हल्द्वानी की हिंसा एक खास पैटर्न का नतीजा जिसमें मुसलमानों को बनाया जाता है निशाना -आकार पटेल

उत्तराखंड में अतिक्रमण हटाने के नाम पर विध्वंस की कार्रवाई और उसके बाद हुई हिंसा में पांच लोगों की मौत, एक ऐसे पैटर्न को रेखांकित करती है जो बीजेपी शासित राज्यों में आम होती जा रही है। पैटर्न साफ है कि सरकार अपने नागरिकों के पीछे पड़ती है और इनमें आम तौर पर मुस्लिम होते हैं।
    
विध्वंस की इन कार्रवाइयों को न्याय से इतर सजा के तौर पर म्युनिसिपल अधिकारियों और पुलिस की मदद से किया जाता है, भले ही इनके बाद सांप्रदायिक हिंसा भड़के या फिर भेदभाव के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आएं।
    
इन पैटर्न को ‘रूट्स आफ रैथ- वैपनाइजिंग रिलीजस प्रोसेशन’ जैसी रिपोर्ट्स में कलमबद्ध किया गया है। अप्रैल 2022 में जारी इस रिपोर्ट को नागरिकों और वकीलों की पहल पर तैयार किया गया है। इसकी प्रस्तावना में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने लिखा है कि रिपोर्ट में (लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट के) निष्कर्षों की पुष्टि होती है और ‘यह सामने आया है कि देश के नौ राज्यों में, अप्रैल 2022 में राम नवमी और हनुमान जयंती समारोह के दौरान, बड़े पैमाने पर गुंडागर्दी और हिंसा हुई।’ इसके बाद ही बुलडोज़र कार्रवाइयां की गईं।
    
एम्नेस्टी इंटरनेशनल (इसका मैं भारत में प्रमुख हूं) की रिपोर्ट में पाया गया कि इसी पैटर्न के तहत लोगों को बेघर कर दिया गया और उनकी रोजी-रोटी छीन ली गई। लोगों को जबरदस्ती उनके आशियानों से निकाल दिया गया, धमकियां दी गईं और पुलिस का बेजा इस्तेमाल किया गया और सामूहिक और एकतरफा दंडनीय तरीके अपनाए गए, जिससे उन व्यवस्थाओं का उल्लंघन हुआ जिससे नागरिकों को भेदभाव से मुक्ति, पर्याप्त आवास और निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार मिलता है।
    
विध्वंस की विभिन्न कार्रवाइयों के लिए या तो मुस्लिमों की ज्यादा आबादी वाले इलाकों में या मुस्लिमों के स्वामित्व वाली संपत्तियों को निशाना बनाया गया। इन इलाकों के नजदीक में या उनसे सटी हुई ऐसी संपत्तियों को छोड़ दिया गया जो सार्वजनिक जमीन पर अतिक्रमण कर बनाई गई थीं, लेकिन उनका स्वामित्व हिंदुओं के पास था। ऐसा खास तौर से गुजरात और मध्य प्रदेश में किया गया।
    
अवैध अतिक्रमण हटाने के लिए मनमाने तरीके से बुलडोजर चलाने के पीछे सरकार का तर्क दरअसल उस हकीकत से एकदम उलट है जहां भवन निर्माण कानून पर अमल तमाम खामियों से भरा हुआ है, जिसके नतीजे में बेशुमार निर्माण बिना अनुमति ही किए जा रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा बनाई गई एक कमेटी ने 2017 की अपनी रिपोर्ट में कहा था, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में निर्माण नियमों की अनदेखी कर करीब 90 फीसदी (इमारतों में) ‘‘अवैध निर्माण’’ किया गया है।
    
मिसाल के तौर पर दिल्ली के सैनिक फार्म का मामला लिया जा सकता है, जो कि एक पाश कालोनी है, और पूरी तरह अवैध है। लेकिन इस कालोनी पर कभी भी बुलडोजर नहीं चला क्योंकि यहां अमीरों के बंगले हैं। मई 2023 की एक समाचार रिपोर्ट की हेडलाइन में इसकी हकीकत पूरी तरह सामने आ जाती है। इसमें लिखा था, ‘दिल्ली के सैनिक फार्मों को नियमित करने की बोली पर शीघ्र कार्रवाई करेंः उच्च न्यायालय’
    
निश्चित रूप से गरीबों और खास तौर से गरीब मुसलमानों को तो ऐसी कोई छूट नहीं दी जाती है। उन्हें तो जबरदस्ती बेदखल कर दिया जाता है, जिसे स्थाई या अस्थाई तौर पर उनकी इच्छा के विरुद्ध उनके घरों या जमीनों से निकाल बाहर किया जाता है, और इसके लिए उनके पास किसी किस्म का कोई कानूनी या अन्य संरक्षण तक नहीं है। किसी को भी जबरदस्ती बेदखल करना मानवाधिकारों का उल्लंघन है, इसमें आवास का अधिकार भी शामिल है।
    
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत, सरकार को सुनिश्चित करना होता है कि असाधारण परिस्थितियों में ही बेदखली की जाए, वह भी तब जब इसके लिए पूरी तरह न्यायिक और वैधानिक प्रक्रिया को कानूनी नियमों की तरह अपनाया जाए। लेकिन न्यू इंडिया में ऐसा नहीं होता है।
    
दरअसल भारत में बुलडोजर कार्रवाई को सरकार में काफी ऊंचे स्तर से उकसाया जाता है, जिसमें सरकारी अफसर सीधे या परोक्ष रूप से मुसलमानों के खिलाफ बुलडोजर चलाने का निर्देश देते हैं। इस बात के विश्वसनीय सबूत हैं कि बुलडोजर कार्रवाइयां मनमाने तरीके से भारत के मुसलमानों को निशाना बनाकर की जा रही हैं। मुसलमानों के खिलाफ जारी पक्षपातपूर्ण तौर-तरीकों को रोकने के बजाए वरिष्ठ राजनीतिक नेता और सरकारी अफसर उन्हें सक्रिय रूप से उत्साहित कर रहे हैं।
    
अप्रैल 2022 में दिल्ली में हुई बुलडोजर कार्रवाई पर बीजेपी प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा ने एक ट्वीट में जेसीबी को ‘जिहादी कंट्रोल बोर्ड’  की संज्ञा दी थी। यह पक्षपात अन्य जगहों पर भी नजर आते हैं। एम्नेस्टी इंटरनेशनल ने जिन विध्वंस की कार्रवाइयों को कलमबद्ध किया था उसके करीब डेढ़ साल बाद भी बेदखल किए गए वे लोग जिनकी रोजी-रोटी भी छिन गई थी, वित्तीय कठिनाइयों के साथ ही इंसाफ का इंतजार कर रहे हैं क्योंकि मामले अभी तक अदालतों में लटके हुए हैं। अदालतें अभी तक सजा के तौर पर की जा रही इन बुलडोजर कार्रवाइयों पर कोई तत्परता नहीं दिखा रही हैं। इसके चलते अधिकारियों और सरकारों को एक तरह से खुली छूट मिल गई है।
    
इन मामलों को उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में उन अर्ध-न्यायिक न्यायाधिकरणों की स्थापना के साथ भी देखा जाना चाहिए, जिन्होंने पिछली हिंसा के कारण नुकसान झेलने वाले हिंदुओं को फौरन राहत दे दी थी, हिंसा और उसके बाद हुए विध्वंस के मुस्लिम पीड़ित अभी भी परेशान हाल हैं और न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
    
रूट्स आफ रैथ रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि हालांकि भारत में सांप्रदायिक हिंसा के दौर पहले भी होते रहे हैं, जिससे अलगाव की भावना मजबूत हो गई है और खास तौर से भारतीय मुसलमानों के लिए सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता में स्थायी बाधाएं पैदा हो गई हैं। लेकिन फिर भी समाज या उसके अधिकारों के साथ ही संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण कम नहीं हुआ और वह वैसा ही है जैसा आज नजर आता है।
    
हिंदुत्ववादी सगंठनों, पुलिस और जिला प्रशासन का सम्मिश्रण एक ऐसा गुट तैयार करता है जो कि नागरिक सेवाओं में एक चरमपंथी वैचारिक गुट बन जाता है। आज हम देख रहे हैं कि इस सबको कई हिस्सों में संस्थागत तरीके से किया जा रहा है, और इससे शासन का एक हिंसात्मक गैर लोकतांत्रिक मॉडल बन रहा है, जो कि कानून के शासन के लिए अभिशाप है।
    
अप्रैल 2022 में प्रधानमंत्री को भेजे एक पत्र में 100 से ज्यादा पूर्व वरिष्ठ सिविल सर्वेंट्स ने कहा था कि कानून का प्रशासन का इस्तेमाल कर अल्पसंख्यकों, खास तौर से मुस्लिम समुदाय में एक निरंतर भय की भावना पैदा की जा रही है। पत्र में कहा गया था कि इस किस्म के सांप्रदायिक उन्माद को शासन के सभी स्तरों पर बढ़ावा दिया जा रहा है, इसमें लोकल पुलिस से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक और वरिष्ठ राजनीतिक नेताओं से लेकर राज्य और केंद्र सरकार तक शामिल हैं।
    
सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने लिखा था कि ‘‘हालांकि हिंसा को वास्तविक रूप से अमल में लाने का काम कथित तौर पर हाशिए के समूहों को आउटसोर्स कर दिया जाता है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये सब करने की जमीन एक खास तरीके से तैयार की जाती है जिसमें एक सामान्य ‘टूल किट’ का इस्तेमाल होता है और एक खास किस्म की स्क्रिप्ट के तहत उस पर कार्रवाई होती है। फिर उनके बचाव में एक पार्टी की प्रचार मशीनरी और सरकार मैदान में उतर आती है।’’
    
नागरिकों और वकीलों के समूह ने अंत में यह कहते हुए निष्कर्ष निकाला है कि, ‘‘सिविल सोसायटी समूह, वकील, अकादमिक और एक्टिविस्ट के बयान और मौजूदा सबूत इस बात की पुष्टि करते हैं कि आज भारत एक निरंतर हिंसा के दौर में पहुंच गया है।’’

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