह था कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार का चाहे जो हो पर मोदी राज में बड़े पूंजीपतियों का मुनाफा खूब बढ़ेगा। बाकी तो, जैसा कहते हैं, इतिहास है। 
    
असल में दशक भर से क्या हो रहा था वह जल्दी ही स्पष्ट हो गया। 7.5 प्रतिशत की तेज वृद्धि दर का राज भी खुल गया। 2016 में नरेंद्र मोदी सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियम ने बाकायदा केंद्र सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के माध्यम से बताया कि भारतीय अर्थव्यवस्था ‘ट्विन बैलेन्स शीट प्राब्लम’ की शिकार है। इसका मतलब यह था कि बड़े पूंजीपति वर्ग की कंपनियों का खाता-बही तथा सरकारी बैंकों की खाता-बही दोनों संकटग्रस्त हैं। दोनों ही भारी घाटा दिखा रहे थे। सरकारी बैंकों ने बहुत बड़े पैमाने पर इन कंपनियों को कर्ज दे रखा था जिन्होंने बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में पैसा लगा रखा था। अब या तो ये परियोजनाएं अधर में लटक गई थीं या पूरा हो जाने पर यथोचित मुनाफा नहीं कमा रही थीं। कुछ तो घाटे में चल रही थीं। ऐसी अवस्था में ये कंपनियां अपना कर्ज नहीं चुका पा रही थीं। 
    
मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद बैंकों के लिए एनपीए (गैर निष्पादित संपत्तियां यानी ऐसा कर्ज जिसका मूल और ब्याज नहीं चुकाया जा रहा था) के बढ़ने का हल्ला तो मचाया पर इसका सारा दोष कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार पर मढ़ा। बड़े पूंजीपति वर्ग की कंपनियों की इसमें भूमिका को वह लगातार छिपाती रही। दूसरी ओर कांग्रेसी भी इस पर चुप्पी साधे रहे क्योंकि इस पर कुछ बोलते ही उनके राज में सबसे तेज वृद्धि दर का वास्तविक चेहरा सामने आ जाता। वे 7.5 प्रतिशत वृद्धि दर का सेहरा तो बांधे रखना चाहते थे पर इसके परिणाम को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उल्टे उन्होंने मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वह बड़े-बड़े पूंजीपतियों का कर्ज माफ कर उन पर सरकारी धन लुटा रही है। आज भी राहुल गांधी आरोप लगाते रहते हैं कि मोदी ने बड़े पूंजीपतियों का 16 लाख करोड़ रुपए का कर्ज माफ कर दिया है। बस वे यह बात छुपा ले जाते हैं कि इन माफ कर्जों की वजह से ही उनके कांग्रेसी राज में 7.5 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल हुई थी। यदि इन कर्जों को माफ करने के बदले वसूला जाता तो शायद समूचा बड़ा पूंजीपति वर्ग दिवालिया होने की ओर बढ़ जाता। मोदी सरकार ने आम जनता की कीमत पर (मोदी राज में सरकारी कर्ज सकल घरेलू उत्पाद के 64 प्रतिशत से बढ़कर 84 प्रतिशत हो गया) उस बड़े पूंजीपति वर्ग को बचाया जिसने कांग्रेसी राज में सरकारी बैंकों से बेतहाशा कर्ज लेकर अर्थव्यवस्था में 7.5 प्रतिशत की वृद्धि पैदा की थी जिस पर कांग्रेसियों को आज भी नाज है।
    
अस्तु, मोदी के ठीक पहले के कांग्रेसी राज में भारतीय अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि दर असल में उधार की वृद्धि थी। और जब उधार चुकाने का समय आया तो यह वृद्धि गायब हो गई। तेज वृद्धि दर के सपनों में जीने वाले पूंजीपति वर्ग को झटका लगा पर आदत से मजबूर वह सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। 
    
सच्चाई यही थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने कभी भी ‘हिंदू विकास दर’ को छोड़ा नहीं था। वास्तविक अर्थव्यवस्था यानी कृषि और उद्योग उसी पुरानी वृद्धि दर पर थे। जो वृद्धि दर तेज हुई थी वह सेवा क्षेत्र के हवाई इलाकों में थी। और जब उद्योग में तेज वृद्धि दर का समय आया तो वह एक अन्य कोण से हवाई साबित हुई। उद्योग की उस तेज वृद्धि दर का कोई पुख्ता आधार नहीं था। देश में उसकी कोई मांग नहीं थी। 
    
असल में इस सारी हवाई तेज वृद्धि का एक खास मतलब था। वह था आय और संपत्ति का समाज के ऊपरी हिस्से में अधिकाधिक संकेंद्रण। ऊपर की एक प्रतिशत आबादी मालामाल होती गई। आज भारत की सालाना प्रति व्यक्ति आय 2800 डालर है। पर यदि इसमें से ऊपरी एक प्रतिशत आबादी को निकाल दिया जाए तो वह महज 1100 डालर रह जाती है। इसमें से यदि ऊपरी 9 प्रतिशत आबादी को निकाल दिया जाए तो शेष 90 प्रतिशत तो भुखमरी की रेखा में ही बचेंगे। 
    
मोदी सरकार को देश की अर्थव्यवस्था की हकीकत समझने में ज्यादा समय नहीं लगा। इसके बाद उसने दो काम किये। एक तो अपने ‘गुजरात माडल’ को केंद्र के स्तर पर लागू करते हुए बड़े पूंजीपति वर्ग पर हर तरह से सरकारी खजाना लुटाना शुरू कर दिया। बैंकों की कर्ज माफी, कर माफी से लेकर भांति-भांति के प्रोत्साहन की बाढ़ आ गई। बड़ा पूंजीपति वर्ग बेतहाशा खुश हो गया। 
    
दूसरे, मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था के आंकड़ों में छेड़छाड़ शुरू कर दी। ढेरों असुविधाजनक आंकड़ों को जारी करना बंद कर दिया गया। कुछ को तो इकट्ठा करना भी बंद कर दिया गया। इसी के साथ वृद्धि दर के फर्जी आंकड़े जारी करने शुरू कर दिए गए। उसी अरविंद सुब्रमणियम ने सलाहकार पद से इस्तीफा देने के बाद में लेख लिखकर बताया कि मोदी सरकार के दौर में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के आंकड़े कई प्रतिशत बढ़ाकर बताये जा रहे हैं। यानी वास्तविक वृद्धि दर साढे 6-7 प्रतिशत के बदले 4-4.5 प्रतिशत ही है। अर्थव्यवस्था के सारे संकेतक इसी ओर इशारा करते हैं।
    
भारतीय अर्थव्यवस्था और उसके बारे में मोदी सरकार के आंकड़ों के इन्हीं हालात में मोदी ने अपने तुगलकी अंदाज में वे तीन फैसले लिए जिनसे अर्थव्यवस्था बद से बदतर होती गई। ये थे- नोटबंदी, जीएसटी और लाकडाउन। यह कुछ ऐसे ही था कि कुपोषण के शिकार किसी व्यक्ति के खाने में बड़ी कटौती कर दी जाए। 
    
नई सदी के दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था के इन हालात को देखते हुए यदि कोई उम्मीद करता है कि अर्थव्यवस्था 6.5-7 प्रतिशत की सालाना दर से विकास करेगी तो या तो उसे इस अर्थव्यवस्था की जरा भी समझ नहीं है, या फिर वह परले दर्ज का धूर्त है। सरकार और उसके समर्थक दूसरी श्रेणी में आते हैं जबकि बाकी पहले श्रेणी में। 
    
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं। 
    
मोदी सरकार ने खुद अर्थव्यवस्था की इस दुर्गति को 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ्त राशन देकर स्वीकार किया हुआ है हालांकि वह इसे शानदार तमगे की तरह पेश करने की कोशिश करती है। वह दिन दूर नहीं जब यह तमगा इस सरकार के गले की चक्की साबित होने लगेगा।

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