1 मई मजदूरों की शानदार विरासतों में से एक है। काम के घंटे कम करने के संघर्ष से जुड़ा 1 मई का दिन आज भी पूरी दुनिया में मनाया जाता है और भविष्य में भी इसे मनाया जायेगा। रूस के क्रांतिकारी मजदूर वर्ग ने अपने संघर्ष में मई दिवस के दिन को क्रांतिकारी जोश व उत्साह को पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया। जब रूस में फरवरी क्रांति सम्पन्न हुयी और पूंजीवादी युद्ध बन्द नहीं हुआ तो 1 मई को उन्होंने रोटी, शांति और जमीन की मांग को उठाकर व्यापक प्रदर्शन किये। उसके बाद अक्टूबर समाजवादी क्रांति को उन्होंने सम्पन्न किया। मई दिवस का दिन अंतर्राष्ट्रीयतावाद का शानदार उदाहरण है।
पूंजीवादी इतिहास के दौर में एक समय ऐसा भी था जब मजदूरों के लिए काम के घंटे तय ही नहीं थे। उन्हें सूर्योदय से सूर्यास्त तक फैक्टरियों, कल-कारखानों और खदानों में खटना पड़ता था। मजदूर अपने परिवार के साथ वक्त ही नहीं बिता पाते थे। वे अपने बच्चों को सोता हुआ छोड़कर काम पर जाते थे और जब तक वापिस आते तब तक बच्चे सो चुके होते थे। काम के अत्यधिक घंटे, रहने के नारकीय आवास व भोजन की कमी ने मिलकर उनकी औसत उम्र को काफी गिरा दिया था। पहले मजदूरों ने 15-16 घण्टे काम के दिन को कम करने के लिए संघर्ष किया और काफी संघर्ष के बाद वे कुछ देशों में काम के घण्टे 10-12 तक लाने में कामयाब हुए। पर इतने से मजदूरों की हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ। बल्व के आविष्कार के बाद पूंजीपति मजदूरों से और अधिक काम कराने की कोशिश करने लगे। मजदूरों का अपने शोषण के प्रति गुस्सा बढ़ता गया और मजदूर आंदोलन का वह नारा जो 1 मई 1886 के शिकागों के मजदूरों का भी नारा था अधिकाधिक लोकप्रिय होता गया। वह नारा था : आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन।
1886 में काम के घंटे आठ के आंदोलन का मुख्य केन्द्र बना अमेरिका का शिकागो शहर। यहां इस आंदोलन का संगठन करने वाले थे मजदूर नेता पार्सन्स व स्पाइस। पार्सन्स एक धारा प्रवाह वक्ता व सक्षम वकील थे। वहीं स्पाइस जर्मन मजदूर अखबार ‘आर्बिटेर जीटुंग’ के सम्पादक थे। 1883 में बने अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ के संस्थापकों में पार्सन्स व स्पाइस भी थे। इस संघ ने काम के घण्टे आठ करने के लिए संघर्ष किया। पार्सन्स ‘शिकागो की आठ घंटे लीग’ के सचिव थे। उनके नेतृत्व में शिकागो शहर व पूरे अमेरिका में आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा था।
जैसे-जैसे आंदोलन गति पकड़ता जा रहा था वैसे-वैसे पूंजीपति वर्ग भयभीत हो रहा था। उसे अपने स्वर्ग का सिंहासन डांवाडोल होता दिखायी दे रहा था। और उसके इस स्वर्ग को बचाने के लिए सरकार, पूंजीवादी बुद्धिजीवी, पुलिस, सेना, न्यायालय, अखबार बड़ी तत्परता से काम कर रहे थे। वे पूरी कोशिश करके आठ घंटे आंदोलन को गैर अमेरिकी करार दे रहे थे। वे हर हड़ताली को विदेशी और हर विदेशी को कम्युनिस्ट घोषित कर रहे थे और उनका दमन कर रहे थे वहीं अखबार पूंजीपति वर्ग की दास मालिकों वाली भावना को व्यक्त करते हुए कह रहे थे कि जरूरत पड़े तो शिकागो के हर लैम्प पोस्ट को एक कम्युनिस्ट लाश से सजा दिया जाये ताकि चौतरफा आगजनी या उनके किसी प्रयास को रोका जा सके। (ज्ञात हो कि दास युग में विद्रोही दासों को सलीब पर लटका दिया जाता था।)
काम के घंटे आठ के आंदोलन के चरित्र की एक ओर विशेषता इसका नस्लीय चरित्र का न होना और अंतर्राष्ट्रीयवादी होना था। इस आंदोलन में साठ हजार नीग्रो शामिल थे और न्यूयार्क का उसका नेता फ्रेंक फेरेल एक राष्ट्रीय नेता था। विदेशी मूल के अकुशल मजदूर हजारों की तादाद में इसमें शामिल हो रहे थे। महिला मजदूरों की इस आंदोलन में बढ़ चढ़कर भागीदारी थी। नाइट्स आफ लेबर में फिर भी कुछ स्थानीय दृष्टिकोण मौजूद था वहीं अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर जो 1886 में ही बना था, का आधार ही अमेरिका व कनाडा मूल के कुशल मजदूरों में था। यह गठा-गठाया संगठन था और इसके चरित्र का पता इसी घोषणा से चलता है।
इसकी घोषणा के अनुसार,‘‘ दुनिया भर के देशों में सभी देशों के उत्पीड़कों और उत्पीड़ितों के मध्य एक संघर्ष चल रहा है। यह श्रम और पूंजी के बीच का संघर्ष है जिसकी तीव्रता साल दर साल बढ़नी तय है। यदि सभी देशों के दसियों लाख मेहनतकश परस्पर सुरक्षा व लाभ के लिए एक नहीं होते तो इस संघर्ष के उनके लिए घातक परिणाम होंगे।’’ जब यह संगठन अपने मौजूदा स्वरूप में नहीं आया था तभी 1884 में ही इसने 1 मई 1886 को आठ घंटे काम के लिए हड़ताल का प्रस्ताव पारित किया था। 1886 में भी 1 मई को हड़ताल का आहवान किया गया था।
शिकागो शहर में नाइट्स आफ लेबर व अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर के बैनर तले मजदूर इकट्ठा हो रहे थे। इन मजदूरों में मैकेनिक, गैस फिटर, प्लम्बर, लोहे की ढलाई करने वाले, ईंट बनाने वाले, बूचड़खाने वाले, खिलौने बनाने वाले, मोची का काम करने वाले, छपाई करने वाले समेत सभी तरह के मजदूर शामिल थे। जैसे-जैसे 1 मई का दिन करीब आता जा रहा था वैसे-वैसे शहर में उत्तेजना का माहौल पैदा होता जा रहा था। मजदूरों में आतंक पैदा करने के लिए पूंजीपति वर्ग की पुलिस व सेना को इकट्ठा तो किया ही जा रहा था जो शहर की सड़कों व गलियों में मार्च कर रही थी लेकिन पूंजीपति वर्ग इतने से ही संतुष्ट नहीं था। वह अपनी निजी सेना भी इकट्ठा कर रहा था। शिकागो के अखबार पार्सन्स व स्पाइस के खिलाफ जहर उगल रहे थे तथा किसी भी घटना के लिए इनको जिम्मेदार ठहरा कर इन्हें सजा देने की बात कर रहे थे।
दरअसल पूंजीपति वर्ग इस बात से भी भयभीत था कि पेरिस कम्यून को गुजरे अभी 15 साल ही हुये थे। पेरिस कम्यून की यादें उसे चैन से नहीं बैठने दे रही थीं। उसे डर था कि कहीं शिकागो के मजदूर भी ऐसा न कर दे कि शहर पर कब्जा कर लें। शिकागो की कुछ यूनियनों ने पुलिस व सेना की दमन की प्रति कार्यवाही के लिए हथियार जुटाने का काम शुरू कर दिया था।
हड़ताल के तय समय पर यानी 1 मई 1886 को शिकागो के मजदूर सड़कों पर उतर आये। सरकारी मशीनरी भी पूरी तैयारी के साथ सड़कों पर थी। तथा किसी भी मामूली घटना को बहाना बनाकर वह मजदूरों व उनके परिवारों पर गोलियां चलाने के लिए बेताब थी। सड़कों, गलियों, छतों हर जगह व मौजूद थी। राज्य सैन्य भवन में सैनिकों का जमावडा किसी भी क्षण मार्च करने को तैयार था। एक केन्द्रीय कार्यालय में ‘नागरिक कमेटी’ के लोग यानी पूंजीपति लगातार बैठकें कर रहे थे।
उधर सड़कों पर मजदूरों व उनका पूरा परिवार अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने मिशीगन भवन की तरफ जा रहे थे। शांत चित्त, प्रसन्न लोग गाना गाते हुए 80 हजार की संख्या में शिकागो शहर की सड़कों पर थे। स्पाइस व पार्सन्स भी इस जुलूस में शामिल थे। शिकागो की एक मेल के अनुसार पूरे देश में तीन लाख चालीस हजार मजदूर सड़कों पर थे। इनमें 1 लाख नब्बे हजार हड़ताल पर थे। इस जुलूस में पोलेण्ड, कनाडा, जर्मनी, रूसी, आइरिश, इटैलियन, नीग्रो आदि तमाम मूल के मजदूर शामिल थे। इनमें कैथोलिक, यहूदी और प्रोटेस्टेन्ट सभी थे। जुलूस के आगे पार्सन्स चल रहे थे। सड़कों पर मार्च के बाद सभा हुयी। सभा में अंग्रेजी, बोहिमाई, जर्मन व पोलिश भाषा में भाषण हुये। पार्सन्स ने भी भाषण दिया तथा स्पाइस के भाषण के बाद हड़ताल का दिन समाप्त हुआ और सभी मजदूर अपने-अपने घरों को लौट गये।
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