पुराने पापी को पुरूस्कार

चुनावी साल में पहले मण्डल राजनीति के पुरोधा कर्पूरी ठाकुर को भारत का सर्वोच्च पुरूस्कार भारत रत्न दिया गया और फिर उसके बाद कमण्डल राजनीति के जरिये देश को दंगों की आग में झौंकने वाले राजनेता लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न दिया गया। 
    
भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी को दिये जाने वाला सांत्वना पुरूस्कार भी है। क्योंकि यह व्यक्ति इस पुरूस्कार से ज्यादा दावा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद का रखता रहा है। और उनकी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा की राह में पहले रोड़ा अटल बिहारी बाजपेयी और बाद में उनके अपने प्रिय चेले नरेन्द्र मोदी बन गये। और जब अनुमान लगाया जा रहा था कि मोदी उन्हें राष्ट्रपति बनायेंगे। तब उन्हें मार्गदर्शक मण्डल में भेजकर राजनैतिक अंधियारे में धकेल दिया गया था। लेकिन चुनावी साल उनको अंधियारे से बाहर निकाल लाया। और फिर उन्हें नहला-धुलाकर भारत रत्न का पात्र घोषित कर दिया गया। भारत में राजनीति कैसे-कैसे को भारत रत्न दिला देती है। 
    
कोई पूछे कि आडवाणी महाशय का भारत की राजनीति में क्या योगदान है। तो इसका एक ही जवाब होगा कि इस आदमी का मुख्य योगदान बाबरी मस्जिद के ध्वंस को षड्यंत्रकारी ढंग से अंजाम देना है। इसके लिए उन पर सालों साल मुकदमा चलता रहा और अंत में मोदी राज में उन्हें ‘‘साक्ष्यों के अभाव’’ में वर्ष 2020 में बरी कर दिया गया। प्रपंच में उस्ताद भाजपा-संघ के नेताओं की तरह आडवाणी ने अपनी जीवनी में लिखा कि वे बाबरी मस्जिद के ध्वंस से दुखी थे। इसी दुखी आत्मा ने कभी पाकिस्तान में जाकर मोहम्मद अली जिन्ना को धर्म निरपेक्ष घोषित कर दिया था। यह बात संघ-भाजपा को इतनी नागवार गुजरी थी कि बेचारे आडवाणी की खूब लानत-मलामत की गयी। 
    
वैसे बाजपेयी, आडवाणी और मोदी आदि सभी अपने को समय-समय पर धर्मनिरपेक्ष भी कहते रहे हैं। ये पहले धर्म को आधार बनाकर राजनीति करते हैं और फिर जब सत्ता हासिल कर लेते हैं तो अपने धर्म को राष्ट्र धर्म घोषित करने के बाद धर्मनिरपेक्षता का तमगा पहन लेते हैं। ‘सबका साथ-सबका विश्वास’ जैसी बातें उछालने वाले चाहते हैं कि ‘‘जय श्री राम’’ जैसा धार्मिक नारा चुपचाप हर धर्म, हर पंथ, हर व्यक्ति अपना ले। जो इस नारे या इनकी बातों को न माने तो इनके हिसाब से वह छद्म धर्मनिरपेक्षवादी है। 
    
बाजपेयी, आडवाणी के बाद अब भारत रत्न की सूची में स्वयं मोदी, मोहन भागवत, अमित शाह, योगी आदि का नाम आने वाले वर्षों में सुनायी देगा। कितने अफसोस की बात है अब भारत ऐसे ही रत्न उगल रहा है। 

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।