नाचे कूदे बंदर अउरी माल खाए मदारी

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भारत में बंदरों की बहुतायात है। ये हर जगह हैं। हर शहर हर गांव में आपको बंदर मिल जायेंगे। यहां तक कि नये-नये बनाये गये हाइवे के किनारे भी आपको जगह-जगह बंदर मिल जायेंगें। ये बंदर बेचारे तो इंतजार करते रहते हैं कि इनकी ओर कोई चना, केला, मूंगफली या फिर बचे हुए ब्रेड या बिस्कुट उछाल दे। ये बंदर आपके भीतर छिपी करुणा जगा देते हैं। 
    
इन बंदरों के अलावा कुछ और बंदर हैं जिन्हें मदारी अपने इशारे पर नचाता है। इन बंदरों को मदारी तभी पकड़ लेता है जब वे एकदम बच्चे होते हैं। अगर बंदर को उसके बचपने में न पकड़ा जाये तो वयस्क बंदर को तो कोई भी मदारी नाच नहीं सिखा सकता है। इसलिए बंदर जब पेड़ की शाखा में अभी नाचना-फादना नहीं सीख पाता तभी उसे मदारी अपनी शाखा में ले आता है। ये ऐसे-वैसे बंदर नहीं बल्कि ये शिक्षा-प्रशिक्षा पाये बंदर हैं। 
    
मदारी गाना गाता है, ‘‘नाच मेरी बंदरिया पैसा मिलेगा, कहां तुझे कदरदान ऐसा मिलेगा।’’ बंदरिया ऐसा नाच दिखाती है कि कद्रदान पैसों की बरसात कर देते हैं। इधर नाच खत्म उधर सारे पैसे मदारी की जेब में। बंदर को मिलते हैं सूखे चने और मदारी आराम से माल उड़ाता है। 
    
इस कहानी में आप आराम से बंदरों की पहचान कर उनके नाम जोड़ सकते हैं और फिर उतने ही आराम से आप मदारी के नाम का चयन कर सकते हैं। बंदरों और मदारी की पहचान का काम जितना आसान है उनसे निजात पाने का काम उतना ही कठिन है। 

आलेख

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।