इस समय संयुक्त राज्य अमेरिका की संघीय सर्वोच्च अदालत में इस बात को लेकर मुकदमा चल रहा है कि क्या 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद डोनाल्ड ट्रम्प समर्थकों ने जो विद्रोह करने की कोशिश की थी और जिसमें ट्रम्प की प्रत्यक्ष भूमिका थी उसके मद्देनजर उन्हें इस बार राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाये? संविधान की शपथ लेकर संविधान सम्मत चुनाव के खिलाफ यदि कोई राष्ट्रपति जनता को विद्रोह के लिए उकसाता है तो क्या उसे फिर चुनाव लड़ने का अधिकार है?
यह मुकदमा इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि अभी डोनाल्ड ट्रम्प रिपब्लिकन पार्टी की ओर से सबसे मजबूत उम्मीदवार लग रहे हैं और डेमोक्रेटिक पार्टी के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन का जैसा कार्यकाल रहा है उसे देखते हुए ट्रम्प के जीत जाने की पूरी संभावना है। इस तरह यदि अदालत ट्रम्प को चुनाव लड़ने से रोक देती है तो वह प्रकारान्तर से जन भावना को निरस्त करती है जो कि जनतंत्र का आधार है। यानी जनता जिसे राष्ट्रपति बनाना चाहती है, अदालत उसे राष्ट्रपति बनने से रोक देती है। दूसरी ओर यदि ट्रम्प संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ जन आक्रोश को भड़का कर भी उसी संविधान के तहत फिर राष्ट्रपति बन जाते हैं तो यह संविधान और संवैधानिक व्यवस्था को ठेंगा दिखा सकता है और फिर उसी के तहत शासन कर सकता है। ऐसा राजशाही या एकतंत्र में तो हो सकता है पर जनतंत्र में इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती।
अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय, जिसमें रिपब्लिकन पार्टी द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों का बहुमत है, क्या फैसला देता है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है वह दुविधा जो इसके चलते पूंजीवादी जनतंत्र के समर्थकों के सामने पैदा हो गई है। पूंजीवादी जनतंत्र के हिसाब से जनता सार्वभौम होती है। पर जनता की यह सार्वभौमिकता स्थापित तंत्र के जरिये ही अभिव्यक्त हो सकती है। यहां से जन और तंत्र के बीच एक अंतर्विरोध पैदा हो जाता है। स्थिति तब विकट हो जाती है जब किन्हीं स्थितियों में जन और तंत्र आमने-सामने खड़े हो जाते हैं। तब क्या हो? क्या जन को प्राथमिकता दी जाये या तंत्र को और वह भी तब जब जन को प्राथमिकता देने से जन की सार्वभौमिकता को अभिव्यक्त करने वाले तंत्र के ही समाप्त हो जाने का खतरा हो यानी जनतंत्र के भीड़तंत्र में रूपान्तरित हो जाने का खतरा हो!
जब से पूंजीवादी जनतंत्र अस्तित्व में आया है तब से जन और तंत्र के बीच यह द्वंद्व मौजूद रहा है। पूंजीवादी जनतंत्र के एकदम शुरूआती विचारकों के लिए भी इस द्वंद्व को तथा इसमें निहित खतरे को देख लेना मुश्किल नहीं था। लेकिन तब भी उन्होंने सोचा इस द्वंद्व से किसी तरह निपट लिया जायेगा।
उनके ऐसा सोचने का कारण था। वे नयी उभरती अपनी पूंजीवादी व्यवस्था को प्राकृतिक मानते थे यानी यह प्रकृति और मानव स्वभाव के सबसे अनुकूल थी। ऐसे में इसका अपनी समस्याओं से निपट लेना सहज था जैसा कि प्रकृति में होता है। दूसरा उन्होंने अपने पूंजीवादी जनतंत्र की धारणा को सम्पत्तिवान और शिक्षित लोगों तक सीमित रखा था। यानी जनतंत्र में भागीदार केवल सम्पत्तिवान और शिक्षित थे। चूंकि इनके हित मोटामोटी समान थे, वे आपसी मतभेदों को मिल बैठकर सुलझा सकते थे। इसी से यह बात चलन में आई कि जनतंत्र में प्रतिद्वंद्वी तो होते हैं पर दुश्मन नहीं। विपक्ष निष्ठावान विपक्ष होता है।
व्यवहार में इसका मतलब था कि तब पूंजीवादी जनतंत्र शासक वर्गों का जनतंत्र था। शासित-शोषित लोग इससे बाहर थे। अब आम तौर पर किसी देश के शासक वर्ग के भीतर इतना टकराव नहीं होता कि चीजें हाथ से निकलने लगें। वहां हितों की पर्याप्त एकता होती है। ऐसे में जन और तंत्र का द्वंद्व एक दायरे में सीमित होता है।
स्थिति तब बदल जाती है जब पूंजीवादी जनतंत्र में वास्तविक जन यानी शोषित-शासित लोग शामिल हो जाते हैं। शोषकों और शोषितों के हित विपरीत होते हैं। दूसरे पूंजीवादी जनतंत्र में शामिल हो जाने के बाद भी वे शासित की स्थिति में ही रहते हैं। चुनाव के जरिये शासन का निर्माण वे करते हैं पर वे शासक नहीं होते। दूसरी ओर शासन करने वाले नेता और पार्टियां जन समर्थन के लिए आपस में प्रतियोगिता करते हैं। संकटपूर्ण समयों में इस प्रतियोगिता के शत्रुता में बदल जाने की संभावना होती है। तब यह भी संभावना पैदा हो जाती है कि जन और तंत्र आमने-सामने खड़े हो जायें। बीसवीं सदी के पहले हिस्से में यही हुआ जिसकी सघन अभिव्यक्ति फासीवाद-नाजीवाद में हुई।
पूंजीवादी दायरों में पूंजीवादी जनतंत्र की इस विकट बुनियादी समस्या का समाधान ‘कल्याणकारी राज्य’ में खोजा गया। प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर मान लिया गया कि पूंजीवादी जनतंत्र तभी स्थिर और स्थाई हो सकता है जब जन की जिन्दगी बेहतर हो रही हो तथा शोषकों पर एक अंकुश हो। यानी जनतंत्र में भागीदारी के साथ अर्थतंत्र से भी जन को कुछ मिलना चाहिए। इसे ही सामाजिक जनतंत्र का नाम दिया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप-अमेरिका में कम या ज्यादा मात्रा में यह ‘कल्याणकारी राज्य’ कायम किया गया। इस संदर्भ में यह नहीं भूलना होगा कि तब दुनिया में समाजवाद और मजदूर वर्ग की मजबूत पार्टियों की मौजूदगी के कारण जन की आकांक्षाएं बहुत बढ़ गयी थीं। शासक पूंजीपति वर्ग भी इससे भयभीत था।
अब पिछले तीन-चार दशकों में हुआ यह है कि पूंजीवादी जनतंत्र को स्थिरता और स्थाईत्व प्रदान करने वाले इसी ‘कल्याणकारी राज्य’ को क्रमशः क्षरित कर दिया गया है। शासक-शोषक पूंजीपति वर्ग ने मजदूर-मेहनतकश जनता को एक बार फिर उन्नीसवीं सदी में ढकेलने की कोशिश की है।
अब उन्नीसवीं सदी के अंत तक आम जन तो पूंजीवादी जनतंत्र में थे नहीं। पर अब तो वे हैं। उन्हें पूंजीवादी जनतंत्र से बाहर भी नहीं किया जा सकता। ये जन जब देखते हैं कि तंत्र उनके लिए काम नहीं कर रहा है तो वे या तो स्वयं तंत्र पर हमला कर देते हैं या फिर ऐसी पार्टियों और नेताओं के पीछे गोलबंद हो जाते हैं जो तंत्र के खिलाफ जन को भड़काते हैं। इसके लिए ये लोग स्वयं को सत्ता प्रतिष्ठानों से बाहर के व्यक्ति के रूप में पेश करते हैं। ये नेता और पार्टियां अपनी सत्ता की भूख के लिए पूंजीवादी जनतंत्र के जन और तंत्र को आमने-सामने खड़ा कर देते हैं। पूंजीवादी जनतंत्र एक असमाधेय संकट की ओर बढ़ने लगता है।
पूंजीवादी जनतंत्र के यूरोपीय-अमेरिकी झंडाबरदारों ने बीसवीं सदी के पहले हिस्से के अपने इतिहास से आंखें मूंदकर यह प्रचारित करना शुरू किया कि तीसरी दुनिया के नये आजाद हो रहे देशों के लोग उनकी तरह जनतंत्र के हामी नहीं हैं। वे स्थिर और स्थाई जनतंत्र कायम नहीं कर सकते। कि ‘कानून का शासन’ लागू नहीं कर सकते।
आज उनका दंभ उनको ही मुंह चिढ़ा रहा है। ‘दुनिया के सबसे पुराने’ जनतंत्र में एक राष्ट्रपति स्वयं ही संवैधानिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ा रहा है। वह जन को भीड़ में बदलकर तंत्र को तार-तार कर रहा है। वह वहां वही कर रहा है जिसके आरोप तीसरी दुनिया के लोगों पर लगते रहे हैं।
बात स्पष्ट है। ऐसा नहीं है कि यूरोप-अमेरिका के जन एक किस्म के हैं और तीसरी दुनिया के जन दूसरी किस्म के। एक जनतंत्र के हामी हैं तो दूसरे जनतंत्र के विरोधी। बात कुछ और है। एक स्थिर और स्थाई पूंजीवादी जनतंत्र तभी तक विद्यमान रह सकता है जब ‘कल्याणकारी राज्य’ हो। किसी हद तक यह यूरोप-अमेरिका के साम्राज्यवादी देशों में ही संभव हो पाया था जो सारी दुनिया को लूट रहे थे। तीसरी दुनिया के देशों में तो यह ‘कल्याणकारी राज्य’ बस एक छलावा भर था। और जब शासक पूंजीपति वर्ग ने साम्राज्यवादी देशों में कायम ‘कल्याणकारी राज्य’ को तहस-नहस करना शुरू कर दिया तो वहां भी हालात तीसरी दुनिया जैसे होने लगे। अमरीकी संसद पर ट्रम्प के समर्थकों का धावा यदि किसी तीसरी दुनिया के देश की राजधानी जैसा लग रहा था तो इसी कारण कि वहां जन की स्थिति भी तीसरी दुनिया के जन सरीखी होने लगी है।
आज यूरोप-अमेरिका में भी जन यह महसूस करते हैं कि तंत्र उनका नहीं है, कि यह उनके लिए काम नहीं करता। कि सत्ता प्रतिष्ठान उनके लिए पराये और बाहरी हैं। यह एहसास राजनीति के प्रति एक उदासीनता को जन्म देता है जो चुनावों में एक भारी आबादी के वोट न डालने में अभिव्यक्त होता है। लेकिन जब स्थिति ज्यादा संकटपूर्ण होने लगती है तब यह उदासीनता गुस्से में बदलने लगती है। इस गुस्से को भुनाने वाले लोग सामने आने लगते हैं। वही पूंजीपति वर्ग, जो इस सारी चीज के लिए जिम्मेदार होता है, वह इस तरह के लोगों को सामने लाने लगता है। वह इन्हें पैसा और प्रचारतंत्र उपलब्ध कराने लगता है। वह पूरी कोशिश करता है कि जन का गुस्सा पूंजीवादी व्यवस्था की ओर न मुड़े।
लेकिन जन के आक्रोश को भुनाने की कोशिशें कोई न कोई परिणाम तो पैदा करेंगी। और यह सामने आता है पूंजीवादी जनतंत्र के तंत्र पर निरंतर हमले के रूप में। तंत्र का यह विध्वंस अपनी बारी में भीड़तंत्र या फासीवाद का रास्ता साफ करता है। पूंजीपति वर्ग को इससे गुरेज नहीं होता। उसे जनतंत्र से कोई खास लगाव नहीं होता। उसे तो बस अपनी पूंजी और उसको सुरक्षित रखने वाली व्यवस्था से प्यार होता है। इसीलिए जब उसके खुद के कुकर्मों का परिणाम फासीवाद के रूप में सामने आता है तो वह उसे गले लगा लेता है। बल्कि वह स्वयं ही एक वैकल्पिक सुरक्षा पंक्ति के रूप में फासीवादियों को पालता-पोषता है।
इसीलिए आज फासीवादी और अर्द्ध-फासीवादी शक्तियों के उभार को आज की पूंजीवादी व्यवस्था की गति तथा स्वयं शासक पूंजीपति वर्ग की इच्छाओं और कार्रवाईयों से अलग नहीं किया जा सकता। ट्रम्प कोई आसमान से टपका व्यक्ति नहीं है। वह रोनाल्ड रीगन का ही आधुनिक संस्करण है। बुश सीनियर और जूनियर बीच की कड़ियां हैं। और इन्हें बिल क्लिन्टन और बराक ओबामा सरीखे लोगों के व्यवहार से काटकर नहीं देखा जा सकता।
आज पूंजीवादी जनतंत्र के समर्थकों की दिक्कत यह है कि वे डोनाल्ड ट्रम्प सरीखे नेताओं को स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था की गति का परिणाम नहीं समझते। वे इन्हें जादूगर या मदारी समझते हैं जो अचानक प्रकट होकर डुगडुगी बजाता है और बच्चे उसके चारों और इकट्ठे हो जाते हैं। ये लोग असल में सच्चाई को समझना भी नहीं चाहते। क्योंकि तब उन्हें ‘कल्याणकारी राज्य’ के खात्मे तथा उदारीकृत पूंजीवाद के सवाल से टकराना पड़ेगा जिसका ये घनघोर समर्थन करते हैं। तब उन्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि यदि डोनाल्ड ट्रम्प सरीखे नेताओं को प्रकट होने से तथा जन और तंत्र के आमने-सामने खड़े होने से रोकना है तो ‘कल्याणकारी राज्य’ की पुनर्वापसी जरूरी है। यह वह कड़वा निष्कर्ष है जिससे वे हर कीमत पर बचना चाहेंगे।
और उन्हें बचना भी चाहिए। यदि ‘कल्याणकारी राज्य’ को वापस ही लाना था तो उसे विदा ही क्यों किया गया? उसके लिए इतनी लम्बी-चौड़ी सैद्धान्तिक कवायद क्यों की गई? इसी में आज की विश्व पूंजीवादी व्यवस्था की और भी ज्यादा गंभीर समस्या निहित है।
पूंजीवाद ने सदी भर में छुट्टे पूंजीवाद, ‘कल्याणकारी राज्य’ तथा फिर छुट्टे पूंजीवाद की यात्रा पूरी कर ली है। आज एक बार फिर छुट्टे पूंजीवाद का चौतरफा संकट सामने है। क्या पूंजीपति वर्ग फिर उसी चक्र को दोहरायेगा? क्या पूंजीपति वर्ग अपने निकट इतिहास से सबक लेकर बुद्धिमान हुआ है? ऐसा नहीं कहा जा सकता।
पूंजीपति वर्ग की त्रासदी यही है कि वह अपनी पूंजी और उसके मुनाफे से ज्यादा दूर नहीं देख पाता। उसकी पूंजी की गति ही उसे संचालित करती है। वह उसका गुलाम होता है। इसीलिए महामंदी और दो-दो विश्व युद्धों की विभीषिका को गुजरे तीन दशक भी नहीं होते कि वह फिर उसी पुराने रास्ते पर लौट पड़ता है जो विभीषिका की ओर ले गये थे।
इसीलिए आज पूंजीवादी जनतंत्र में जन और तंत्र के आमने-सामने खड़े होने के ज्यादा व्यापक आयाम हैं जिधर देखने की हिम्मत पूंजीवादी जनतंत्र के समर्थकों में नहीं है। अपनी इस कायरता को वे जनतंत्र के किसी अमूर्त असमाधेय द्वंद्व के रूप में ढंकने का प्रयास करते हैं। वे इसे छिपाने का प्रयास करते हैं कि इस द्वंद्व के पीछे असल में शोषकों और शोषितों, शासकों और शासितों का द्वंद्व छिपा हुआ है जिसका अस्थाई समाधान ‘कल्याणकारी राज्य’ में तथा स्थाई समाधान एक ऐसे समाज के निर्माण में है जहां शासक और शासित तथा शोषक और शोषित का द्वंद्व न हो यानी वर्ग विहीन समाज। तभी जन और तंत्र के बीच के द्वंद्व का भी समाधान होगा।
पूंजीवादी जनतंत्र में जन और तंत्र
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को