नेपाल में भी नीतिश कुमार...

ऐसा नहीं है कि भारत में ही नीतिश कुमार, रामविलास पासवान, रामदास अठावले जैसे नेता पाये जाते हैं बल्कि सभी जगह पाये जाते हैं। हमारे पड़ोसी देश नेपाल के नीतिश कुमार तो फिलहाल पुष्प कमल दहल ‘‘प्रचण्ड’’ बने हुए हैं। ये महाशय एक साल में तीसरी बार नेपाली संसद में विश्वास मत हासिल करेंगे। 
    
‘‘प्रचण्ड’’ की पार्टी नेपाल की संसद में तीसरे नम्बर की पार्टी है। ठीक वैसे ही जैसे बिहार विधानसभा में नीतिश कुमार की पार्टी राजद, भाजपा के बाद तीसरे नम्बर की पार्टी है। पूंजीवादी लोकतंत्र का कमाल यह है कि जैसे किसी भी तरह से नीतिश कुमार ही बिहार के मुख्यमंत्री हैं ठीक वैसे ही ‘‘प्रचण्ड’’ भी नेपाल के प्रधानमंत्री बनते हैं। चाहे उनके दल से बड़े-बड़े दल हों पर तीसरे दल का ही सत्ता के दलदल में फूल खिलता है। 
    
नीतिश कुमार और ‘‘प्रचण्ड’’ आपस में मिले हैं या नहीं, पता नहीं परन्तु लगभग प्रचण्ड के असली गुरू नीतिश कुमार ही हैं। कहने को प्रचण्ड एक भूतपूर्व क्या अभूतपूर्व माओवादी हैं। क्रांति का टीका लगाने वाले प्रचण्ड ने क्रांति को ही कलंक का टीका लगा दिया। वैचारिक अवसरवाद की कीचड़ में लहालोट करते-करते प्रचण्ड अब फरमाने लगे हैं कि वह जब तक जिन्दा रहेंगे तब तक नेपाल में उथल-पुथल ही मची रहेगी। इसका मतलब क्या है कि यह आदमी सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी करेगा। सत्ता बस हाथ में रहनी चाहिए इसके लिए जिसे चाहो उसे ठगो। नीतिश कुमार की तरह प्रचण्ड की खासियत यह है कि दोनों ही परले दर्जे के बेशरम हैं। दोनों को ही भाजपा के दरवाजे पर नतमस्तक होने में कोई दिक्कत नहीं है। प्रचण्ड कुछ माह पूर्व भाजपा के केन्द्रीय कार्यालय में सिर नवा चुके हैं। 

आलेख

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।