मारुति मजदूर आंदोलन : संघर्ष और दमन के 12 साल

(मारुति आंदोलन पर दो वर्ष पूर्व नागरिक अखबार में छपा आलेख। मारुति आंदोलन के 12 वर्ष 18 जुलाई को पूरे होने पर आंदोलन को समझने के लिए इसे जरूर पढ़े)

4 जून 2011 को शुरू हुये मारुति आंदोलन को दस साल पूरे हो गये। आजीवन कारावास की सजा पाये 13 साथियों में से दो साथियों की असामयिक मृत्यु हो चुकी है। पैरोल पर जेल से बाहर आये पवन दाहिया की करण्ट लगने से मृत्यु हो गयी तथा मुख्य अभियुक्त के रूप में प्रचारित जियालाल को कैंसर था। पर्याप्त इलाज शासन-प्रशासन द्वारा न कराये जाने से उनकी हाल ही में मृत्यु हो गयी। जेल में बंद साथियों को बहुत ज्यादा पारिवारिक नुकसान उठाना पड़ा, इस त्रासदी से दुखी कई के परिजन काल-कवलित हो गये।

नौकरी से निकाले गये 546 स्थाई श्रमिक अभी भी लेबर कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं। वहीं 1800 ठेका श्रमिक जिन्हें निकाल दिया गया था वह कहीं और नौकरी कर जीवन यापन कर रहे हैं। इनमें से कुछ एक ने मारुति आंदोलन की अगुवाई में भी मदद की। जेल में लगभग 40 माह कैद रखे गये लगभग 115 साथी जिन्हें कोर्ट ने भी निर्दोष मान लिया था उनकी भी कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई है।

यूनियन बनाने के कानूनी अधिकारों को पाने के लिए मारुति के मजदूरों को 2011 में तीन हड़तालें करनी पड़ी थीं। फैक्टरी के स्तर पर स्थाई, ठेका, अप्रेन्टिस सभी तरह के मजदूरों ने अपने को वर्ग के तौर पर संगठित किया था। आंदोलनों के समर्थन में दर्जन भर से ज्यादा फैक्टरियों के मजदूरों ने हड़ताल की थी। मजदूर आंदोलन में एक नई ऊर्जा, उत्साह का संचार हो रहा था। मजदूरों के हौंसले तोड़ने के लिए प्रबंधन व शासन-प्रशासन ने 30 अगुवा नेताओं को पैसे देकर-धमकाकर कंपनी से बाहर कर दिया और बड़े पैमाने पर प्रचार किया कि नेता बिक गये। मजदूरों ने उस चुनौती को स्वीकार कर फिर से अपनी एकता कायम कर यूनियन की प्रक्रिया शुरू की। अंततः 1 मार्च को यूनियन का रजिस्ट्रेशन करना पड़ा।

4 जून के बाद से कंपनी पर मजदूरों का प्रभुत्व था। आंदोलन से उपजी चेतना के परिणामस्वरूप प्रशासन को यूनियन का रजिस्ट्रेशन देना पड़ा। लेकिन जब यूनियन ने सभी ठेका मजदूरों को स्थाई करने की मांग की तो प्रबंधन ने मजदूरों की एकता को खून में डुबोने के लिए 18 जुलाई 2012 का षड्यंत्र रचा और कुछ हद तक सफल हुआ।

इस संघर्ष के दौरान मारुति के मजदूरों ने सीख ली कि उनका दुश्मन केवल मारुति का प्रबंधन नहीं बल्कि पूरी पूंजीवादी व्यवस्था है। इस आंदोलन ने बैठकी हड़ताल को ट्रेड यूनियन आंदोलन के एक रूप के तौर पर फिर से जिन्दा किया। जिसे पूरे देश में ट्रेड यूनियन आंदोलन में जगह-जगह दोहराया गया।

आज जिस तरह पूंजीपतियों ने फैक्टरी संस्थान के भीतर मजदूरों को स्थायी मजदूर-अस्थाई मजदूर-ठेकेदार के मजदूर-अप्रेन्टिस ट्रेनी में बांट रखा है। उसमें फैक्टरी के स्तर पर वर्गीय एकता को कायम किये बिना ट्रेड यूनियन का संघर्ष भी संभव नहीं है। मजदूरों के ऊपर पूंजीपति वर्ग द्वारा संगठित होकर जिस तरह से हमले किये जा रहे हैं। उसका मुंहतोड़ जवाब मजदूरों की क्रांतिकारी वर्गीय एकता द्वारा ही दिया जा सकता है। सुधारवादी पार्टियों ने जिस तरह से शासक वर्ग के सामने आत्मसमर्पण किया है इसे मारुति आंदोलन में भी देखा गया। मजदूर वर्ग का जुझारू क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन सेंटर और उससे बढ़कर मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी की जरूरत फिर से रेखांकित हुई और उसका अभाव आंदोलन की सीमा बनी।

ये मजदूरों के संघर्ष का जज्बा ही है कि पहले हौंडा आंदोलन के दमन, फिर मारुति मजदूरों के दमन के बावजूद बीते वर्षों में गुड़गांव इण्डस्ट्रियल बेल्ट के मजदूर लगातार संघर्षरत रहे हैं। हार, दमन और जेलें मजदूरों के संघर्ष के जज्बे को नहीं तोड़ सकती। पर संघर्ष को जीत की ओर ले जाने के लिए जरूरी है कि न केवल कारखाने स्तर पर मारुति मजदूरों सरीखी सभी मजदूरों की एकता कायम की जाये बल्कि इलाकाई पैमाने पर भी मजदूरों का वर्गीय क्रांतिकारी एका कायम किया जाये। इस एका के दम पर ही पूंजी के हमले का जवाब दिया जा सकता है। साथ ही साथ अतीत के जख्मों का भी हिसाब किया जा सकता है।

नागरिक (16-30 जून, 2021)

आलेख

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