सम्पादकीय

कृत्रिम बुद्धिमत्ता और वास्तविक दुनिया

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गौर से देखा जाये तो मानव ज्ञान के तीन अहम स्रोत रहे हैं। जिन्हें- ‘‘उत्पादन, वर्ग संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग’’- जैसे तीन क्षेत्रों में बांटा जाता रहा है। वास्तविक दुनिया में उत्पादन (यानी कृषि, उद्योग से लेकर वैज्ञानिक उपकरण) का विशाल क्षेत्र और मानव जाति के भरण-पोषण, रहन-सहन आदि को किन्हीं कृत्रिम बुद्धिमत्ता से लैस रोबोटिक उपकरणों से प्रतिस्थापित करना शेखचिल्लीपना है। और फिर कोई तो होगा जो इन मशीनों का निर्माण व उपयोग करेगा। और जहां तक वर्ग संघर्ष के क्षेत्र की बात है वहां असल झगड़ा मनुष्यों के बीच है। एक ओर पूंजीपति है तो दूसरी ओर मजदूर, किसान और अन्य मेहनतकश हैं। साम्राज्यवादी देशों के आपसी झगड़े हैं तो ये देश तीसरी दुनिया के देशों का शोषण-दोहन करते हैं। यानी मनुष्यों की अति विशाल बहुसंख्या शोषित-उत्पीड़ि़त है। और रही बात विज्ञान और वैज्ञानिक प्रयोगों की तो ये आज एकाधिकारी पूंजी के सेवक बने हुए हैं।

तुम्हारे झूठे ख्वाबों की कीमत हम क्यों चुकायें

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दुनिया में गाहे-बगाहे इस बात पर चर्चा चलती रहती है कि क्या भारत भविष्य में एक महाशक्ति (सुपर पावर) बन सकता है। क्या भारत चीन की तरह उभर सकता है। और अक्सर ही इसका जवाब ‘‘न

फिलिस्तीन जिन्दाबाद !

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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के शपथ ग्रहण समारोह में जब दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी एलन मस्क ने नाजी अभिवादन किया था तब ही यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि अब ये नये नाज

युद्ध विराम समझौता

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काफी ना-नुकुर और षड्यंत्रकारी हील-हवाली के बाद इजरायल के नाजी जियनवादी क्रूर शासक, हमास के साथ ‘युद्ध विराम’ के लिए राजी हुए। और अंततः 19 जनवरी को युद्ध विराम समझौता लागू

एक देश-एक चुनाव : भारतीय गणराज्य का नया शोकगीत

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‘एक देश-एक चुनाव’ हिन्दू फासीवादियों के अलावा इनके आका अडाणी-अम्बानी-टाटा जैसी एकाधिकारी घरानों की भी चाहत है। समय-समय पर होने वाले चुनाव इन्हें अपनी लूट में बाधा दिखाई देते हैं। अगर सरकार गिरती, बनती-बिगड़ती है तो इनका गणित गड़बड़ा जाता है। इन्हें नयी सौदेबाजियां करनी पड़ती हैं। जिस ‘‘विकास’’ का हवाला मोदी एण्ड कम्पनी तथा एकाधिकारी घरानों का पालतू मीडिया रात-दिन देता है। वह क्या है? वह भारत के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के साथ भारत के मजदूरों-किसानों का निर्मम शोषण है।

लो, एक साल और बीता

चुनावी साल बीतने के बाद भारत लगभग वहीं खड़ा है जहां वह पिछले वर्ष खड़ा था। मणिपुर जलता रहा और हिन्दू फासीवादियों ने पूरे देश में अलग-अलग मुद्दों के जरिये देश में मुसलमानों के प्रति घृणा, वैमनस्य की आग को भड़काने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इस सच्चाई के बावजूद कि आम चुनाव में हिन्दू फासीवादियों को जीत बहुत कठिनाई से मिली है उन्होंने अपने फासीवादी कुकृत्यों को ही अपनी जीत का मूल सूत्र बनाया हुआ है। योगी, हिमंत विस्वा सरमा जैसे कई-कई छोटे-छोटे मोदी अपने राजनैतिक कैरियर को उसी लाइन पर बढ़ा रहे हैं जिस पर चलकर मोदी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे। 

‘‘अरबन नक्सल’’

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मोदी साहब वस्तुतः जो चाहते हैं वह यह कि कोई भी आम लोगों के बारे में बात न करें। न कोई उनकी कोई मांग उठाये। क्योंकि वे ही सबसे बड़े गरीब नवाज हैं। उनके शब्दों में, ‘उन्होंने गरीबी देखी है’, ‘बचपन में चाय बेची है’, वगैरह-वगैरह। यहां मोदी साहब अपने आपको एक ऐसे व्यक्ति और अपने शासन को ऐसे शासन के रूप में पेश करते हैं जहां वे स्वयं गरीबों के सबसे बड़़े रहनुमा हैं और उनके शासन में हर गरीब के आंसू पोंछे जा चुके हैं। गरीबी, बेरोजगार, भुखमरी, असमानता, महंगाई यानी गरीबों की हर समस्या का या तो अंत कर दिया गया है या बस अंत होने ही वाला है। 

ये डर है तो किस बात का डर है

/ye-dar-hai-to-kis-baat-kaa-dar-hai

जब दुनिया में कहीं समाजवादी राज्य नहीं है; जब दुनिया भर में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन टूट-फूट बिखराव का शिकार है; जब मजदूर वर्ग क्रांति अथवा समाजवाद की ओर कोई हल्का सा झुकाव भी नहीं दिखा रहा है, तब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प और भारत में मोदी विपक्षियों पर समाजवाद या नक्सलवाद का आरोप क्यों लगा रहे हैं। समाजवाद, कम्युनिज्म में ऐसा क्या है जो इनका ‘‘भूत’’ पूंजीपति वर्ग को सताता रहता है। इनमें से हर पार्टी को दूसरी पार्टी या हर नेता को दूसरे नेता की हकीकत, जन्म कुण्डली का अच्छे से पता है फिर ये आरोप-प्रत्यारोप क्यों?

चुनाव में अपचयित होता लोकतंत्र

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हमारे देश में किसी अन्य चीज में दिलचस्पी हो या न हो परंतु चुनाव में सबकी दिलचस्पी रहती है। भले ही दो राज्यों के विधानसभा के चुनाव थे परंतु इन चुनाव में दिलचस्पी देशव्यापी

आलेख

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।