निगार नफीस: एक श्रद्धाजंलि

27 दिसंबर 2022 की सुबह प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की कार्यकर्ता निगार नफीस की मृत्यु हो गई। 67 वर्षीय निगार जी की तबियत लंबे समय से खराब चल रही थी। 27 दिसंबर की सुबह दोनों फेफड़े खराब हो जाने की वजह से उनकी मृत्यु हो गई। निगार नफीस अपने पीछे तीन बेटों तथा तीन बेटियों को छोड़ गई हैं। 
    

बदायूं जिले के शेखुपुरा गांव की निवासी निगार नफीस युवावस्था से ही जनपक्षीय राजनीति में सक्रिय रहीं तथा अपने अधिवक्ता के पेशे के जरिए जरूरतमंद महिलाओं की मदद करती रहीं। वह शुरुआती दिनों में अपने पति नफीस अहमद के साथ भाकपा (माले) से जुड़ीं किंतु जब राजनीतिक मसलों की वजह से उनके एक बेटे की हत्या हो गई तो उन्होंने भाकपा (माले) को छोड़ दिया। भाकपा (माले) छोड़ने के बाद भी निगार नफीस निरंतर जनपक्षीय राजनीति से जुड़ी रहीं। 
    

2017 में प्रगतिशील महिला एकता केंद्र से जुड़कर उन्होंने महिला अधिकारों पर काम करना शुरू किया। निगार नफीस ने जीवनपर्यंत महिलाओं से जुड़ी रूढ़िवादिता के खिलाफ लगातार संघर्ष किया। वह कामकाजी महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर बच्चों की देख-रेख तथा अन्य प्रावधान जिनका श्रम कानूनों में जिक्र है, के लिए भी आवाज उठाती रहीं। 
    

नागरिक पाक्षिक उनको अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित करता है। 

आलेख

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।