ये किसका लहू है कौन मरा

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बहराइच प्रकरण

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में बहराइच का नाम सुर्खियों में आया था। वजह थी खूनी भेड़ियों का आतंक। इस बार 13 अक्टूबर को बहराइच का नाम फिर से सुर्खियों में आया। वजह आतंक थी लेकिन इस बार ये आतंक संघ-भाजपा द्वारा पैदा किया हुआ है। बहराइच को संघ-भाजपा ने दंगों की आग में झोंक दिया।

प्रकरण कुछ इस प्रकार घटित हुआ। 13 अक्टूबर को दुर्गा पूजा के विसर्जन के दौरान एक जुलूस महाराजगंज बाजार से निकल रहा था। इस जुलूस में तेज़ संगीत बज रहा था। योगी-मोदी के उत्तेजक नारे लगाए जा रहे थे। और धार्मिक अल्पसंख्यकों को उकसाया जा रहा था। तभी एक मुस्लिम व्यक्ति अब्दुल हमीद के घर के पास कहा-सुनी हो गयी। एक नौजवान जिसका नाम रामगोपाल मिश्रा था, एक छत पर चढ़ जाता है और हरे रंग के झंडे को उतार कर फेंक देता है और भगवा झंडा लगाने की कोशिश करता है तभी कुछ मुस्लिम युवक उसको पकड़ लेते हैं। पथराव और फायरिंग के दौरान रामगोपाल को गोली लगती है और वह मारा जाता है। मूर्ति विसर्जन के लिए जा रहे अन्य जुलूसों को रोक लिया जाता है और फिर नियोजित ढंग से भीड़ को हिंसा और आगजनी के लिए उकसाया जाता है। घरों, दुकानों को आग लगा दी जाती है। लूटपाट की जाती है।

अगले दिन रामगोपाल की शव यात्रा निकाली जाती है। इस शव यात्रा में लाठी-डंडों से लैस भीड़ होती है। वह भी तब जब पुलिस साथ में थी और पुलिस सब कुछ देखकर भी चुप रहती है। वह फिर से दंगा होने की राह देखती है। जो पुलिस शवों को रात में इसलिए जला देती है कि इससे शांति को खतरा होगा वही पुलिस 5 किलोमीटर तक जुलूस (दंगाई भीड़) निकालने देती है।

जब उपद्रव ज्यादा बढ़ जाता है तब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार आला अधिकारियों को स्थिति संभालने के लिए भेजती है। 16 अक्टूबर तक के लिए इंटरनेट बंद कर दिया जाता है। लेकिन तब तक संघ-भाजपा अपने मकसद को हासिल कर चुकी होती है। टी वी चैनल इस घटना को लेकर मुस्लिम समुदाय को आक्रामक और हिंदू समुदाय को पीड़ित बताने में जुट जाता है।

संघ-भाजपा बहराइच प्रकरण के माध्यम से कई निशाने साधने की फिराक में है। अभी गाज़ियाबाद में डासना प्रकरण की आंच धीमी नहीं पड़ी थी और उस आंच की लपटें यति नरसिम्हानंद तक पहुँचने लगी थीं। संघ भाजपा इस मुद्दे पर पीछे हट रहा था। इस प्रकरण के बाद वह फिर मुस्लिम समुदाय पर आक्रामक होने की कोशिश कर रहा है।

इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में 10 विधानसभा सीटों पर उप चुनाव होने हैं। अप्रैल-मई में हुए आम चुनाव में संघ-भाजपा को मुंह की खानी पड़ी थी (ख़ासकर उत्तर प्रदेश में)। राम मंदिर का भी उसका जादू नहीं चला। बहराइच प्रकरण के माध्यम से वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर वोटों की फसल काटना चाहती है (गाज़ियाबाद के डासना प्रकरण में भी वह यही करना चाह रहे थे लेकिन उसका ज्यादा फायदा भाजपा को नहीं मिल रहा था)।

बहराइच प्रकरण के बाद रामगोपाल मिश्रा की मौत को भुनाने के लिए संघ-भाजपा के नेता और उनका आई टी सेल सक्रिय हो गया है। वे मुस्लिम समुदाय पर उसकी मौत का आरोप मढ़ कर उनको सबक सिखाने की बातें कर रहे हैं। वे यह सब रामगोपाल के परिवार के हवाले से कर रहे हैं। लेकिन रामगोपाल की मौत के यही लोग जिम्मेदार हैं। अपने बेटे-बेटियों को विदेशों में पढ़ाने और उनका जीवन बेहतर करने वाले ये लोग आम जनता के बेटे बेटियों को धर्मांधता में इतना डुबो देते हैं कि वे उपद्रवी बन अपनी जान दंगों में गंवाते रहते हैं।

रामगोपाल की शादी को अभी तीन महीने हुए थे। रामगोपाल चार भाई थे जिनमें पहले ही दो भाइयों की मौत आकस्मिक तरीके से हो चुकी है। और अब रामगोपाल भी अपनी जान गंवा चुका है।

बहराइच प्रकरण के बाद पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया है वे सभी मुस्लिम हैं। इसका साफ सा मतलब है कि दंगों का पूरा इलज़ाम मुस्लिम समुदाय पर थोपा जायेगा।

दंगों के असली जिम्मेदार अपनी जीत का आनन्द उठा रहे हैं। नेता अपनी सीट का गणित बैठा रहे हैं। संघ-भाजपा हिन्दू फासीवादी परियोजना को आगे बढ़ा रहे हैं। पूंजीपति यह देखकर खुश है कि लोग मजदूरी, मंहगाई, बेरोजगारी के लिए नहीं बल्कि धर्म के नाम पर लड़ने में मशगूल हैं।

इस सबमें पिस रहे हैं आम जन। उनके घर जले-लुटे, हत्या, पिटाई, मुकदमे सभी कुछ उनके हिस्से है।

आलेख

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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