नाम बड़े और दर्शन छोटे

एक कहावत है, ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’। यह कहावत एक साथ संसद के विशेष सत्र और कथित ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ पर लागू होती है। 
    
संसद के विशेष सत्र को लेकर करीब दो सप्ताह तक खूब कयासबाजी चलती रही। मोदी सरकार ने इस कयासबाजी को हवा देने के लिए रहस्यमयी व्यवहार किया। अंततः यह बात सामने आयी कि मोदी सरकार एक दिवालिया सरकार है। इस सरकार को चलाने वाले श्रीमान मोदी प्रचार के भूखे हैं और इतिहास में अमर होने के भीषण रोग से ग्रस्त हैं और उनके फैसले महज तुगलकी हैं। कोई भी काम सोच-विचार कर, सबसे परामर्श से करने के स्थान पर हर किसी को हतप्रभ करने अथवा अपने को श्रेष्ठ, पराक्रमी दिखाने के लिए करते हैं। 
    
विशेष सत्र क्यों बुलाया गया का प्रश्न सत्र के पहले अजूबा था परन्तु सत्र हो जाने के बाद हास्य का पात्र था। इतनी ही बात सामने आयी कि जैसे मोदी हर समय प्रचार व कैमरा चाहते हैं यह विशेष सत्र महज इसीलिए ही था क्योंकि नया संसद भवन उनके उद्घाटन के बाद भी, ‘सेंगोल’ की प्राण प्रतिष्ठा के बाद भी काम करने लायक नहीं था; इसलिए पिछला सत्र- मानसून सत्र- वहां नहीं हो सका था। संसद की कार्यवाही के लिए वहां तकनीकी इंतजाम तक नहीं थे। बाद में जब बंदोबस्त हो गया तो विशेष सत्र बुला लिया गया। अब सत्र है तो कोई न कोई काम होना चाहिए था इसलिए पहले संविधान सभा के 75 साल पर चर्चा और फिर एक शिगूफे के तौर पर महिला आरक्षण बिल पेश कर दिया गया। 75 साल की चर्चा भारत के पुराने संसद भवन की श्रद्धांजलि सभा थी। मोदी ने अपने व्यवहार के उलट नेहरू की प्रतिमा पर भी दो सफेद फूल चढ़ा दिये। कुछ-कुछ प्रशंसा बाकियों की भी कर दी। 
    
फिर एक तमाशा किया गया। पुराने संसद भवन से नये संसद भवन में जाने का। और उसके साथ महिला आरक्षण विधेयक को पेश कर दिया गया। विपक्षी तमाशबीन बनकर पुराने और नये संसद भवन में मदारी के पीछे घूमते रहे। गाजे-बाजे के साथ महिला आरक्षण बिल दोनों सदन में पास हो गया। 
    
विशेष सत्र मोदी के द्वारा मोदी के लिए मोदीमय तमाशा बन गया। नये संसद भवन और विशेष सत्र पर जनता के करोड़ों रुपये यूं फूंक दिये गये। जनता को क्या हासिल हुआ। कुछ नहीं।  

आलेख

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को